26 फरवरी, 2023 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘फ़िजी की हवाई हिंदी से फ़िज़ गायब’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त टिप्पणियां

भाग्यम शर्मा
सुबह उठते ही पहला काम आपके लेख ही पढ़ा मैंने। मज़ा आ गया। कमाल का लेख आपका। एक बात और मैं बताऊं हूं आपको साउथ से ललिता नाम की एक महिला जब सारी फॉर्मेलिटीस पूरी करके हवाई जहाज पर चढ़ गई। उसे वही रोक लिया गया। आपका 6 महीने तक ही पासपोर्ट वैलिड है। पर उन लोगों ने कहा 3 दिन कम हो रहे हैं तो फ़िजी वालों ने मना कर दिया। उसने इस लेख को कई पत्रिकाओं में दिया है। आप सोचिए उसकी मानसिक स्थिति कैसी होगी? और चेन्नई से दिल्ली का खर्चा और वू अपने को अपमानित महसूस कर रही थी। बिल्कुल सही बात है। पहले जब सब चेक कर दिया एन वक्त पर ऐसा करना चाहिए क्या? मुझे आपके लिए पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है। बहुत-बहुत बधाई…!
मनीष श्रीवास्तव
बहुत बढ़िया लेख सर, बहुत तरीके से सुन्दर शब्दों में इस खेल का पर्दाफ़ाश किया है आपने। मेरी पत्नी रीतू जिस यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं वहाँ के VC, जो राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर थे, अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, कुछ अन्य भी जिनका हिंदी से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है, वे सभी हिंदी के नाम पर विदेश की यात्रायें कर चुके हैं।
बहुत उत्कृष्ट संपादकीय के लिए पुनः बहुत बधाइयाँ…!
मीनाक्षी जोशी
खरी खरी। मुहावरों, फिल्मी गीतों के सटीक व्यंग्यात्मक लहजे का प्रहार धारदार है । जुगाड़ू संस्कृति के शानदार उदाहरण उन लोगों के लिए तमाचे से कम नहीं जो केवल झूठी तालियों के मोहताज हैं । हिंदी की स्थिति का आइना दिखाने वाले आपके इस साहसिक संपादकीय के लिए साधुवाद 🙏
अरुणा अजितसरिया, लंदन
विश्व हिंदी सम्मेलन की असलियत को आपने बेबाक़ी से उघाड़ा है। सामयिक और सटीक सम्पादकीय लिखने वाले कम पढ़ने को मिलते हैं। पुरवाई के संग्रहणीय सम्पादकीयों की शृंखला में एक और नगीना जोड़ने के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।
संजीव जायसवाल
भाई आपने तो बखिया उधेड़ कर रख दी।हिंदी के नाम पर मलाई काटने की परम्परा रही है इसलिए अब कुछ भी अचंभित नहीं करता। फिर भी आपको साधुवाद की आपने साच्चाई को सामने लाने का कार्य किया।
उषा राजे सक्सेना
बहुत बढिया विश्लेषण किया है आपने। यह मुफ्तखोरी और जुगाड़ की नीति भारत को पीछे ले जा रही है। ‘वाकई फीजी की हवाई हिंदी से फिज (fiz) गायब…!
शिव सिंह
ज़बरदस्त, प्रवासी हिंदी व्यंग्य! इतनी धार अंगूर के खट्टेपन से आई क्या ः)
काश हिंदी को आप जैसे १०-२० लोग मिल जाते तो हिंदी का कम से कम शैक्षणिक और वैज्ञानिक वजन जरुर बढ़ जाता। ईश्वर दीर्घायु करें। 🙏
डॉक्टर सुषमा देवी
बिल्कुल सटीक सत्य व्यंग्यात्मक लहजे में, आपने मेरे मन की बात जान ली।
पिछले20 वर्षों से हिंदी के प्रसार अभियान से जुड़ी हूँ।
हर हिंदी कार्यक्रमों में मेरा होना, कई हिंदी के आकाओं को खटकता है।एक सज्जन तो पूछ ही लिए कि कितना मिल जाता है आपको?
मेरा जवाब था, क्या मिल जाता है 3 से 4 सौ बस और ऑटो के खर्च हो गए!
आपका लेखन बड़ा मजेदार होता है💖💖🙏🏻
रमेश कुमार रिपु
सरकार के पास पैसा नहीं है… इसलिए सिर्फ आधा सैंकड़ा लोगों को ही भेजा.
आप मोदी-भक्त नहीं हैं इसलिए सूची में आपका नाम बीजेपी वाले नहीं जोड़े.. 😄😄💐💐
डॉक्टर आरती गोयल
नमस्कार! आपने पूरा एक्स-रे वाला चित्र खींच दिया है सर! बाहरी वेश-भूषा जो भी हो, आंतरिक जानकारी हुई पढ़कर। बहुत ही तीखी व्यंग्यदार भाषा हँसने को बाध्य कर गई।
