डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी की नवीनतम पुस्तक ‘बादल! तुम मत चाँद छिपाओ’ का सद्य: प्रकाशन श्वेतांशु प्रकाशन, नई दिल्ली से हुआ है। पुस्तक का शीर्षक अपने आप में कुतूहलपूर्ण है। शीर्षक (बादल! तुम मत चाँद छिपाओ) से पुस्तक के काव्य-संग्रह होने का आभास होता है किन्तु यह मूलतः उनके निबन्धात्मक-आलोचनात्मक लेखों का संकलन है। 
शीर्षक की उपयुक्तता के सन्दर्भ में लेखक के पास सटीक तर्क मौजूद हैं। डॉ. तिवारी ने पुस्तक के आरम्भ में ‘अपनी ओर से’ शीर्षक में स्पष्ट कर दिया है कि – “वैसे तो ‘बादल! तुम मत चाँद छिपाओ’ पण्डित सुधाकर पाण्डेय जी की कविता की एक पंक्ति  मात्र है लेकिन इसे पुस्तक में जिस सन्दर्भ में ग्रहण किया गया है वह यह है कि इसमें संकलित मध्यकाल के कवि जायसी से लेकर आधुनिक काल के रचनाकार कृष्ण कुमार यादव तक के साहित्य के विभिन्न बिन्दुओं को उजागर किया गया है जिस पर अभी समीक्षा जगत की नजर प्रायः नहीं के बराबर पड़ी है। 
आशय यह है कि चाँद की तरह अपने सृजन से साहित्य और समाज को सुख देने वाले पुस्तक में संकलित लेखकों की कारयित्री क्षमता को बादल रूपी कुछ समीक्षकों और आलोचकों ने ढँकने का असफल प्रयास किया जो किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।” अपने सार्थक लेखन से साहित्यिक सम्पदा में अभिवृद्धि करने वाले उपेक्षितों के प्रति डॉ. तिवारी जी की यह चिन्ता स्तुत्य है। यह चिन्ता उनकी तीव्र संवेदना से ही उपजी है। 
संवेदनशीलता लेखनकर्म की प्राथमिक शर्त है। तिवारी जी स्वभावतः अत्यन्त संवेदनशील हैं। यह संवेदनशीलता उनके जीवन के संघर्षों से ही प्राप्त हुई है। पुस्तक में ‘डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी : एक परिचय’ शीर्षक में डॉ. भुवनेश्वर द्विवेदी जी ने तिवारी जी के दारुण जीवन का कारुणिक वृत्त खींचा है। इतने अभावों, संघर्षों, पीड़ाओं, उपेक्षाओं, अस्थिरताओं के बीच मजबूती से खड़ा रहने वाला व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता। साधारण व्यक्ति पूर्णतः टूट जाता है, किन्तु तिवारी जी असाधारण हैं। वे हर परिस्थिति से टकराते हैं, गिरते हैं, सॅंभलते हैं और साहित्य-सर्जना में लग जाते हैं। विपरीत और विषम परिस्थिति में भी उनके अध्यवसाय में गिरावट नहीं आती। बाधाओं से पार पाने का उनका अदम्य साहस, सब कुछ खोकर भी उनकी जिजीविषा और जीवटता किसी भी हतभागी के लिए प्रेरणाप्रद है।   डॉ. तिवारी ने समीक्ष्य पुस्तक में अपने 14 लेखों को संकलित किया है। यह संकलन मध्यकालीन रचनाकार जायसी से लेकर आज के कृष्ण कुमार यादव तक के कलमकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व का समुचित रेखांकन-मूल्यांकन करता है। पहला लेख महान सूफी साधक व कवि मलिक मुहम्मद जायसी की कृति पद्मावत के ‘लक्ष्मी-समुद्र-खण्ड’ की पँक्ति ‘आवा पवन बिछोहकर, पात परा बेकरार। तरिवर तजा जो चूरि कै, लागै केहि के द्वार।।” को लेकर है। 
इस दोहे के अर्थ में निरवलम्बता की अनुभूति है, जिसका सामान्य अर्थ है कि एकाएक वियोग की ऐसी हवा चली कि सब कुछ समाप्त हो गया। तेज तूफान के कारण जहाज डूब गया। रत्नसेन वापस अपने देश आ गया। पाट पर पड़ी पद्मावती टूटे पत्ते के समान बेसहाय, बेकरार अपने भाग्य को कोसती है कि मेरे तरिवर (पति) ने जब मुझे छोड़ दिया तब मैं किसके डार जाकर लगूँ। 
