9 जनवरी, 2022 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘ऑनलाइन शिक्षण.. आपदा में अवसर’ निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं
वीरेंद्र वीर मेहता
आज का संपादकीय….
बहुत सटीक लिखा आपने। सच है भारतीय संदर्भ में ये देखना बहुत जरूरी है कि बिजली और इनटरनेट जैसी सुविधा की पहुंच सब तक न होने की स्थिति में ऑन लाइन कंसेप्ट कितना सफल हो सकता है। बहरहाल ये भी सही है कि इस स्थिति को आपदा में अवसर बनाकर बहुत लोग इसका लाभ उठा रहे हैं, भले ही इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव हमारी आने वाली जनरेशन पर पड़ा रहा है जो शिक्षा को केवल औपचारिक रूप से ग्रहण कर रही है वास्तविक रूप से नहीं।
फिलहाल आपके संपादकीय में उठाए गए बिंदु न केवल सोचने के लिए विवश करते हैं, बल्कि इस ओर ध्यान देने के लिए सरकारी उपक्रमों को भी इशारा करते नजर आते हैं।
हार्दिक साधुवाद सहित तेजेन्द्र सर।
अरुणा अजितसरिया, लंदन
तेजेंद्र जी आपने ऑनलाईन शिक्षण के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों की विवेचना करते हुए सामाजिक असमानता के तहत एक पूरी पीढ़ी के असुरक्षित भविष्य को रेखांकित किया है।
कोविद के दूरगामी प्रभाव के विषय को सम्पादकीय में समेटने के लिए बधाई। अब आवश्यकता है इस क्षति को सीमित करने (damage limitation) के उपाय के बारे में सोचने की।
शन्नो अग्रवाल, लंदन
सच कहा तेजेन्द्र जी, कोरोना ने सब गड़बड़ कर दी। यह न केवल इंसान की जान के पीछे पड़ा है बल्कि जीवन के विभिन्न पहलू भी इससे अछूते नहीं रह पाये। कोरोना के आपदा काल में बच्चों की शिक्षा को लेकर बड़ी आफत मची है, खासतौर से भारत में।
एक रास्ता बंद हुआ तो दूसरा खुला यानी स्कूल बंद हुए तो पढ़ने और पढ़ाने के लिये ऑनलाइन तरीका ढूंढा गया। लेकिन वही बात कि सरकार की तरफ से बढ़ावा मिलने के बावजूद भी इससे जुड़ी समस्याओं का पूरी तरह निवारण नहीं हुआ।
सिर्फ शहरों में ही नहीं गाँवों में भी तो बच्चे पढ़ते हैं। उनका क्या? कई गरीब बच्चे लैपटॉप तो छोड़ो मोबाइल फोन तक खरीदने का भी सपना पूरा नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा, जैसा सभी जानते हैं, बिजली व इंटरनेट की गंभीर समस्या। और जैसा आपने उल्लेख किया कि ऑनलाइन शिक्षा को लेकर अध्यापकों के लिये भी इससे संबंधित समस्याएं पनपने लगीं।
दूसरी तरफ कुछ शैतान और कामचोर टाइप बच्चे भी बहाने ढूंढकर अध्यापक को बेवकूफ बनाने में पीछे नहीं रहे। कई बार उनके ओंठ हिलते दिखते हैं लेकिन उनकी आवाज़ गायब। पता चलता है कि,”आज नेट में कुछ गड़बड़ी है। इसलिये न आवाज़ जा रही है न आपकी सुनाई दे रही है।”
खैर, वर्तमान में ऑनलाइन पढ़ाई के अलावा और कोई चारा भी नहीं दिखाई दे रहा। सब उलझी पहेली की तरह लगता है। यह करो तो कोई समस्या, वह करो तो दूसरी समस्या। कुछ न कुछ तो समाधान निकाला जाना चाहिये।
भारत में इस समस्या को लेकर आपके संपादकीय पर आपको बधाई।
तब्बसुम जहॉं
बहुत ही प्रासंगिक लेख। प्राइवेट स्कूल तो कोरोना काल मे जमकर चांदी कूट रहे हैं। मैंने अपनी बेटी के नर्सरी एडमिशन के लिए एक स्कूल से संपर्क किया। प्रिंसिपल ने बताया कि कुल एडमिशन खर्चा 15000 आएगा । जिसमे 10000 एडमिशन फीस, 3000 एडवांस फीस, बाक़ी यूनिफॉर्म और कोर्स चार्ज होगा। पढ़ाई ऑनलाइन होगी। सुनकर ही मन खट्टा हो गया। नर्सरी में केवल पढ़ाना मकसद नही होता है बल्कि बच्चा स्कूल जाकर वहां से रूबरू होता है। वहाँ क्लासरूम का वातावरण, नन्हे नन्हें दोस्त, वहाँ की एक्टिविटी ये सब उसके लिए मायने रखती हैं। जिससे वह धीरे धीरे सामाजिक बनता है। क्लास ऑनलाइन होने पर वे इन सब से मेहरूम रहेगा। दूसरे, एक साढ़े तीन साल का बच्चा कैसे फोन या लैपटॉप पकड़ कर बैठेगा। आंखों पर असर होगा वे अलग। एक मां भी तो फोन पकड़ कर उसके साथ नहीं बैठ सकती फिर घर के अन्य काम कौन करेगा। कुल मिलाकर बच्चे और अभिवाभक का नुकसान। और स्कूल की चांदी।
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