07 नवंबर 2021 के संपादकीय ‘ भ्रम भंग होते ही हैं…’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

– शन्नो अग्रवाल, लंदन
बहुत बढ़िया और सटीक संपादकीय लिखा है आपने, तेजेन्द्र जी।
आज जो भी दिखता या लगता है  वह इमेज किसी वजह से भविष्य में बदल भी सकती है। किसी पर जोर नहीं होता कि वह दूसरे के बारे में क्या सोचता है। छवियाँ बनती हैं और बिगड़ती हैं। ऐसा होता रहा है और होता रहेगा।
लेकिन इसी भ्रम को लेकर आपने जो लिखा उसे पढ़कर उम्मीद है कि लोग किसी के बारे में अच्छी या बुरी छवि न बनायें तो ही अच्छा। बनाने का भ्रम टूटेगा। क्योंकि किसी दिन कोई झटका लगते ही वह फिर बिखर सकती है।
इसी तरह आपने कुछ अँग्रेजी और हिंदी के शब्दों को लेकर भी अच्छी व्याख्या की है। कि हिंदी के कई शब्दों का अँग्रेजी में और अँग्रेजी के कई शब्दों का हिंदी में अनुवाद होना संभव नहीं।
पूरब हमेशा पूरब रहेगा और पश्चिम हमेशा पश्चिम। धन्यवाद।
डा0 तारा सिह अंशुल, गोरखपुर
तेजेन्द्र जी, इस बार पुरवाई के संपादकीय का शीर्षक, ‘भ्रम भंग होते ही हैं’ शीर्षक के अनुरूप यथार्थ-परक आलेख है,..
यकीनन भ्रम हमेशा भंग हो जाते हैं… दर असल जैसे अंधेरे में इंसान ‘सांप को रस्सी और रस्सी को सांप’ समझकर अपनी समझ के अनुसार आश्वस्त रहता है, ठीक वैसे ही, बगैर देखे, समझे, अनुभव किए, किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति या विचार को हक़ीक़त का जामा पहनाये… भ्रम की कलई खुलने से पहले तक, भ्रम को हकीकत समझ कर पूर्णतः आश्वस्त  रहता है।
इसीलिए जब वह बिल्कुल समीप से देखता है या उसको समझ पाता है, तब उसका वह भ्रम टूटता है।
संपादकीय आलेख में संपादक महोदय तेजेन्द्र शर्मा बहुत ही अच्छे ढंग से समझाने की अपनी कोशिश में सफल रहे हैं। बात पाठकों तक पहुंच रही है।
वास्तव में हर एक के जीवन में अकसर ऐसा होता है कि, आदमी किसी के विषय में कोई और न कोई अवधारणा पाल लेता है, उसी को सच समझता है।
संपादकीय में लिखा गया है कि,… ध्यान देने लायक बात यह है कि, भ्रम हम सभी स्वयं  बनाते भी हैं, और उसे स्वयं तोड़ते भी हैं।
इसमें आपने अपने संस्मरण के माध्यम से बताया है कि पृथ्वी राज कपूर के प्रशंसक फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा  का, पृथ्वी राज कपूर जी के प्रति प्रेम आस्था का भ्रम उनके मुंह से निकली एक गाली से कैसे टूटा… जबकि वह पृथ्वी राज कपूर की एक झलक पाने को बेताब थे।
भारत के लोगों की एक आम अवधारणा कि, ‘अरे ब्रिटेन में भी ऐसा होता है!’ कितना बड़ा भ्रम है।
इस आलेख के माध्यम से जानकारी हुई है कि वहाँ भी तो बेईमानी, भ्रष्टाचार, प्रेम प्रपंच जैसी सभी बुराइयां विद्यमान हैं। इसको पुख्ता करने में ब्रिटेन के सांसद ओवन पैटरसन  पर भ्रष्टाचार के सिद्ध आरोप का उल्लेख आप द्वारा इस आलेख में किया गया है।
ब्रिटेन में हो रहे भ्रष्टाचार के स्तर की जानकारी देता यह एक अच्छा दृष्टांत है। दरअसल यह  वैज्ञानिक तथ्य है कि जैविक रूप से इंसान में पाशविक प्रवृतियां जन्मजात होती है जो बुद्धिजीवी प्राणी मनुष्य के सभ्य समाज में, विवेक पूर्ण व्यवहार, संस्कार, सभ्य जीवन शैली से दबा रहता है।
यकीनन यह आलेख आगाह करता है कि इंसान तार्किक ह , सोच समझ कर किसी वस्तु, व्यक्ति, स्थान विचार के बारे में कोई आश्वस्त अवधारणा बनाए… इसके लिए यह बहुत अच्छा लेख है।  यह  एक पारखी दृष्टि का द्योतक है।
एक अच्छे विचारणीय आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
विरेन्द्र वीर मेहता, दिल्ली