डॉ. तिवारी ने इस प्रचलित अर्थ से आगे निकलकर मौलिक ढंग से नये अर्थ का अन्वेषण किया है। उन्होंने उक्त पँक्तियों में राष्ट्रप्रेम से सन्निहित अर्थ की उद्भावना की है। जिस प्रकार वृक्ष से कटकर पत्ता दुबारा डाली से जुड़ नहीं पाता, लेखक के अनुसार उसी प्रकार– “जो अपनी संस्कृति और संस्कार से कट गया, अपनी जड़ों से कट गया, अपने घर-परिवार, रीति-रिवाज, धर्म-कर्म, विचार-मान्यता, आदर्शों आदि से कट गया, वह कहीं का नहीं रहा।” 
डॉ. तिवारी जायसी की उक्त पँक्तियों के विषय में कहते हैं–”लगता है इसके माध्यम से कवि युवा पीढ़ी से यही कहना चाहता है कि कभी अपने डार से कटना मत, नहीं तो कहीं के नहीं रहोगे, चूर हो जाओगे और फिर कोई अपने से तुम्हें लगाने वाला नहीं मिलेगा।” इस नये अर्थ की उद्भावना में लेखक पूर्ण विनम्र हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि आवश्यक नहीं कि मेरी बातों से लोग सहमत हों ही।
‘प्रसाद काव्य में समन्वयवाद : कामायनी के विशेष सन्दर्भ में’ शीर्षक लेख में डॉ. तिवारी ने प्रसाद के समन्वयवादी दृष्टिकोण का सूक्ष्म संधान किया है। भक्तिकाल में सभी भक्त-कवियों ने अपने काव्य में समन्वय- भाव दर्शाया है। गोस्वामी तुलसीदास समन्वय के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। आधुनिक काल में समन्वय की विराट चेष्टा जयशंकर प्रसाद ने की है। उन्होंने दो विरोधी तत्वों के टकराव में मध्यम मार्ग निकाला है। 
डॉ. तिवारी लिखते हैं–”प्रसाद के काव्य, खासकर ‘कामायनी’, में यह ‘मध्य पथ’ (सामंजस्य) जड़ और चेतन में समन्वय, व्यष्टि और समष्टि में समन्वय, बुद्धि और हृदय में समन्वय, परिवर्तन और स्थिरता में समन्वय, प्रवृत्ति और निवृत्ति में समन्वय, शासक और शासित में समन्वय, पुरुष और स्त्री में समन्वय आदि कई रूपों में दिखायी पड़ता है।” 
तिवारी जी के अनुसार द्वयता और इकाई का सामंजस्य कामायनी का अन्तिम सन्देश है। इसे ज्ञान और कर्म के सामंजस्य द्वारा स्पष्ट किया गया है। वे लिखते हैं- “निरा इच्छा पंगु है। उसे कर्म का सहारा चाहिए और केवल कर्म भी अन्धा है, उसे ज्ञान का आलोक तथा विवेक का अंकुश आवश्यक है। आज के जीवन की विडम्बना का प्रमुख कारण ज्ञान और कर्म में साम्य न होना भी है।” लेखक ने एक अन्य लेख में प्रसाद की औपन्यासिक विशेषता का परीक्षण करते हुए उनके उपन्यासों में सत्य में सौन्दर्य की स्थापना को समुचित रूप में पहचाना है।
डॉ. तिवारी का एक लेख रामवृक्ष बेनीपुरी जी को समर्पित है जिसमें बेनीपुरी जी के व्यक्तित्व का सही लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए उन्हें एक कुशल पत्रकार, सिद्ध और सफल साहित्य सर्जक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, श्रेष्ठ आलोचक एवं समीक्षक, श्रेष्ठ सम्पादक तथा अच्छा इंसान बताया गया है। वर्तमान पीढ़ी किस प्रकार ऐसे महान शब्द-शिल्पियों को भूलती जा रही है, इसकी चिन्ता लेखक को व्यग्र करती है। वे लिखते हैं–”क्या हो गया है हमारी इस नई पीढ़ी को! हम अपने अतीत को, अपनी विरासत को, अपने गौरव को छोड़कर कितने छोटे होते जा रहे हैं! कितने बौने होते जा रहे हैं! इसका ध्यान है किसी को! कहाँ जा रहे हैं हम!” 
