सिर पर तगारी उठाये चलते हुए पास ही पड़ी रेत पर उसका पैर फिसला और तगारी उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरी। वह वहीं औंधे मुंह गिर पड़ा। दूसरे ही पल उठकर दो पैरों पर उंकडू बैठकर छिल गए घुटने से रिसते हुए खून को रोकने के लिए पास पड़ी धूल उठाकर उसने घाव पर चुपड़ दी। नई बन रही उस आवासीय कॉलोनी में बन रहे अपने मकान का मुआयना करने आई उसकी नजर जब उस पर पड़ी तो वह तेज कदमों से चलते हुए उसके पास पहुंच गई।
‘ये क्या कर रहे हो? इस तरह घाव पर मिट्टी लगाने से घाव सड़ जाएगा।’ उसने उसे घाव पर धूल लगाने से रोकते हुए कहा।
वह कुछ कह पाता इससे पहले ही एक काली चमड़ी वाला हट्टाकट्टा जवान उसके पास आकर खड़ा हो गया।
‘रहेन दे बाई। कइनी होयगो। मजबूत बनेगो छोकरो।’ वह शायद उसका पिता था।
‘बच्चे से काम करवाते हुए शर्म नहीं आती तुम्हें?’ वह उस जवान को डांटने लगी।
‘तो किया करूं इसका?’ उसकी बात का जवाब न देकर वह खुद ही आंखें फाड़कर उसके सामने खड़ा हो गया।
‘इसे पढ़ा लिखा और इन्सान बना।’ उसने सलाह दी।
‘वोई तो कर रियो है।’ ढीठ होकर उसने जवाब दिया।
‘मतलब’ वह उसके कहने का भावार्थ न समझ सकी।
‘मेहनत करना सीखेगो तब ही तो इन्सान बनेगो। नई तो कोई रोटी को भाव न पुछेगो। जनावर थोड़े ही जो कोई मुंह में रोटी डाल जावेगो।’ ग्रामीण लहजे में कहे उसके अनुभवी वाक्यों के आगे वह कुछ न बोल पाई।
‘चल छोरा। उठा तगारी।’ उसे आदेश देता हुआ वह आगे बढ़ गया।
पिता के अनुभव के पीछे तगारी उठाये उसका भविष्य लंगड़ाते हुए चलने लगा।
2- आज़ादी पर्व
‘क्यों री, आज काम से वापस क्यों आ गई? क्या मालिक कहीं बाहर गए है ?’ समय से पहले घर आई भारती से अनु ने पूछा।
‘नहीं मां, मालिक का कहना है आज आजादी पर्व है इसलिए छुट्टी मनाओं।’ भारती ने चहकते हुए जवाब दिया।
‘आजादी पर्व! जाने कैसे कैसे त्यौहार होवें है इन बड़े लोगों के। त्यौहार इनका हो और लात हमारे पेट पर पड़ती है।’ अनु बड़बड़ाते हुए आटा गूंथने लगी।
‘मां मैं बाहर खेलने जा रही हूं।’ कहते हुए भारती वहां से जाने को हुई।
‘अभी बहुत से काम पड़े है। अब छुट्टी मिली है तो काम में हाथ बटा। वो झाड़ू पड़ी है, उन्हें ले और बेचने जा। त्यौहारों का क्या है आते जाते रहते है।’ अनु ने उसे रोकते हुए कहा।
भारती ने छुट्टी मिलने की चेहरे पर छाई हुई खुशी उतार फेंकी और सामने पड़ा झाड़ू का तैयार बण्डल उठा लिया।