एक हजार वर्ष बाद हमारी स्थिति क्या होगी? हमारा जीवन कैसा होगा? नदी-पेड़-तालाब का साथ मिल पायेगा या नहीं? कैसी होगी हमारी प्यारी धरती? कैसे होंगे धरा के लोग? ऐसी कल्पना से ही मन रोमांच से भर उठता है। मन यह जानने को बेचैन हो उठता है और तमाम तरह की बातें मन-मस्तिष्क में तैरने लगती है। हम तो कल की बातें नहीं जानते? ऐसे में एक हजार वर्ष बाद की बातें जानना कैसे संभव है?
2020 में अंग्रेजी साल की शुरुआत में कहाँ किसी को मालूम था कि हमारे ऊपर कोरोना का ‘अटैक’ होगा, ज़िंदगी थम सी जायेगी। मानव का मानव से दूरियाँ बढ़ जायेगी? कोई जानता था क्या?
दाद देनी पड़ेगी राकेश शंकर भारती की कलम को, दाद देनी पड़ेगी उनकी सोच को। उनकी कलम ने एक हजार वर्ष बाद की परिकल्पना की है। लेखक कोई भविष्य वक्ता नहीं हैं, लेकिन धरती पर जो कुछ भी हो रहा है, उससे उनकी परिकल्पना को बल मिला है। ‘‘किताब 3020 ई.’’ एक अद्भुत किताब है और यह साहित्यिक दुनिया में नया प्रयोग भी है।
तीन अलग-अलग कहानियों को लेकर लेखक आगे बढ़ते हैं। एक कहानी में धर्मपाल चौधरी, द्वारपाल और रामपाल हैं। धर्मपाल रिटायर्ड फौजी हैं, जो 1962 में भारत-चीन युद्ध लड़ चुके हैं। उनका एकमात्र पुत्र द्वारपाल भी फौजी रहा है, लेकिन अब उनकी बसे हैं, जो आगरा-जयपुर रूट में चलती है। रामपाल बंगलौर की मल्टी-नेशनल कंपनी में कार्यरत है। धर्मपाल का पोता रामपाल मेघा नाम की एक लड़की को बहुत चाहता है, चाहता है उससे शादी करना। हालाँकि उसकी पीड़ा है-‘कई सालों से समाज, अपनी पंरपरा और वर्ण व्यवस्था हम दोनों की मुहब्बत में गले की हड्डी बनी रही और अब यह कोरोना भी हम दोनों की बेबसी का मजाक उड़ा रहा है।’
सच में, कोरोना ने जन-जीवन को थाम दिया। कहें तो उम्मीदों पर पानी फेर दिया। घर से बाहर निकलने पर पूरी तरह पाबंदी लग गयी। प्रेमिका से मिलने तक की रोक लगी। घर ही ‘कैदखाना’ बन गया। एकाएक सामाजिक ताने-बाने में तब्दीली से बच्चे तक असहज हो गये। प्रवासी मजदूरों के लिए यह किसी वज्रपात से कम नहीं। रोजगार पर आफत बन आयी। मुँह के निवाले छीने गये। लाखों की तादाद में श्रमिक हजारों किलोमीटर की पैदल दूरी लाँघकर घर पहुँचे।
द्वारपाल का एक दोस्त था भानू। कोरोना से उसकी मौत हो जाती है। दाह संस्कार में मात्र चार लोग थे। यह था कोरोना का डर और असर! दाह-संस्कार के बाद द्वारपाल को क्वारंटाइन होना पड़ा। लेखक ने द्वारपाल की मनःस्थिति की चर्चा की। द्वारपाल को लगा कि कोरोना ने जात-पात को मिटा दिया, तो ऐसे में ‘जातीय’ रुकावट क्यों? रामपाल और मेघा के बीच की रुकावट यानी जातीय व्यवस्था को द्वारपाल ने ‘मिनीमाइज’ कर दिया। धर्मपाल और द्वारपाल की भी प्रेम कथा को जाति व्यवस्था ने रोकी थी। कोरोना ने धर्मपाल और रामपाल को भी द्वारपाल के साथ अपने लपेटे में ले लिया। मेघा भी कोरोना पीड़ित हो गयी।
नाटकीय मोड़ लेती है कहानी! धर्मपाल की प्रेमिका फूलवंती भी कोरोना पीड़ित होकर अस्पताल आती है। फूलवती नीची जाति से थी, इसलिए धर्मपाल की पत्नी नहीं बन सकी। मेघा कोई और नहीं, बल्कि धर्मपाल के पुत्र द्वारपाल की प्रेमिका सावित्री की बिटिया थी। कभी प्रेमिका रूप में रही सावित्री आज समधन रूप में है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने दर्शाने की कोशिश की है कि कोरोना ने जब जाति व्यवस्था को तोड़ दिया, तो ऐसे में हम क्यों जात-पात, धर्म-सम्प्रदाय की संकीर्ण मानसिकता को धारण करें। यह एक अच्छा संदेश है! हालाँकि इस कहानी के फैलाव के लिए उपन्यासकार ने कोरोना की विस्तृत चर्चा कर दी, मानो कोरोना पर पाठक कोई लेख पढ़ रहे हों। यदि इसके फैलाव को थोड़ा कम कर दिया जाता, तो शायद पाठक को सहजता होती!