डॉ. तिवारी ने श्री मुकुर जी को ‘आधुनिक हिन्दी साहित्य की नींव की ईंट’ कहा है तथा इसी शीर्षक से उनके  व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। लेख पढ़कर श्री मुकुर जी से जुड़े अनेक नये पहलुओं की जानकारी मिलती है। मसलन दिनकर जी ने कहा कि आज सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में श्री मुकुर से ज्यादा जानकारी रखने वाला वैयाकरण नहीं है। जब दिनकर जैसा व्यक्तित्व ऐसी बात कहे तो समझ लेना चाहिए कि वह बात हल्की नहीं, अपितु बहुत गम्भीर और सोच-समझ कर कही गयी है। वस्तुतः श्री मुकुर बड़े सर्जक हैं किन्तु उपेक्षा से वह भी नहीं बच सके। आश्चर्य तो तब हुआ कि जब मैंने इंटरनेट पर उनका नाम खोजा किन्तु उनके विषय में कुछ खास जानकारी हाथ नहीं लगी। इस दृष्टि से डॉ. तिवारी ने श्री मुकुर जी पर लेख लिखकर महती कार्य किया है।
डॉ. तिवारी के पास कथाकार डॉ. विवेकी राय की ग्रामीण चेतना को देखने-समझने की पारखी दृष्टि है। हो भी क्यों न! डॉ. विवेकी राय पर ही उनका शोधकार्य रहा है और बहुत ही घनिष्ट आत्मीय सम्बन्ध भी रहा है। उनके शब्दों में–”जिस प्रकार सूर वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आये हैं, उसी प्रकार विवेकी राय भी गाँव का कोना-कोना झाँक आये हैं।” ग्रामीण समाज में दीन-दुखियों, गरीब, मजदूर, किसानों के होने वाले शोषण और उनके दु:ख-दर्द पर कलम चलाने वाले विवेकी राय जी को डॉ. तिवारी ने आधुनिक प्रेमचन्द कहा है। 
समीक्ष्य पुस्तक में यशस्वी कवि और गीतकार नीरज की काव्य संवेदना और जीवन संघर्ष का परिचय कराने वाले दो लेख संकलित हैं। डॉ. तिवारी ने कविवर नीरज के लेखन को गहनता से पकड़ा है। उनके समग्र कवि-व्यक्तित्व का जो ढाँचा तिवारी जी ने तैयार किया है वह बड़ा ही सटीक जान पड़ता है। वे कहते हैं–”उनकी (नीरज) रचनाओं में मीरा का दर्द, सूर की प्यास, कबीर का फक्कड़पन आदि सब कुछ देखने को मिल जाता है।” 
जैसा कि पूर्वोक्त है कि पुस्तक का शीर्षक पं. सुधाकर पाण्डेय की काव्य-पंक्ति पर आधारित है। पुस्तक में उन्हीं पाण्डेय जी पर एक लेख है जिसमें डॉ. तिवारी ने पाण्डेय जी के हिन्दी-प्रेम को उद्घाटित किया है। लेख से ज्ञात होता है कि वाणिज्य के विद्यार्थी होने के बावजूद सुधाकर जी हिन्दी के निःस्वार्थ अनुरागी थे। नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी से जुड़कर उन्होंने अपना सारा जीवन हिन्दी को समर्पित कर दिया। तिवारी जी की टिप्पणी सटीक है–”एक तरह से कहें तो उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही हिन्दी के उत्थान व विकास में लगा दिया। लगा ही नहीं दिया, बल्कि अपने को खपा भी दिया। नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी के प्रधानमंत्री के रूप में उनका किया गया कार्य सदैव स्मरणीय रहेगा। दुर्लभ पाण्डुलिपियों की खोज, ग्रन्थावलियों का प्रकाशन, सम्पादन आदि उनके कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य रहे जिनके बल पर हिन्दी साहित्यानुरागियों के बीच वे सदैव समादृत रहेंगे।”
