आज की दुनिया में चार तरह के डॉक्टर हैं। चार साल मेडिकल की रगड़ाई करके बने डॉक्टर । चार, पाँच, छह या सात साल घिस घिस कर, पोथियाँ बाँच कर, आँखें फोड़ कर, यूनिवर्सिटी के चक्कर काट काट कर और पिछले कुछ सालों से तो यू.जी.सी के सख़्त नियमों से पगलाए, बौराए घूम कर बनने वाले पी.एच.डी डॉक्टर। तीसरे हैं चूरन की पुड़िया पकड़ा कर, बिना डिग्री के भी लोगों को राम बाण औषधि बाँट रहे झोला छाप डॉक्टर।
अब ऐसा है कि ऊपर दिए तीन प्रकार के डॉक्टर के लिए तो सरकार ने, क़ानून ने बहुत सारे नियम क़ायदे बना रखे हैं। इसलिए मेडिकल डॉक्टर, और पी.एच.डी डॉक्टर होना तो होता है बड़ा मुश्किल। और झोला छाप डॉक्टर होना होता है बड़ा ख़तरनाक। अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी।
लेकिन जिस चौथे क़िस्म के डॉक्टर की मैं आज बात करने जा रही हूँ, वो मेरी नज़र में होते हैं सबसे सयाने, रुआबदार, रसूकदार और होशियार। ये वो कुनबा है जो कई कहावतों को चरितार्थ करता है। जैसे “हींग लगे ना फिटकरी, और बन गए डॉक्टर”, “जब टेडी उँगली से घी जल्दी निकलता हो तो उँगली सीधी क्यों करें”, “समय बहुत क़ीमती है, उसे असली डॉक्टरी करने में जो गवाए वो महामूर्ख”, वगैरह वगैरह।
मैं बात कर रही हूँ, “होनोरिया कौसा” वाले डॉक्टर बाबू की।
“होनोरिया कौसा” ???
“ये क्या बला है?”
सब्र रखिए। बताते हैं।
ये कुछ नया नहीं है।
सदियों से होता आया है कि हर नियम का तोड़ है,
रास्ता कोई नहीं सीधा, हर जगह कोई ना कोई मोड़ है।
अब जैसा बताया गया कि सीधे रास्ते पी.एच.डी वाला डॉक्टर बनना तो है बहुत लम्बा । और उस डॉक्टरेट का सीधा सा मतलब है अपने क्षेत्र, अपने विषय का महारथी । अब कई लोग होते हैं जो पी.एच.डी की लम्बी, पेचीदा, कँटीली राहों से ना गुजरे हों, पर अपने क्षेत्र के महारथी हैं। बल्कि दस बीस पी.एच.डी के बराबर हैं। ऐसे लोगों को सम्मानित करने के लिए बनाया गया ये ““होनोरिया कौसा” यानी मानद डॉक्टरेट की उपाधि। किसी शख्स को उसके उत्कृष्ट काम या समाज में बेहतरीन योगदान देने के लिए ऑनरेरी डिग्री (मानद उपाधि) दी जाती है। एक साधारण सा पैमाना है की एक ऐसे व्यक्ति को मानद उपाधि की पेशकश की जा सकती है जिसने राज्य, राष्ट्र या दुनिया के सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और/या सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया हो और उसका वो योगदान वर्षों तक याद किया जाएगा। जयदतार ये ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनके पास पहले से डिग्री या कोई बड़ा सम्मान मौजूद हो। मसलन, कोई नोबेल पुरस्कार विजेता है, या बहुत प्रसिद्ध अभिनेता, या कलाकार है अगर उसे कोई विश्वविद्यालय मानद डिग्री देता है, तो यह उस विश्वविद्यालय के लिए अपने सम्मान की बात है।