एक अन्य कहानी, जिसकी पात्रा है उल्याना। उल्याना किस्मत की मारी स्त्री है। उल्याना भारतीय स्त्री नहीं है, बल्कि विदेशी है। बात चाहे भारत की हो या विदेश की। स्त्री हर जगह प्रताड़ित है, उसे स्त्री होने का दंश झेलना पड़ता है। लेखक ने नारी की स्थिति की चर्चा की-‘औरत ज़मीन है और मर्द बीज बोने वाला। मर्द उसी किसान की तरह होता है, जो बीज बोकर चला जाता है और बेचारी ज़मीन सब कुछ खुद से झेलती है। उस पौधे को बड़ा कर देती है। यह ज़मीन गर्मी, सर्दी, बारिश, तूफ़ान, बर्फ सारी विपत्तियाँ झेलती है।’
उल्याना की माँ ओलेना का भी पति अलीक्सान्द्र पेत्रोवीच का साथ नहीं मिला, उसने दूसरी शादी कर ली, बाद में तीसरी भी। उल्याना की शादी व्लादिमीर के साथ हुई, एक बच्चा हुआ। हालाँकि बाद में पति की उपेक्षा से उल्याना आहत हुई। उसके पति का उल्याना की दोस्त नतालिया से नजदीकियाँ बढ़ी। अकेलेपन को जी रही उल्याना की ज़िंदगी में सेरगेई का साथ मिला। सेरगेई की पत्नी स्वेतलाना उसे छोड़कर कंपनी के डायरेक्टर के साथ चली गयी थी। मतलब, सेरगेई और उल्याना का समान दर्द था। सेरगेई से उल्याना को एक बेटा हुआ। उल्याना की खूबसूरती पर फिदा रहने वाला सेरगेई भी उसे एक दिन छोड़ दिया। कभी सेरगेई से उल्याना ने कहा था-कल नदी के उस किनारे पर कोई औरत मिल जाये तो उसकी खूबसूरती में फिदा हो जाओगे, फिर वहाँ चले जाओगे? गम भुलाने और काम की तलाश में उल्याना पश्चिमी यूरोप (वेनिश) जाती हैं, जहाँ रेस्टूरेंट में काम करती हैं। वहीं उल्याना को डॉक्टर अंतोनियो से मुलाकात होती है। बाद में दोनों की शादी हो जाती है। डॉ. अंतोनियो भी पत्नी की बेवफाई से घायल था। उसकी पत्नी मार्तिना उसे छोड़कर प्रेमिका के साथ इंग्लैंड चली गयी थी।
इलाज करते-करते डॉ. अंतोनियो को कोरोना हो जाता है। उल्याना गर्भवती थी, उसने एक बेटी को जन्म दी। यहाँ लेखक ने कोरोना की भयावह रूप का जिक्र किया। अंतोनियो दूर से ही अपनी पुत्री को निहारता है, कोरोना ने उसे अपनी बेटी को गोद में लेने के अधिकार से वंचित कर दिया। दुर्भाग्य से अंतोनियो की मौत हो जाती है। अरसे बाद उल्याना की ज़िंदगी में लौटी रौनक को कोरोना नाश कर देता है और फिर उसकी ज़िन्दगी में आँसू का बसेरा हो जाता है। बेहद मार्मिक कहानी है यह।
भाग दो में लेखक पाठकों को एक हजार वर्ष आगे की दुनिया में पहुँचाते हैं। उपन्यासकार की चिंता जायज़ है! तब, पृथ्वी बढ़ती आबादी और ग्लोबल वार्मिंग की मार को झेल नहीं पाती है। हर प्राणी को लगने लगता है कि धरती का विनाश तय है। धरा पर ऑक्सीजन की मात्रा घट गयी है। फलतः तापमान में वृद्धि हो गयी, दुनिया उबलने लगी। तब, गंगा और यमुना विलुप्त हो गयी। गंगोत्री का अस्तित्व मिट गया। जहाँ गंगा बहती थी, वहाँ इमारतें खड़ी हो गयीं। तेल के जखीरे खत्म हो गये, हरियाली का नामों-निशान मिट गया। अरावली, विंध्याचल के पर्वत समेत कई पर्वत अपने देश से विलुप्त हो गये। तब, लेखक लिखते हैं-काश! हम एक हज़ार साल पहले ही सुधर जाते तो कितना अच्छा रहता।