पुस्तक में डॉ. जितेन्द्रनाथ पाठक पर दो लेख संकलित हैं। डॉ. पाठक के जीवन के अनेक प्रसंगों का अनावरण लेख को पढ़कर होता है। उन्होंने अनेक रचनात्मक और विचार साहित्य की सर्जना से हिन्दी साहित्य की सार्थक श्रीवृद्धि की है। उनके कई समीक्षा, शोधपरक ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। मुक्तक परम्परा पर उनके शोधपूर्ण कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मुक्तक की मौलिक परिभाषा, उसका वर्गीकरण तथा उसकी विकासात्मक परम्परा का गहन अनुशीलन कर डॉ. पाठक जी ने नया प्रतिमान स्थापित किया है। डॉ. तिवारी के अनुसार – “उनकी पुस्तक की ख्याति का मुख्य कारण यह भी था कि समग्र मुक्तक काव्य पर हिन्दी अनुशीलन के समूचे इतिहास में किसी विद्वान ने तब तक कोई कार्य नहीं किया था।”
डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त को याद करते हुए उन पर डॉ. तिवारी ने संस्मरण लिखा है जो अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। उक्त संस्मरण को पढ़कर कई स्थानों पर भावुक होना पड़ता है। डॉ. गुप्त न केवल प्रख्यात लेखक, साहित्यशोधक और बड़े कवि हैं, बल्कि सच्चे मनुष्य की जीवन्त प्रतिमूर्ति भी हैं। उनकी करुणा, संवेदना, सदाशयता, सद्भाव, दम्भरहित स्वभाव, अपने से छोटों के प्रति आदर-भाव, सहानुभूति आदि अनेक मानवीय गुणों से सम्पन्नता उन्हें एक विराट मानव बनाता है जो कि विराट लेखक या कवि होने से अधिक आवश्यक व महत्त्वपूर्ण है। डॉ. गुप्त जैसे लोग वर्तमान परिवेश में दुर्लभ हैं।
हिन्दी की अनेक विधाओं में कलम चलाने वाले और देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में निरन्तर छपने वाले लेखक एवं कवि श्री कृष्ण कुमार यादव की लेखनी कला पर विस्तृत आलेख डॉ. तिवारी ने लिखा है। उनके उत्कृष्ट लेखन शैली की बारीकियों को उदाहरण सहित लेखक ने प्रस्तुत किया है, जिस कारण उनकी (कृष्ण कुमार यादव जी की) सृजनात्मकता का मूल्यांकन यथोचित तथा वस्तुनिष्ठ ढंग से हो पाया है। श्री यादव की लेखन शैली में चुम्बकीय शक्ति है जो पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर ही लेती है। 
डॉ. तिवारी के अनुसार कृष्ण कुमार यादव जी की लेखनी की प्रशंसा कई महान व्यक्तियों और साहित्य-मर्मज्ञों ने की है, जिनमें पद्मभूषण श्री गोपाल दास नीरज, डॉ. विवेकी राय, डॉ. रामदरश मिश्र, डॉ. कमलकिशोर गोयनका, बद्रीनारायण तिवारी, गिरिराज किशोर, सेवक वात्स्यायन, प्रो. सूर्यप्रकाश दीक्षित, डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव, रामनिवास मानव, प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज़’, रामस्वरूप त्रिपाठी और डॉ. गोरखनाथ तिवारी का नाम उल्लेखनीय है।
डॉ. चन्द्रशेखर तिवारी की समीक्ष्य कृति अपने शीर्षक की सार्थकता के साथ उन रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रकाश में लाती है जो वास्तव में अपनी रचनात्मकता में चंद्रमा के समान सुन्दर, सुशीतल, आकर्षक और प्रभावशाली हैं किन्तु उपेक्षाओं के बादल में छिपाये जाते रहे। इस दृष्टि से डॉ. तिवारी की यह पुस्तक पठनीय, स्पृहणीय तथा संग्रहणीय है। 

सुरेश कुमार प्रजापति
सहायक आचार्य-हिन्दी विभाग
स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर (उ०प्र०)
Email: sureshhindizna@gmail.com

4 टिप्पणी

  1. इस स्नेह हेतु चिर ऋणी हूॅं सर। हृदय से आभार सहित सादर प्रणाम।

    • समीक्षा को पुरवाई जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपने योग्य समझा गया। अनुभव हो रहा है कि अकिंचन को दुनिया भर का वैभव प्राप्त हो गया। हार्दिक आभारी हूँ।

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