कहा जाता है कि साहित्य एक साधना है ….अब अपने पड़ोस वाली साधना के बारे में सोचने मत बैठ जाना और साधना कट वाली साधना तो बिलकुल नहीं है| ये वो साधना है जो सिद्ध करनी पड़ती थी, मेहनत और लगन के बल पर ..उसमें भी कुछ विधाओं को तो बाकायदा साधना पड़ता था.. शायद यही कारण होगा जो बड़े बड़े साहित्यकार पहाड़ों और सुन्दर प्राकृतिक जगहों पर लेखन के लिए प्रवास करने जाते थे, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ऋषि मुनि तप करने हिमालय जाते थे| आज समय और  सोच दोनों बदल गयी है|
आज का साहित्यकार ….मुनि की तरह भ्रमणशील रहकर साधना करता है| उसकी सोच है कि जिस तरह ठहरा हुआ पानी सड़ जाता उसी प्रकार एक जगह बैठ कर लिखने से नया और प्रयोगवादी साहित्य नहीं रचा जा सकता| और एक बात आजकल किसी के पास इतना वक्त नहीं कि साधने में बर्बाद करें, अब जल्दी से लिख लिखा कर छपवायें और सम्मान प्राप्त करने का जुगत बिठाएं या सिद्धी प्राप्त करने जैसे बे फिजूल काम करें|

इसलिए वे अलग अलग शहरों में अलग देशों में साहित्य साधना के लिए जाते हैं| वे कठिन साधना में ऐसे रत हैं कि लेखन में दिगम्बर से हो गए हैं (वैसे तो व्यवहार में भी नंगई पर उतारू हैं) …. वे आगे आगे चलते हैं ..उनके चेले उनके पीछे मोरपंखी से हवा करते चलते हैं …कोई उनके गुरु के बारे में कुछ बोले तो उसका केशलुंचन करने को वो सदैव तत्पर रहते हैं | इसलिए साहित्य पर चिंतन करने के साथ साथ वे  ऐसे चेलों की नई भर्ती के गंभीर कार्य पर भी जुटे रहते हैं, जो समय आने पर उनके तलवे चाटने से लेकर, छू करते ही भौंकने के कार्य को भी पूरी मुस्तैदी से निभा सके और इनका महानता का सिंहासन कोई हिला न सके|
असल में इन साहित्यकारों के कंधों पर महान बनने के साथ साथ अपनी पत्रिका के प्रचार प्रसार का बोझ है…. सो वे कभी अतल गहराई से तो कभी समंदर की लहरों में से नए सृजन की तलाश में जुटे रहते हैं | वैसे भी आजकल साहित्यकारों पर लिखने से ज्यादा बिकने का दबाब है| कुछ लोग तो इस दबाब तले इतने दब गए हैं कि ऐसा लगता है कि मार्केटिंग गुरु बन गए हैं ..उन्हें पता है कैसे सामने वाले की जेब में अपना हाथ फंसा दिया जाये कि अपनी पतलून को बचाने के लिए ही सही वह उनकी किताबों का बंडल खरीद ही डाले और ये विजयी मुस्कान लिए अगले लक्ष्य को साधने के लिए एक पारंगत  शिकारी की पोजीशन में आगे बढ़ जाते हैं | अब तो बस किसी बड़ी कम्पनी की इन पर नजर पड़ने की देर है फिर तो ये मार्केटिंग के गुर सिखाने के लिए विदेशों तक जा सकते हैं | 
हमारे कुछ साहित्यकार चिंतित हैं आज का युवा सहित्य से दूर हो रहा है| क्यों हो रहा है? साहित्य की तरफ कैसे खींचे? इसके लिए क्या करें? काफी चिंतन मनन करके उन्होंने निष्कर्ष निकाला युवाओं को साहित्य की तरफ आकर्षित करना है तो लेखन में कुछ नयापन लाना पड़ेगा…ये समौसा कचौड़ी युग की नहीं पिज्जा मोमोज युग की संताने हैं..सो इनके स्वादग्रंथि को जो छू सके ऐसा साहित्य रचना होगा|
इसके लिए कभी पहाड़ों की खुबसूरत वादियों में कुछ खुबसूरत (दृश्य) निहारते हुए साहित्य रचा जायेगा तो कभी मरीना बीच या आरम्बोल बीच की रेत पर लेटकर सन बाथ लेते हुए आसपास की खूबसूरती को निहारते हुए चिंतन करना होगा | हो सकता है आने वाले समय में ये बार डांसर के ठुमको को देख साहित्य सृजन करें या बैंकाक में मसाज करवाते वक्त| ऐसे समर्पित साहित्यकारों की वजह से ही बहुत समय पहले ‘हालावाद’ तो रचा जा चुका है अब ‘ऊ ला ला वाद’ रचा जायेगा| 
आज के कुछ साहित्यप्रेमी तो पुन्य कार्य में लगे हैं वे हिंदी सेवा में दिलोजान से जुटे हैं. वे हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए सात समन्दर पार तक जाने को तैयार रहते हैं | विदेशों में जाकर हिंदी साहित्य पर बहुत ही गंभीरता से और बे रोक टोक काम होता है | यही वह स्थान होता है जहाँ विधा और लेखक के बीच के हर ईगो हर मेरा तेरा वाले बाँध  टूट कर क्या तेरा क्या मेरा की भावना का उदय होता है और तब  कविता का मिलन कहानी से होता है  …व्यंग्य गजल से और निबंध हायकू से अदभुत मिलन होगा उसके बाद जो अपनापन जन्म लेता है  और हमारावाद से जो साहित्य रचा जाता है वो इतिहास रचेगा, कालजयी होगा, इस भावना से ओतप्रोत होकर रचा जाता है| इस तरह साहित्य की और हिंदी की सेवा का कार्य पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ संपन्न किया जाता है |
इति साहित्य सेवा कथा समाप्त … 

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