आज मानव विनाश की कहानी स्वयं रच रहा है। वर्तमान में मानव सृष्टि को ‘कब्जा’ करने की चाहत में अपनी बर्बादी को बुला रहा है। यदि यही हाल रहा, तो उपन्यासकार की बातें अक्षरशः यथार्थ रूप पायेगी। आज की हालत को देखते हुए उपन्यासकार अगले एक हजार वर्ष बाद की कहानी रचते हैं, जो यथार्थ के करीब है! तब, सोशल मीडिया पर हरी-भरी धरती को देखकर आँसू का आना लाज़िमी है! मानव के पास पछताने के सिवाय और कौन-सा चारा बचेगा? तब, धरती रहने लायक नहीं बची, तो अन्य ग्रह पर बस्ती बसाना मजबूरी हो गयी। वैसे, मंगल पूरी तरह से पृथ्वी की जगह नहीं ले सकती, किंतु यह एक विकल्प है।
अंतिम भाग में उपन्यासकार मंगल यात्रा कराते हैं। मंगल यात्रा इसलिए कि सौर मंडल में सिर्फ मंगल ग्रह पर ही मानव सभ्यता को स्थापित करने की गुंजाइश है। मंगल की संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है। धरती पर जगह बची नहीं, तो मंगल ग्रह पर पहुँचना मजबूरी थी! बुध की तरफ रुख कर नहीं सकते, सूरज से ज्यादा नजदीक होने के कारण यह गर्म हो गया है। चाँद पर भरोसा नहीं, क्योंकि यदि ऑक्सीजन और वायुमंडल होता, तो वहाँ मानव बस्ती बस जाती!
उपन्यासकार ने सुंदर कल्पना की है! भारत में विस्तार पाती कोरोना बीमारी और यूक्रेन में उल्याना की प्रेम कहानी की चर्चा के साथ-साथ पाठक अंतरिक्ष के गोते लगायेंगे। ऐसे में, उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते रोमांचित हो जाना स्वाभाविक है। उपन्यासकार ने कल्पना की कि 3020 में दुनिया डूब रही है। सरकार मानव सभ्यता को सौर मंडल के किसी ग्रह पर जिंदा रखना चाहती है। इसलिए, अंतरिक्ष यान को मंगल पर उतारा जाने लगा।
इस कहानी के मुख्य पात्र लेखक और उनका पूरा परिवार है। पत्नी ओक्साना ने लेखक को बेटे के साथ मंगल पर जाने को रज़ामंदी की, ताकि इंसान का अस्तित्व बचा रह सके। पसोपेश के साथ लेखक ने बेटे दवित के साथ मंगल की ओर उड़ान भरी। दवित, जो पहले उल्लासित था, माँ और बहन देविका को याद कर रोने लगता है। कितनी कारुणिक पंक्ति है- ‘पापा, अब पृथ्वी की तरफ लौट चलो। मुझे अब मंगल पर नहीं रहना है। अपनी प्यारी पृथ्वी घायल अवस्था में भी हमारे लिए अच्छी थी। पापा, मैं किसी भी हाल में पृथ्वी पर लौटना चाहता हूँ। वहाँ मैं आज़ाद होकर पृथ्वी पर दौड़-धूप करता था और यहाँ लगता है कि मेरे पाँव में प्रकृति ने ज़ंजीर बाँध रखी है। आप मुझे यहाँ क्यों लेकर आ गये?’ लेखक को भी दर्द है, उनकी आँखें भी भर आती हैं। कहते हैं-इससे अच्छा होता कि मैं परिवार के साथ पृथ्वी पर ही जलमग्न हो जाता। वहाँ कम से कम अतृप्त आत्मा को शाँति तो नसीब हो जाती।