यदि मैं ये कहूँ कि आज का संपादकीय जीवन दर्शन का एक संक्षिप्त उदाहरण है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।  वास्तव में ये बात मानने वाली है कि जब तक हम भ्रम पालते रहेंगे तब तक भ्रम टूटते भी रहेंगे। आपके  दिए गए उदाहरण सहज ही भ्रम में रहने वालों को थोड़ा विचार करने के लिए विवश भी कर सकते है लेकिन फिर भी यह संभव नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी धारणा को न बनाए या किसी से प्रभावित होकर कोई भ्रम न पाले। यह तो जीवन की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया भी कही जा सकती है।  बहरहाल आपका संपादकीय हमेशा की तरह प्रभावित भी करता है और सोचने के लिए प्रेरित भी।
हार्दिक साधुवाद के साथ।
रक्षा गीता, कालिंदी कॉलेज, दिल्ली
तेजेन्द्र जी, सटीक विश्लेषण।
पूर्वाग्रहों के कारण ही हम कभी-कभी जीवन जगत की बेहतरीन व्यक्ति, संस्था, संप्रदाय, प्राकृतिक स्थितियों, परिस्थितियों, वस्तुओं, खान-पान आदि से वंचित हो जाते हैं। जबकि हमारे ‘हाथ के नीचे’ होती हैं और हम उन्हें इग्नोर करते रहते हैं। कई बार पछताना भी पड़ता है।
जहां तक बात है पृथ्वी राज कपूर के मुंह से  गाली देने की तो मुझे भीष्म साहनी की कहानी ‘हरामजादे’ याद आ गई जिसमें नायक उस गाली को सुनने के लिए तरस गया था जो यारी दोस्ती में अपनत्व का उसे बोध करवाती थी।
 डॉ. तबस्सुम जहाँ, नई दिल्ली
तेजेन्द्र जी, बहुत ही दिलचस्प संपादकीय…  हमेशा की तरह। मेरे शौहर ने मुझसे कफ़न के समकक्ष हिंदी का शब्द पूछा। मैं नहीं बता सकी। कफ़न शब्द अरबी का है जिसे हिंदी में ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया है। ज़ाहिर है क़फ़न का कॉन्सेप्ट भारत में था ही नहीं… इसलिए उसकी मूल भाषा में भी नहीं हैं।
डॉ. निशीथ गौड़, आगरा
तेजेन्द्र जी, वाकई आप का संपादकीय अत्यंत ज्ञानवर्धक होता है…. हम पता नहीं कितने ही भ्रम पाले रहते हैं.. कितना सही लिखा है और हां संस्कृत में गणिका शब्द का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता आया है वेश्या शब्द तो आया ही नहीं है तलाक शब्द भी नहीं सुना। बहुत ही सही बिंदुओं पर आपकी पैनी दृष्टि रहती है काबिल-ए-तारीफ है रहता है संपादकीय…
राजेन्द्र पवार, महाराष्ट्र
तेजेन्द्र जी, सच है भ्रम भंग होते ही हैं। मनोज कुमार की पूरब और पश्चिम देखकर पश्चिमी देशों के बारे में जो धारणा बनी थी, वह बहुत समय बाद बदली।
अतुल्यकृति व्यास, मुंबई
तेजेन्द्र जी, संपादकीय पढ़ा। हम भ्रम पालते क्यों हैं? क्योंकि जब हम “भ्रम” पालते हैं तब वे “भ्रम” न होकर हमारे लिये “धारणा” स्वरूप होते हैं… विश्वास होते हैं।
वे धारणाएँ या विश्वास जब टूटते हैं तो इन टूटी हुई धारणाओं को ही हम “भ्रम” कहते हैं …जो अन्य लोगों को चेताते हैं कि उन “धारणाओं” से बचो जो भ्रम बन सकती हैं… क्योंकि “धारणाओं” का “भ्रम” में बदलना बहुत पीड़ादायक होता है …
और हाँ, स्थितप्रज्ञ  होना सभी के लिये आसान नहीं होता है… अस्तु।
प्रगति टिपणिस, मॉस्को
तेजेन्द्र जी, पुरवाई का नवीनतम संपादकीय पढ़ा।
कल्पना की उड़ान और कई बार आधी-अधूरी जानकारी हमारे ज़हन में कुछ चीजों की हक़ीक़त से बहुत अलग छवि बना देती है और जब तक नंगे सत्य से सामना नहीं होता, हम अपनी उसी छवि में रमे रहते हैं, एक भ्रम लोक में रहते हैं। भ्रम भंग फिर एक असहनीय वार होता है, उससे समझौता करने में समय लगता है। इस सम्पादकीय के ज़रिए मानव चरित्र के एक अहम पहलू का सुंदर विश्लेषण किया है आपने।

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