आज से करीबन 15-16 साल पहले आई एक ठग जोड़ी अभिषेक बच्चन, रानी मुखर्जी की चोरियां, ठगी तो आपको याद ही होगीं। अरे वही जिन्होंने सिनेमाई पर्दे पर खूब रंग जमाया था। यहां तक की ताजमहल तक को बेच डाला था। याद आया? वैसे आप दर्शकों की यादाश्त बड़ी तेज है या तो एकदम कमजोर। खैर अगर याद है उनके किए हुए कांड तो उन्हें ही याद रखिए क्योंकि इस बार उनकी ब्रांड वैल्यू को भुनाने जो दूसरे बंटी और बबली -2 बनकर आए हैं वो शायद आपके उस पहले वाले बंटी बबली के स्वाद को कहीं हल्का या बेस्वाद न कर दे।
सालों पहले ताजमहल को बेचने के बाद अब बंटी बबली अपने बच्चों के साथ फुर्सतगंज में चैन के पल काट रहे हैं। लेकिन एक दिन फिर से उनके ही नाम से यह गैंग सक्रिय हो जाती है। क्या ये वही है? या कोई और? क्या इनका उन पहले वालों से कोई करीबी नाता है? या क्या इंस्पेक्टर साहब ने जो कहा कि उन्हें पकड़ कर लाओ वरना तुम ही जेल की हवा खाओ, तो आखिर क्या हुआ अंजाम। जानने के लिए आपको अब सिनेमाघरों का रुख करना पड़ेगा।
यह फ़िल्म ‘बंटी और बबली 2’ की कहानी ओरिजिनल बंटी और बबली फिल्म के खत्म होने के 16 साल बाद शुरू होती है। शुरू क्यों हुई क्योंकि अचानक से उत्तर प्रदेश में लोगों के साथ फिर से ठगी होने लगी है। अंदाज़, मिजाज़, सबूत सबकुछ उनके ही स्टाइल माफ़िक। ऐसे में पुलिस सीधे पहुंचती है राकेश त्रिवेदी और विम्मी सलूजा (पुराने वाले बंटी बबली के पास) लखनऊ वाले घर में। इंस्पेक्टर दशरथ सिंह के रिटायर होने के बाद इस केस को संभाल रहे हैं इंस्पेक्टर जटायू सिंह। जटायू को शक कम भरोसा ज़्यादा है कि ये सब बंटी और बबली का ही किया धरा है।
फ़िल्म की शुरुआत ही नहीं बल्कि इसके बनने की खबरें आने से पहले ही यह हवा बनने लगी थी कि ये सिर्फ अपनी पहली वाली फिल्म की सफलता को ही कैश करने के इरादे से बनाई जा रही है। हर फिल्म कुछ अलग होती है बस इसलिए ही मैंने भी इसे देख डाला। लेकिन इसमें कोई ऐसी बात नहीं है, जो पहली फिल्म से बेहतर या नई बन पाई  हो। यहां तक कि सोनिया और कुणाल यानी के नई जेनरेशन के बंटी-बबली के ठगी के धंधे में आने की वजह भी हूबहू राकेश और विम्मी जैसी ही है। इस फिल्म का फर्स्ट हाफ बस ये बैंचमार्क खड़ा करने में खर्च होता है कि नए बंटी-बबली भी काफी बढ़िया ठग हैं।
फिर से कहता हूं कि अगर आपको पहले वाली बंटी बबली याद है या आप जानते हैं कि उसमें क्या कुछ हुआ था तो आप इसके सैकेंड हाफ तक आते-आते यह कह उठेंगे कि जो पहली फिल्म में हुआ था अगर हमें वही देखना होता, तो हम 2005 वाली बंटी और बबली देख लेते। नई फिल्म बनाने की क्या ज़रूरत थी भाई।
एक्टिंग के मामले में सिद्धांत चतुर्वेदी ने अपनी पिछली फिल्मों में जैसा ही काम यहां किया है। वहीं बबली बन कर फिल्मी  डेब्यू करने वाली शरवरी वाग (शर्वरी) शरवरी अपनी पहली फिल्म के लिहाज़ से काफी आत्मविश्वास से भरी लगती हैं। उन्हें देखकर ये नहीं लगता कि वो कुछ ऐसा करने की कोशिश कर रही हैं, जो वो पहली बार कर रही हैं। ओरिजिनल फिल्म में राकेश त्रिवेदी यानी बंटी का रोल अभिषेक बच्चन ने किया था। इस फिल्म में उनकी जगह सैफ अली खान है। सैफ अली खान यूपी वाले लहज़े में बात करते हुए थोड़े अजीब लगते हैं। तो रानी मुखर्जी खूब लाउड और ओवर नजर आती है। लेकिन ऐसा करते हुए वे जँचती भी है।
वो तो भला हो कि अच्छी खासी बनाई जा सकने वाली इस फ़िल्म को सहायक किरदारों में पंकज त्रिपाठी, नीरज सूद, असरानी, राजीव गुप्ता, प्रेम चोपड़ा, बृजेंद्र काला, यशपाल शर्मा, मोहित बघेल ने बीच-बीच में बखूबी साथ दिया। वरना निर्देशक के हाथों में रेत के निशान ही बाकी रह जाने थे। मामला दरअसल सारा स्क्रिप्ट पर जो अटक कर रह गया। गीत-संगीत भी हल्का नजर आया।
लिहाजा इस सबको देखते हुए लेखक वरुण वी शर्मा का काम और आदित्य चोपड़ा का निर्देशन काफी औसत रहा। सिनेमैटोग्राफी ऐसी फिल्मों में खास मायने नहीं रखती। हाँ कलर करेक्शन, सेट्स, कॉस्ट्यूम, मेकअप, लुक, एक्सप्रेशन मायने रखते हैं जरूर जो मिला जुला असर छोड़ते हैं। बाकी बैकग्राउंड स्कोर पहले वाली से काफी कुछ कॉपी किया हुआ है। अब यह समझ नहीं आता कि क्या सोचकर इसके निर्माता आदित्य चोपड़ा ने इस पर अपना पैसा लगाया होगा।

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