भारत की बात करें तो राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह, अमिताभ बच्चन, रजा मुराद, लता मंगेशकर, ए॰आर॰ रहमान सरीखों को मानद उपाधि मिली है। और इन लोगों को ये डिग्री मिलना सबके लिए मान्य है, समझ में आता है। लेकिन क्या आप अपने परिचय में ऐसे लोगों को जानते हैं, जिन्हें मानद उपाधि मिली हो, और आप सोच रहे हों कि “अरे! बग़ल में अमिताभ बच्चन रह रहे थे और आपको पता ही नहीं चला?” और हाँ क्या वो उपाधि किसी विदेशी यूनिवर्सिटी ने दी है ? तो आप सही लेख पढ़ रहे हैं।
मज़ेदार बात जो इस पूरी कहानी का जलवा है, वो ये कि बन गया यही ““होनोरिया कौसा” अब हलवा है। और जिसे देखो वो हलवा खाए जा रहा है। आज एक तो कल दूसरे का डॉक्टर बनने का मेसिज आए जा रहा है। कहाँ का मेडिकल, कहाँ की यू.जी.सी, कहाँ की रीसर्च, कहाँ के रीसर्च पेपर, कहाँ की थीसस? ये महानुभाव सीधे पहूंचते हैं कॉन्वकेशन में। इनके हाथ में होता है डॉक्टरेट का सर्टिफ़िकेट और शान से खिंची एक फ़ोटो। बेशर्मी से सर पर सबसे बड़ी डिग्री का हैट लगाए, हाथ में फ़ोल्डेड डिग्री पकड़े हुए। मुस्कुराते एक दिन में डॉक्टर का तमग़ा लगाए गर्व से सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते हुए।
सच में हलवा ही तो है। कोई भी एक एन॰जी॰ओ॰ खोल कर, चार कविताएँ लिख कर, अपने ही कराए कार्यक्रम में मेडल लेकर हलवे की तरह डॉक्टर की डिग्री लिए जा रहा है। और कोई बेचारा अभी भी यूनिवर्सिटी के चक्कर लगा रहा है।
मैं ये नहीं कह रही कि सब फ़र्ज़ी हैं। बल्कि मैं कहूँगी जिन्हें हिंदुस्तान का कोई विश्वविद्यालय मानद डिग्री दे रहा है, वो काफ़ी हद तक उसके लायक़ होंगे। पर उन लोगों की ““होनोरिया कौसा” गले नहीं उतरती जिनकी महानता की हिंदुस्तान की किसी यूनिवर्सिटी ने सुध नहीं ली। पड़ोसी छोड़िए आज तक घर वालों को नहीं पता कि क्या तीर मारते हैं, लेकिन उन्हें दुनिया के अलग अलग देशों में बसी (बसे भी हैं या ऑनलाइन, आभासी हैं, पता नहीं), ऐसी यूनिवर्सिटीज पकड़ पकड़ के डॉक्टर बनाने आ रही हैं जिन पर जाँच बैठी तो उनकी खुद की नीव हिल जाएगी और डिग्री सबकी छिन जाएगी। समझ नहीं आता कि कौन से हैं ये विश्वविद्यालय जो भारत के गली माहौलों से हीरे छाँट छाँट कर उन्हें हलवे की तरह डॉक्टरेट बाँट रहे हैं? क्या अपने देशों में उन्हें लोग नहीं मिल रहे जो भारत से खोज खोज कर डिग्री बाँटी जा रही हैं। या अपने देश में पैसा देकर डिग्री लेने वालों की कमी है इसलिए विकासशील देशों में ज़्यादा से ज़्यादा को डॉक्टर बनाने में जुटे हैं? “मेरा देश बढ़ रहा है, मेरा देश संवर रहा है”।
