पुस्तक – कुछ रंग कुछ कहानियाँ
लेखक – सुदर्शना द्विवेदी
समीक्षक
अर्चना चतुर्वेदी
इस बार पुस्तक मेले से सुदर्शना द्विवेदी जी का कहानी संग्रह कुछ रंग कुछ कहानियाँ लेकर आयी। इस पुस्तक की तारीफ़ें और चर्चाएं सुनकर काफ़ी समय से ख़रीदने का मन बना चुकी थी मगर ऑनलाइन नहीं मंगा पाई।
वैसे भी पिछले कुछ दिनों से मेरा किताबें पढ़ने में मन कम लग रहा था। कोई कोई किताब ही है जो ख़ुद को पढ़वा पा रही है। ‘कुछ रंग, कुछ कहानियाँ’ जिसे लेकर आने के अगले दिन ही मैं पढ़ने बैठ गई और उसके बाद उस पुस्तक को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ और रात तक पूरा भी पढ़ लिया।
कहानियाँ इतनी अच्छी हैं कि उन से हटने का दिल नहीं किया। इस संग्रह की कहानियां स्त्री के अलग-अलग संघर्ष अलग-अलग रिश्तों पर आधारित हैं।
कोई महानगर की कहानी तो कोई गाँव की ज़मीन से जुड़ी कहानी है। मुझे सुदर्शना जी का कहानी कहने का अंदाज़ बहुत प्रभावशाली लगा। कहानी पढ़ते हुए कब आप कहानी से जुड़ जाते हैं और कहानी का हिस्सा बन जाते हैं पता ही नहीं चलता… और कहानी ऐसे चलती जाती है मानो सब आपकी आँखों के सामने घटित हो रहा है। अंत तक आते आते कहानी वो कह जाती है जो आपने सोचा भी नहीं होता।
पहली कहानी से ही यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है । इन कहानियों में आपको सस्पेंस, रिश्तों की गर्माहट और व्यंग्य सब कुछ मिलेगा ।

जहाँ ‘महानगर’ कहानी में भी एक तरफ़ बहुत ख़ूबसूरत मुंबई शहर की दुनिया दिखाई गई है वहीं उस दुनियाँ का काला पन्ना भी चुपके से आपके सामने लाकर खोल दिया गया। ‘गिद्धों के बीच’ कहानी में किसी कि मौत पर समाज के विकृत रूप को जिस तरह सामने रखा है वो एक करारा व्यंग्य ही है। ‘लॉबी’ कहानी को भी व्यंग्य की श्रेणी में ही रखा जाएगा जहां विदेश में रह रहे बच्चे और रईस बुजुर्गों की मानसिक शारीरिक स्थिति को बारीकी से उकेरा गया है।

सुदर्शना जी की नायिका शुरू में कमज़ोर दिखती है पर वो कमज़ोर होती नहीं है समाज या परिवार कोशिश करता है उन्हें कमज़ोर करने की लेकिन नायिका फिर उठ खड़ी होती है। ‘गिद्धों के बीच’ कहानी की सुभागी हो या फिर ‘घरौंदा’ कहानी की मौसी हों या ‘कहो तो सही’ की आंटी इस संग्रह की कहानियाँ समाज को संदेश भी देती हैं कि कैसे आवेश में उठाया गया एक ग़लत कदम पूरे जीवन को ख़त्म कर सकता है ये ‘पहेली’ और ‘एक सपने की मौत’ को पढ़कर एहसास हुआ कि स्त्री को ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है समाज किस तरह स्त्री को दबा कर रखना चाहता है किस तरह अपने ही परिवार के लोग एक स्त्री की भावनाओं को नजरंदाज करते हैं।
सच कहूँ तो यह एक सफल संग्रह है जिसकी हर कहानी कुछ नहीं बल्कि बहुत कुछ कहती है। जीवन दर्शन के अनेक रंग बिखेरता है ये संग्रह।

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