जेहादी हो कुर्बान होने जा रहे तुम मुहाजिदों को तारीख़ सलाम करेगी। तुम उन फर्जों को अंजाम देने जा रहे हो जिन की बुनियाद पर आज़ाद कश्मीर का सपना सच होगा।।अपने मुकद्दस खून की हरेक बूंद टपका दो, चीर डालो इन काफिरों को, बुतपरस्तों को। मुल्क और कौम तुम से आज शहादत मांगती है मेरे गाजियो. “। वयसंधि के बीच में से गुजरते किशोर मनों में सांप्रदायिकता का जहर भरते काज़ी शमस की आवाज कच्चे ज़हनो में उतरती और उकरती चली जा रही थी कि अचानक ताहिर को यह आवाज दूर से आती लगी…. । उसकी यादों में उभरने लगा इस दलदल में फंसने के पहले का वक्त।पढ लिख कर पुलिस में ऊंचे ओहदे का ख्वाब देखते ताहिर के हवलदार अब्बू की एक आतंकी गुट से मुठभेड़ में दर्दनाक मौत.. परिवार को लगातार निगलती भुखमरी की चुड़ैल। कड़वी बेल की तरह तेज़ी से फैलती फूलती बहन । ताहिर तो नेकनीयती से रोजगार की तलाश में निकला था पर कैसे उस शातिर असलम ने उसकी मज़बूरी को भांप लिया और उसे यहाँ ले आया वह असलसम… नादान ताहिर को कुछ भी पता नहीं चल सका।……..! वह चौंका। का़जी अब उसके शाने पर हाथ रखे उसके कान में फुसफुसाया “ हमने दस लाख नकद जमा करवाये हैं तुम्हारी वालिदा के नाम । तुम बिलकुल भी फिक्र नही करो…तुम्हारे बाद वफा का निकाह हम पढ़वाएंगे.. उसके भाई बन कर..“ पीछे खड़े असलम को मक्कारी से आंख मारता शमस ताहिर के झुके चेहरे के करीब बुदबुदाया “ जिंदा रह कर तुम कुछ भी नहीं दे पाओगे उन माँ बेटी को… कोई नौकरी नहीं तुम्हारे पास… पर पेट का दोज़ख तो रोटी मांगेगा ही…तन की अस्मत भी कपड़ा चाहेग। सिर की तल्ख धूप भी छत ढूंढेगी…. फिर जब यही सब नहीं होगा तो बच्चू बहन का दहेज कहाँ से बनाओगे….. कहीं उसे किसी बाजार की रौनक..” नहीं का़जी बाबा “ कांप उठा ताहिर “फरमाएं मुझे क्या करना है? “ बहन को बाजार में बैठने की कल्पना ने ही उसकी रूह को घायल कर दिया। “ जिहादी बन और कुर्बान हो जा मेरे लाल.. पीछे वाले तुझे ताउम्र दुआएँ देंगे.. खाएंगे.. मुस्कुराएंगे.. “क़ाज़ी के रूख में फिर से नरमी आ गई।
चंद रोज बाद अखबार में सुर्खियां छपी ‘ वजीरेआज़म किशोरी लाल मानव बंबविस्फोट में हलाक ‘ ..
रात में अच्छी महफ़िल सजी। सुर साज के शोर में सींखचों के पीछे चिल्लाती ताहिर की माँ हमीदा की चीखें दफन हो गयी और उस महफ़िल की शान बना अस्मतजदा वफ़ा बाई का शानदार मुज़रा।
2 – तैं कब दर्द आएगा?
शक्ल से भले घर की मालूम पड़ती उस वृद्धा भिखारिन का कंपकंपाता हाथ उसके थरथराती आवाज और लड़खड़ाती चाल के साथ संगम सा करता बार बार आने जाने वाले भक्तों के सामने उठ / गिर सा रहा था।। पोपले से मुंह पर भिनभिनाती मक्खियां उसके झक्क सफेद बालों की झाडि़यों में फंसती उलझती भीं भीं करती उसे और दयनीय बना रही थी। धुंधलाई और गीद भरी आंखों से बहते अविरल अश्रु कहीं थम नहीं रहे थे और वह रह रह कर हिचकी उठती अतीत की चमकती धूप को वर्तमान की स्याह परछाईं ने ऐसा ढका कि काल चक्र कब दमन चक्र बन बैठा उसे जानने तो क्या समझने का भी मौका नहीं मिला।
दो वर्ष पूर्व तक वह अपने भरे पूरे परिवार के साथ हर सक्रांति को यहीं मत्था टेकने आती थी। जरुरतमंदों की सहायता और संगत के लिए लंगर करवाती थी। पोते ईशनूर को जन्म देने के बाद बहु खुश दीप और निखर गयी थी। और बेटा नवदीप तो माँ , बेटे और पत्नी को देख देख कर जीता था।…. .. …… उसदिन भी सक्रांति थी…. अचानक… तड़….तड़ ..तड़ ..तड … बीसीयों स्टेनगनों ने एक साथ आग उगली और आखों की फेर में सैकड़ों ही नवदीप बुझ गये।
बिना देश के बाशिंदों और बिना बाप की औलादों ने हैवानियत की दहलीज पर इंसानियत का बलात्कार किया और कितनी ही खुशदीप जला कर राख कर दी गई अपने मासूम नूरों को अपनेको कलेजे से लगाए ।
भा जी मन्नतों और मुरादों से भरी इस की झोली खाली कर हो गई… .. जिस गाड़ी को आग लगाई गई थी उसमें इसका सारा कुछ सड़ के स्याह हो गया भा जी.. यह सदमा सह नहीं सकी..अपनी याददाश्त गंवा.. यहीं कुछ ढूंढती रहती है… गुरद्वारे का सेवादार एकगुरमुख को बता रहा था… कुछ महीने वापिस नहीं लौटी तो रिश्तेदारों ने इसका भी चौथा उठाला करवा के खेत खलिहान, ट्रैक्टर, जायदाद सब समेट लिया जी… यह अब अपनी मौत की मन्नतें मांगती फिरती है… कौन समझेगा इसके दर्द को भा जी?… आंखे पौंछते हुए सेवादार आगे बढ़ गया कुछ मूक और जटिल प्रश्न छोड़ कर… जिनका उत्तर शायद किसी के पास नहीं।।