भावना कुंवर, ऑस्ट्रेलिया
वाह क्या बखिया उधेड़ी है आपने लेख के माध्यम से… “भारत में जुगाड़ संस्कृति की स्थापना रामायण काल से ही हो गई थी….रेवड़ी बाँटना आदि…”
आपका संपादकीय पढ़कर आँखों के सम्मुख एक साथ कितने ही चित्र उभर आए… कैसे लोग जुगाड़ लगाते हैं…चमचागिरी करते हैं… चाहे वो सम्मान पाने की बात हो चाहे इस तरह के कार्यक्रमों में जुगाड़ लगाने की… क्या-क्या खरा खरा लिखा है आपने… ख़ुद का पहले सम्मान कराओ और ख़ुद ही गाओ… ग़ज़ब की लेखनी चली आपकी! बहुत बहुत बधाई आपको इस “बखिया उधेड़” संपादकीय की!
डॉक्टर रवि शर्मा
आदरणीय प्रणाम । सदैव की भाँति अत्यंत सटीक-सार्थक संपादकीय । आपने मेरे मनोभावों को जोरदार व्यंग्यात्मक शैली में अभिव्यक्त किया है, हार्दिक बधाई एवं स्वस्ति कामनाएँ। 👌🙏
हर्षवर्धन आर्या
अद्भुत सर 👏👏क्या ग़ज़ब लिखा है आपने l
सच में हिंदी के नाम पर करोड़ों रुपये स्वाह होते हैं और परिणाम शून्य l
इतना रुपया स्तरीय पत्रिकाओं के लिए पर्याप्त सहायता उपलब्ध हो… जिन सरकारी विभागों में अंग्रेज़ी में काम होता है वहाँ हिंदी में काम करने वालों को प्रमोशन देने लगें … हिंदी में उच्चतर शिक्षा पाने वालों के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोजगार उपलब्ध की पहल हो तो यहीं प्रत्येक दिवस हिंदी दिवस हो जाए…!
लक्ष्मी शंकर वाजपेई
इस बेबाकी को सलाम! एक उत्कृष्ट व्यंग्य पढ़ने का आनंद ..
सटीक धारदार प्रासंगिक सार्थक…!
मीरा गौतम
सम्पादक जी ग़ज़ब किया. क्या क्या न कहा उन्हें जो मुँह उठाकर हवा के रुख के मुताबिक उड़े चले जाते हैं.
कितना अपमान कि बीच रस्ते धर दिये गये ज़मीन पर.कितनी अव्यस्था कि बीच में कह दिया जाए कि अपने ख़र्चे खु़द उठाओ.
यह तो क़माल हुआ .क्या जानेवालों में हिन्दी का स्वाभिमान बचा है. यह कैसा चूल्हानौत था कि बुलाकर खदेड़ दिया गया. दूर की राम राम भली.
हम भले हैं घर में ही.दुनिया को देखते हैं,सुनते हैं और महसूस कर दो पंक्ति लिखकर जीते हैं और तसल्ली में रहते हैं.
संपादकीय में तीखे व्यंग्य, कटाक्ष और जाने वालों की बखिया उधेड़ कर रख दी गयी है.
जानने वाले इसमें हिन्दी जगत की बुनावट को समझ सकते हैं और भारतवंशी की हिन्दी के प्रति कृत्रिम रुख़ के दर्द को भी. दो टूक लिखे की बधाई🙏🏻
मृदुला श्रीवास्तव
बहुत शानदार संपादकीय। हमारे होटल में इसरो के तीन अधिकारी थे जो पूरा दिन होटल में ही बिताते थे। पता चला कि उन्हें आदेश मिला है मेल से कि उन्हें सम्मेलन में शिरकत नही करनी है। वे बेचारे होटल से बाहर भी नही निकलते। जब मैं शाम को सम्मेलन से लौटती तो वे वहीं रिसेप्शन पर बैठे मिलते। तीसरे दिन बड़ी जद्दोजहद के बाद उन्हें अनुमति मिली जाने की। तो वो समापन वाले दिन मात्र दोपहर के लंच के समय वहां पहुंचे। मैने कहा कि कम से कम वेन्यू तो देख आइए तो बोले नहीं हमारे खिलाफ कोड ऑफ कंडक्ट लग जायेगा।
आपने सही बताया। यही हुआ है। पर क्यों इसका पता नहीं चला।
आरती पांड्या, मुंबई
बहुत ही बढ़िया लेख है । इसे कहते हैँ बखिया उधेड़ना और वह भी सुई चुभो चुभो कर ।
वाकई इन सरकारी आयोजनों के चोंचले सिर्फ या तो रिकॉर्ड्स में सहेजने के लिए होते हैँ या फिर सरकारी दामादों को मुफ्तखोरी करवाने के लिए । मुझे समझ नहीं आता है कि विदेशों में जाकर हिंदी का प्रचार करने से अपने देश में क्या मातृभाषा की दशा सुधर जाएगी ?
जब तक हमारी सोच पर हावी अंग्रेजी का भूत नहीं उतरेगा तब तक अपनी भाषा और संस्कृति अपने ही देश में तिरस्कृत रहेगी और संस्कृत की तरह ही एक दिन हिंदी को भी मृत भाषा का ठप्पा लग जाएगा ।

1 टिप्पणी

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.