युवा फिल्ममेकर रितेश शर्मा की  फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ The brittle Thread (2021)  12 मई को दिल्ली में प्रीमियर हुआ है। तीसरे हैबिटेट अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में फिल्म ने जगह बनाई है । बनारस की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म हर किसी को देखनी चाहिए। वजह इसका रचनाकर्म है। फिल्म के केंद्र में बनारस है। आर्केस्ट्रा डांसर रानी ( मेघा माथुर) एवम साड़ी बुनकर शादाब ख़ान ( मोजफ्फर खान) की दो समानांतर कहानियां हैं। वाराणसी धार्मिक विविधता के लिए पहचाना जाना वाला शहर रहा है। देश विदेश में अपने घाटों के लिए मशहूर है। बनारस एवम बुनकरों के बीच भी एक बड़ा रिश्ता रहा है। इक ज़माने में बनारसी साड़ियों की धूम थी। बनारस के बुनकरों के लिए हालांकि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रही। राजनीतिक सांस्कृतिक तथा औद्योगिक बदलावों ने उन्हें प्रभावित किया । फिल्म का मुख्य किरदार चूंकि बुनकर है इसलिए इस पहलू का ध्यान आया।
शादाब साड़ियों का कारीगर है। उसकी दोस्ती इजराइली पर्यटक लड़की अदा ( सीवन स्पेक्टर) से हो जाती है। अदा बनारस के आकर्षण में भारत आई है। बुनकरों की दुनिया में उसकी दिलचस्पी कथन के आकर्षण को बढ़ा दिया है। रितेश अपने दर्शकों को वाराणसी के हर दिलचस्प पहलू से परिचित कराना चाहते थे। भारत के सबसे प्राचीन एवम पवित्र शहर के घाटों की खूबसूरती को आप कई शॉट्स में देख सकते हैं। त्योहारों में इनकी अलग ही रौनक होती है। फिल्ममेकर की सफलता यह रही कि पर्यटकों का बनारस दिखा पाए। अंतराष्ट्रीय दर्शकों ने फिल्म को इसलिए हाथो हाथ भी लिया। कई जाने माने फिल्म महोत्सवों में फिल्म का प्रीमियर हुआ है।
दूसरी सबसे बड़ी खासियत यह कि रितेश ने माहौल बिगाड़ती चीजों को भी दिखाया। सामाजिक संकीर्णता की चर्चा की है।  नफ़रत की राजनीति का जमा खर्च सामने लेकर आए। एक राजनीतिक हत्या  हत्या के बाद शहर के बिगड़े हालात को फिल्म दिखाती है। बताने की कोशिश करती है कि सांप्रदायिकता किस कदर खतरनाक हो सकती है। शादाब एवम उसके जैसे लोगों का इस राजनीतिक हत्या से हालांकि कोई लेना देना नहीं था। फिर भी नफ़रत की आग की जद का क्या कहें । विदेशी टूरिस्ट  हमदर्द दोस्त अदा के चले जाने के बाद शादाब की जिंदगी में एकदम से खालीपन आ गया था। शाजिया से निकाह बाद वो संभल गया था। लेकिन सांप्रदायिक लहर ने उसे कहीं का ना छोड़ा।
शादाब की कहानी के समानांतर ऑर्केस्ट्रा डांसर रानी की आपबीती को भी बखूबी दिखाया गया है। पुरुषों के वर्चस्व की दुनिया में एक महिला अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। बेटी के अच्छे भविष्य के लिए कड़ी मेहनत कर रही है। पिंकी को नाच गाने के पेशे से बहुत दूर रखती है। बेटी को पढ़ा लिखा रही ताकि उसका कल मां जैसा ना हो। एक ऑर्केस्ट्रा डांसर की समाज में कोई पहचान नहीं होती। इस जिंदगी की हकीकत से रानी परिचित थी। शौक से तो बहुत बार मजबूरी में भी उसे ऑर्केस्ट्रा में काम करना पड़ता था। बेटी पिंकी के अच्छे कल के भरोसे में शारीरिक शोषण का शिकार भी होती रही। किंतु अच्छा परिणाम नहीं मिला। रानी के साथ जो हुआ वो उसके जैसी लड़कियों के साथ हो रही घटनाओं का एक किस्सा मात्र है। रानी की कथा जिस तरह अपने दुःख को पहुंची वो कई चिंताएं छोड़ जाती है।
जिस तरह से पिंकी को भी मां के पेशे में अपनी जगह लेते दिखाया गया वो दिल तोड़ देता है। जाहिर कि वो मर्जी से तो आई नहीं होगी हालातों ने उसे धकेला होगा। हमें मालूम हो कि पिंकी जैसे कितनी मासूमों की यही कहानी होगी। एक तरफ़ पुरुषों की अनचाही नज़र ने इन्हे तबाह किया। तो दूसरी तरफ नफ़रत की राजनीति ने उनके परिवारों को बर्बाद। रानी और शादाब की कहानियों का आपस में कोई रिश्ता ना दिखाई देता हो। लेकिन घट तो दोनों एक ही शहर यानी बनारस में ही। एक ओर जहां रानी अपनी बेटी के भविष्य के लिए समाज के बनाए अवधारणाओं से लड़ रहीं। तो दूसरी ओर बाबरी विध्वंस के बाद उपजे साम्प्रदायिक दंगों में मां बाप खो चुका शादाब इजराइली पर्यटक अदा में कल की उम्मीद देख रहा था। दोनों अपनी अपनी उम्मीद को लिए जी रहे थे। किंतु जिस तरह से उनकी कहानियों  ने मोड़ लिया,वो गहरे घर कर जाती है।
बनारस के वर्त्तमान एवम अतीत और आने वाले भविष्य की चिंताओं को समेटती फिल्म ‘झीनी बीनी चदरिया’ बनारस के माध्यम से कई महत्वपूर्ण सवाल और संदेश छोड़ जाती है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.