पुरवाई में प्रकाशित दो संपादकीयों ‘न तुम जीते, न हम हारे’ और ‘नदाव लेपिद को ज्यूरी चीफ़ किसने बनाया!’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं। यहाँ वही प्रतिक्रियाएं शामिल की गई हैं, जो संपादकीय पर टिप्पणी के रूप में नहीं आई हैं।

डॉक्टर दिविक रमेश
अच्छा लिखा है तेजेन्द्र।
हाँ, हिमाचल में तो फिर भी प्रियंका गांधी ने मेहनत की और फल मिला लेकिन गुजरात को लगभग अनाथ छोड़ दिया गया। पिछली बार राहुल गांधी ने पूरा दम लगाया था और बीजेपी को 99 पर रोक दिया था -77 लेते हुए। क्या इस बार कांग्रेस को कुछ खास सिद्ध करना था। मसलन यह कि राहुल गांधी की उपस्थिति बहुत कुछ कर सकती है, सो भाजपा को उन्हें हल्के में लेना छोड़ना होगा।
दूसरे, आम आदमी और कांग्रेस के बीच कोई अनकहा समझौता तो नहीं हुआ था। गुजरात में कांग्रेस की सुस्ती के कारण आम आदमी राष्ट्रीय पार्टी बन गई है और हिमाचल में आम आदमी के उदासीन हो जाने के कारण कांग्रेस विजयी हो गई है।
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संजीव जायसवाल
अजब हैं ये सेक्यूलरिस्ट।
शिंडलर्स लिस्ट और परज़ानिया इन्हें महान फ़िल्में लगती है क्यूँकि वो मासूमों के क़त्लेआम को उजागर करती हैं। लेकिन घृणित आश्चर्य है कि इन्हीं लोगों को कश्मीर फ़ाइल्स पर आपत्ति है।
इन सेक्यूलरिस्टों की परज़ानिया के गुणगान पर की गई टिप्पणियों को ढूँढ ढूँढ कर खुली अदालत में मुक़दमा चला कर पूछा जाना चाइए कि दो क़त्ले-आमों में से एक पर बनी फ़िल्म इन्हें जायज़ और दूसरी पर बनी नाजायज़ क्यों लगती है।
लानत है ऐसे लोगों पर जो क़त्ल और बलात्कार के मामलों पर प्रतिक्रिया देने से पहले यह जानना ज़रूरी समझते है कि जुल्म किसने किया है और किस पर हुआ है, उनकी जाति और धर्म क्या है।
सुधा आदेश
नदाव लैपिड को ज़्यूरी चीफ किसने बनाया, संपादकीय न सिर्फ प्रश्न खड़ा करता है वरन कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म संवेदनशील फ़िल्म पर नादाव लेपिड के साथ राजनैतिक रोटियां सेकने वाले राजनीतिज्ञओं की संवेदनहीन मनोवृति को भी दर्शाता है। इसी मनोवृति ने हमारे देश का बहुत नुकसान किया है। इस मुद्दे का सटीक विश्लेषण करने के लिए आपको बधाई।
उषा साहू
संपादक जी नमस्कार,
विषय की जानकारी से पूर्णतया समृद्ध संपादकीय के लिए धन्यवाद । आपने इस आलेख से, एक ही नजर में, पूरा का पूरा गोवा फिल्म फेस्टिवल दिखा दिया ।
नदाव लेपिड को चीफ़ ज्यूरी के लिए नामित किया जाना सचमुच एक उलझा हुआ सवाल है । वे किस दृष्टि से, फिल्मों का मूल्यांकन कर सकते हैं । नदाव लेपिड को मुख्य ज्यूरी के लिए नामित करने में क्या किसी की निजी रुचि थी ???
पूरे फिल्म फेस्टिवल के दौरान, हिन्दी फिल्म ‘दि कशमीर फाइल’ का बोल-बाला रहा । सच पूछो तो ये भी प्रचार का ही एक हिस्सा हो जाता है । लोगों में उत्सुकता जागेगी कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है, जो फिल्म इतने विवादों का विषय बन गई ।
नदाव लेपिड, भारत की समस्याओं को, उनकी भावनाओं को, उनकी सामाजिक संवेदनाओं को कैसे समझ सकते हैं । किताबों में पढ़ने या अन्य स्रोतों से जानकारी एकत्र करने में और यहा रहकर जीवन बिताकर, जानकारी प्राप्त करने में बहुत फर्क है ।
‘दि कश्मीर फाइल’ फिल्म में सच्चाई का तांडव दिखाया गया है, जिसे फिल्म फेस्टिवल में भद्दा अश्लील और वल्गर करार किया गया है । मतलब सच्चाई का सामना नहीं करना चाहिए, बल्कि झूठी तसल्ली से स्वयं को भरमाए रखना चाहिए ।
ऐसे में विरोधी पार्टियां भी अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में लग गई । रही-सही कसर जयचंदों ने पूरी कर दी ।
संपादक जी, बेबाकी से, सच्ची लगन से, लिखे गए, श्रमसाध्य संपादकीय के लिए अनेकों धन्यवाद।
डॉ मुक्ति शर्मा
तेजेंद्र जी आज के संपादकीय के माध्यम से बहुत से सवाल उठाने का आपने प्रयास किया है। पाठकों को ज्ञानवर्धक संपादकीय मिला ही हैं साथ में राजनीतिज्ञों की आंखें खोल सकता है।
शोभना
भारतीयों के पास जैसे अपनी रीढ़ ही नही है । विदेशियों के कदमों में लहालोट होने को तैयार हम जो विदेशी कह दे वो मान लेते हैं।

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