लेखक ने मंगल की चर्चा की। मंगल पर जीव-जंतुओं की कोई चहलकदमी नहीं थी, मानव बस्ती बसायी गयी थी। नदी, तालाब, सागर, झरने कुछ भी नहीं है मंगल पर। वनस्पतियों का कोई नामोनिशान नहीं, मानो मंगल भूतहा खंडहर हो। उपन्यास में मंगल पर प्रवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा, नार्वे में कार्यरत डॉक्टर प्रवीण झा, रामेश्वर सहित देश के प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी की उपस्थिति को भी उपन्यासकार ने रेखाँकित किया। मानव सभ्यता को बचाने के लिए सब परेशान थे। फलतः मंगल को हरा-भरा करने की मुहिम में सब लग गये। धीरे-धीरे मंगल में रौनक़ आने लगी। हालाँकि अपनी धरती अपनी होती है! जब लेखक की देह जर्जर हालत में पहुँच गयी, तब उन्होंने नीले ग्रह को आखिरी बार देखकर कथाँत किया।
तीन अलग-अलग कहानियाँ साथ-साथ पाठकों को लेकर चलती हैं। उल्याना की प्रेम कहानी को पाठक जब पढ़ना शुरू करेंगे, तो लगेगा कि इस कहानी की क्या ज़रूरत? हालाँकि अंत में कोरोना की ‘दस्तक’ से यह एहसास होता है कि उपन्यास तो कोरोना वायरस, लॉकडाउन और पृथ्वी पर प्रलय और मंगल पर मानव बस्ती पर आधारित है, इसलिए यह कहानी साथ-साथ है। दिल को गुदगुदी बढ़ाने वाली कहानी अंत में पाठकों को रुला देती है!
राकेश शंकर भारती का यह अभिनव प्रयोग है! आज धरती मैया का मानव ने जो हाल बना दिया है, उससे धरती मैया कराह रही है। प्रकृति की ‘प्रकृति’ के साथ खिलवाड़ से संकट उभर रहे हैं, लेकिन मानव सोच नहीं पा रहा है? भगवान न करे गंगा मैया गुम हो जाये? पेड़ और पहाड़ खो जाये? इसलिए मानव को संजीदा रहने की जरूरत है। उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार की कलम चिंता करती है। जरूरत है मानव को चिंतन करने की! उपन्यासकार ने पाठकों को आगाह कर दिया, अब पाठक संभल जाये, बस यही इस उपन्यास की सार्थकता है!
कृति: 3020 ई. (साइंस फिक्शन)
कृतिकार: राकेश शंकर भारती
प्रकाशकः अमन प्रकाशन
104-ए/80 सी, रामबाग
कानपुर-208012
पृष्ठः 200 मूल्यः 200/-
समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा

6 टिप्पणी

  1. राकेश भारती जी को इतने मौलिक विषय पर लेखन हेतु बधाई
    मुकेश जी आपकी समीक्षा पढ़कर आर्डर बुक करने का उत्साह बढ़ गया ,साधुवाद ।
    प्रभा

  2. सिन्हा जी आपके द्वारा सुंदर एवं सटीक विश्लेषणात्मक टिप्पणी की गई है। इससे पाठक सहज रूप में ही इसकी विषयवस्तु एवं भावों को समझ सकेगा। समीक्षा पढ़कर उपन्यास को पढ़ने की लालसा मन में उपजने लगती है। सिन्हा जी आपके द्वारा की गई उपन्यास की उत्तम समीक्षा के लिए साधुवाद।
    डॉ. सत्यनारायण

  3. संपादक महोदय और समीक्षक दोनोँ को आभार व्यक्त करता हूँ। सारगर्भित समीक्षा।

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