क्या मानक हैं इनके, क्या मान्यता हैं इनकी, कुछ नहीं पता। बस विदेशी सुनकर हम हिंदुस्तानियों की आधी अक़्ल तो वहीं बंद हो जाती है। और किसी के भी ““होनोरिया कौसा” डॉक्टर बनने की खबर सुनते ही हमारी बधाइयों की झड़ी लग जाती है।
आपने भी ऐसे कई लोगों को देखा होगा। जानते होंगे। बधाइयाँ भी दी होंगी। पर अगर सहमत हों तो अगली बार ऐसे किसी परिचित से थोड़ा विस्तार से पूछिएगा कि कहाँ और कैसे मिलती है ये डिग्री। ऐसा कौन सा सामाजिक परिवर्तन वो लेकर आए हैं, जिसकी वजह से उन्हें इतना बड़ा सम्मान मिला कि अब वो जीवन भर के लिए डॉक्टर साहब बन गए। ये लेख लिखने की प्रेरणा मुझे भी अपने आभासी दुनिया के कुछ परिचितों से मिली।
हुआ यूँ कि मेरे एक आभासी दुनिया के परिचित ने पी.एच.डी की बधाई देने के लिए मुझे जब कॉल किया तो साथ में कहा कि “योजना जी, मुझे तो रोज़ कॉल आते हैं कि बस फ़ॉर्म भर दो, इतने पैसे दे दो और डिग्री ले लो। सोच रहा हूँ, कर लूँ। मैं हैरान रह गई। मैंने बस इतना कहा कि ऐसा झूठा टाइटल लेने से क्या फ़ायदा जिसे आपका दिल भी गवारा ना करे। वो तमग़ा लगा कर क्या आप कभी अच्छा महसूस कर पाएँगे? करना है तो मेहनत से कीजिए। थोड़ा समय लगेगा, पर हो जाएगा।“ वो दिन था और आज का दिन है, मेरा बॉयकाट हो गया। पर पूरी उम्मीद है जल्द ही उनके नाम के आगे डॉक्टर देखूँगी।
पर इससे पता चला कि ऐसा भी होता है। इस बीच कई सारे सो कॉल्ड कलाकार, सेल्फ़ क्लेम्ड कलाकार, कवि, बिज़्नेस मैन/वुमन इस आभासी दुनिया में टकराए जो सच कहें तो बस उतने ही कद के हैं जितने आप और मैं। मतलब आम आदमी। मैंगो मैन। अपनी फ़ेस्बुक की पाँच सौ की दुनिया के सह नायक या नायिका। पर फिर चौकने वाली खबर तो तब आयी जब पिछले एक साल में इतने सारों को रातों रात डॉक्टर बनते हुए देखा । मेरे तो होश ही उड़ गए। अपनी सालों की तपस्या, रातों की उड़ी नींद, हज़ारों पापड़ जो बेले थे, और साढ़े तीन सौ पन्ने की थीसस याद आ गई। सच कहती हूँ, मेरे जैसे वो सभी लोग जिन्होंने सालों रगड़ रगड़ के डॉक्टरेट हासिल की, वो खून के आंसू रोएँगे ये नाइंसाफ़ी देखकर और गाएँगे कि “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान। कितना बदल गया इंसान… दुःख का एक कारण ये भी कि इतनी मेहनत कर ली बेकार ही… हमें तो किसी ने नहीं बताया कि ऐसा भी होता है, ह्म्म्म्म!!!नहीं तो…. ही ही ही…”
अब उत्सुकता जगी तो थोड़ा गहराई में जाने के बाद, उनकी यूनवर्सटीज़ के नाम छानने के बाद, गूगल देवता ने कई पोल खोली। एक दो लाख में आराम से घर बैठे बिठाए पकड़ा के जाते हैं डिग्री। थोड़ा और देंगे तो कॉन्वकेशन में पूरे सम्मान के साथ और फ़ोटो विडीओ प्रूफ़ के साथ दी जाएगी। जी हाँ। समझ में आया कि… “ओ तेरी… ये तो पूरी दाल ही काली है”। सच कह रहे हैं, आपका पता नहीं, पर जितने ऐसे डाक्टर्ज़ को हम जानते हैं, उनमें से निन्यानवे प्रतिशत फ़र्ज़ी हैं। ‘फ़र्ज़ी’ इसलिए क्योंकि अगर ‘उन जैसों के’ जीवन की उपलब्धियों या उनके जितने सामाजिक/साहित्यिक योगदान के बूते कोई ““होनोरिया कौसा” वाला डॉक्टर बन सकता है ना भैया??… तो फिर देश का हर गायक, कवि, कलाकार, और आप सब भी इस उपाधि के हक़दार हैं। कल से ही लिखना शुरू कर दीजिए।
