Saturday, July 27, 2024
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मृणाल आशुतोष की दो लघुकथाएँ

1- आईना

पटरी किनारे बैठा मुन्ना जूते पॉलिश कर रहा था और साथ ही कोई फिल्मी गीत भी गुनगुना रहा था!

“अबे, जल्दी से जूते पॉलिश कर ना! ऑफिस के लिए देर हो रहा हूँ।”

“बस दो मिनट, साहेब!”

“बढिया से कर ले। हेड ऑफिस से बॉस आने वाले हैं।”

“साहेब! बढिया से ही तो कर रहा हूँ।” उसे अपने काम पर अँगुली उठाया जाना अच्छा नहीं लगा।

“साला, मुझसे जबान लड़ाता है!”

“अरे साहेब! गाली काहे को देते हो।”

“गाली नहीं दूँ तो तेरी आरती उतारूँ क्या बे गटर की …”

“गाली नहीं देने का! क्या! अपन की भी इज्जत है यहाँ!”

“रूक। अभी बताता हूँ। तुमको पता नहीं कि मैं कौन हूँ? अभी यहाँ के बीट कॉन्स्टेबल को फोन लगाता हूँ।”

“लगा लो। फोन लगा लो। वो साहेब अपन को जानता है। आईने की माफिक उनका जूता चमकाता हूँ रोज़!”

मुन्ना अब अपने सामने ही उस आदमी को अंग्रेज़ी में कुछ गिटिर-पिटिर करते हुए देख रहा था। दस मिनट भी न बीते होंगे कि उसकी पीठ पर जोरदार आवाज़ हुई। कराहते हुए वह मुड़ा तो उसी बीट कॉन्सटेबलल के हाथ मे डंडा था जिसका बूट वह रोज़ चमकाता था। अब पीठ से कहीं अधिक दर्द उसके दिल में हो रहा था।

***

2- पोंगा पण्डित

घण्टी बजी। मोहन ने दरवाजा खोला तो सामने लंगोटिया यार सुभाष था। इससे पहले कि उसे बैठने को कहता, उसने आरोप जड़ दिया,”कल तुम्हें कई बार फोन किया पर तुमने उठाया ही नहीं!”

“अरे भाई! कल मूड ऑफ हो गया था!”

“पर हुआ क्या?”

“कुछ नहीं। कल गांधी जयंती थी। फेसबुक पर कुछ नीच लोग उनको गाली दे रहे थे।”

“तो?”

“तो! तो क्या! मैंने भी जमकर गरियाया साले को। बोला, एक बाप की औलाद है तो आकर मिल। अपना पता भी दिया उन हरामखोरों को!”

“यार! यह तो तुमने ठीक नहीं किया। उनको नज़रअंदाज़ करना चाहिए था न!”

“अरे यार! जब से मैंने गांधी-दर्शन पर पीएचडी करनी शुरू की है! कोई गांधीजी के बारे में उल्टा-पुल्टा बोलता है तो मेरा खून खौल उठता है।”

कमरे में अब गांधीजी के तीनों बंदर के सिसकने की आवाज़ आ रही थी।

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