अब कोई कहेगा। मैं क्यों इस मुद्दे को उठा रही हूँ? मैंने भी सोचा। क्यों? क्यों योजना “लेडीज़ बाथरूम लिखती है, कॉर्प्रॉट वुमन लिखती है? उन बातों के बारे में बोलती है जिस् पर लोग चुप्पी साध जाते हैं? सच कहूँ तो मैंने भी कई दिन चुप्पी साधी। सोचा, कोई कुछ भी करे, “मैनू कि फ़रक पेंदा?” पर फिर मुझे लगा कि नहीं ये ग़लत है। ना इंसाफ़ी है। डॉक्ट्रेट का टाइटल किसी को एक क्षेत्र का महारथी घोषित करता है। सबसे बड़ी अकादमिक डिग्री है। बहुत बड़ा तमग़ा है। ये सिर्फ़ उसके लगना चाहिए जो इसके लिए मेहनत करता है, इसके काबिल है। ये अगर सरेआम बिकाऊ हो जाए, तो क्या ये ठीक है? “होनोरिया कौसा” भी असल में एक पाक रास्ता है अलग अलग क्षेत्रों में सर्वश्रेस्ठ काम कर रहे लोगों को सर्वश्रेस्ठ उपाधि देने का। पर इतना तो हो कि ऐसे लोगों को पूरा देश, या कम से कम वो समाज जानता हो। पर नहीं। यहाँ तो हर गली महौले का वो छूटभैया जिसके पास पहूँच है, पैसा है, और सबसे बड़ी बात जिगर है ऐसी डिग्री लेने का, यदि इसका दुरूपोयोग करने लगे, वो भी विदेश के जाली संस्थानों के माध्यम से, तो क्या संदेश देते हैं हम आने वाली पीढ़ी को?
यही कि पहूंच, पैसा, और बेशर्मी हो तो दुनिया की हर चीज़ पाई जा सकती है? नहीं।
ये उन लोगों के साथ अन्याय है जो मेहनत करके डिग्री पाते हैं। चाहे वो कोई भी डिग्री हो।
इस लेख के माध्यम से मेरी भारत सरकार से विनती है कि वो इसका संज्ञान लें और जैसे झोला छाप डॉक्टरों पर लगाम लगाई है, वैसे ही फ़र्ज़ी विदेशी संस्थानों से संचालित हो रहे, पैसा कमाने की मशीन बन चुके, और डॉक्ट्रेट की डिग्री का मज़ाक़ बनाने वाले, इस “होनोरिया कौसा” पर भी रोक लगाएँ।
इस लेख को पढ़ने के बाद मैं बहुत सारे लोगों की फ़्रेंड्शिप लिस्ट से हट कर दुश्मनों की लिस्ट में आने वाली हूँ। पर वो मुझसे मुँह छुपाएँगे, मैं नहीं।
yeh sachcha aur sarthak vyang hai.
mein thesis puri nahiin kar saka, islie dilli ki kisi university mein nahin ja saka.
natak, upnyas kafi likhe, par utna kaam nahin hua, jo university mein ho jata.
tumko badhai!
भारत में भी इस तरह की मानद उपाधियाँ खूब बट रही हैं
yeh sachcha aur sarthak vyang hai.
mein thesis puri nahiin kar saka, islie dilli ki kisi university mein nahin ja saka.
natak, upnyas kafi likhe, par utna kaam nahin hua, jo university mein ho jata.
tumko badhai!