1 – थाली में बड़ा
‘बड़ा बनने के लिए ‘बड़ा’ बनना पड़ता है।’ विजय ने बेटे रवि से कहा।
‘बड़ा बनना पड़ता है, समझा नहीं?’
‘तुम्हारी मम्मी बड़ा बनाती है, जाकर पूछो।’ पिता ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘पहले दाल को अच्छी तरह से साफ कर काफी देर तक पानी में भिगोते हैं। भीगने के बाद अच्छी तरह चटनी (लुगदी) बनाते हैं। उसमें स्वाद के लिए नमक, मिर्ची डालते हैं। फिर चपटे गोले बनाकर या गोला बनाकर, चूल्हे में चढ़ी कड़ाही के तेल में लाल होने तक तलते हैं। फिर खाते हैं। पर तू क्यों पूछ रहा है, बनाना चाहता है क्या?’ मम्मी ने मुस्कुराते हुए पूछा।
‘नहीं मम्मी, बनना चाहता हूँ, पिताजी ने कहा है।’
मम्मी जाते हुए बेटे को आश्चर्य से देखते रही।
‘मम्मी तो बनाती है, बता भी दिया। आप भी बताएं, ‘बड़ा’ बनने की विधि, समझ संकू, बन संकू।’ रवि ने पिताजी से पूछा जो एक आवासीय महाविद्यालय के प्राचार्य थे।
‘हाँ बनाता हूँ, बनने में सहयोग देता हूँ। तुम्हारे माध्यम से तुम्हें समझाता हूँ। तुम्हें (दाल को) ब्रश कर, फ्रेश होकर (साफ होकर) आने के लिए कहता हूँ। फिर तुम्हारी मम्मी से तुम्हें ड्राईफ्रूट्स, दूध सहित हैवी नाश्ता देने के लिए कहता हूँ। (पर्याप्त पानी में अच्छी तरह फूलने के लिए भिगोता हूँ।) तुम्हें पढ़ने बैठाने से पहले अच्छी तरह समझाता हूँ कि क्या पढ़ना है, कितना पढ़ना है, कैसे पढ़ना है। (रगड़कर चटनी (लुगदी) बनाता हूँ।) फिर चार प्रश्न पूछकर तसल्ली करता हूँ। (स्वादनुसार नमक, मिर्च डालता हूँ।) परीक्षा के लिए तैयार कर (चूल्हा तैयार कर) कड़ाही (परीक्षा) के तेल में खास समय तक उलट-पलटकर तलता हूँ, (प्रश्न पत्रों एवं प्रैक्टिकल के माध्यम से) लाल होने तक (परीक्षा परिणाम आने तक) परोसने के लिए निकलूंगा/ निकाल लेता हूँ’, भारत माता की थाली में अर्पित करने (सेवा करने) अपने छात्र-छात्राओं को भी ‘बड़ा’ बनने कुछ इसी तरह से सहयोग करने की कोशिश करता हूँ।’
2 – असुविधा में लिपटी ख़ुशी
आश्चर्य हुआ कि मैं ज्यादा खा गया, पर खुशी हुई। पहले आपने खाने के आधा घंटे पहले पानी पीने को दिया, आदत नहीं थी, असुविधा हुई, भूख लगने लगी पर बताने में असुविधा हुई। फिर आपने हाथ साबुन से धुलाया। वाश बेसिन नहीं था और न ही लिक्विड सोप। पेंट को छींटों से बचाने के प्रयास में झुककर धोना पड़ा, असुविधा हुई। आपने आसन पर सुखासन (पालथी मारकर) पर बैठाया, आदत नहीं थी, असुविधा हुई। वरिष्ठता के आधार पर सभी सदस्यों ने सभी की थाली में एक-एक आयटम यथा स्थान पर रखा, समय लगा, जोरों की भूख लगने लगी थी, असुविधा हुई। सामने सुगन्धित भोजन देखकर भूख और बढ़ गई, पर भोजन के पूर्व सभी सदस्य हाथ जोड़कर भोजन मन्त्र का वाचन करने लगे, मुझे रुकना पड़ा, असुविधा हुई। वरिष्ठ सदस्य बार-बार और खाना लेने आग्रह करते रहे, न कहने पर असुविधा हुई। हाथ धोने के लिए सबका खाना खत्म होने तक इंतजार करना पड़ा, असुविधा हुई। ज्यादा खा लेने के कारण उठने में असुविधा हुई। प्यार से उन्होंने उठने में सहायता की, असुविधा हुई।
असुविधाओं के बीच मैंने अपार आनंद और अपनत्व का अनुभव किया। मुंह से निकला, ‘स्वादिष्ट भोजन, सेवा-सत्कार के लिए धन्यवाद। बहुत कुछ सीखा, समझा, आपका आभारी हूँ।’
‘आपको असुविधा हुई पर आपने अत्यधिक तारीफ की, हम अपने को असहज महसूस कर रहे हैं।’ घर के मुखिया ने हाथ जोड़कर कहा.
‘आपके इसी तरह के व्यवहार से मैं असहज हो जाता हूँ, कैसे आभार व्यक्त करूं, समझ में नहीं आता, औपचारिकता निभाने में असुविधा होती है।’
मेहमान के साथ-साथ परिवार के सभी सदस्य खुलकर हंसने लगे।
मेहमान, खुशी मिली इतनी कि दिल में न समाए…..। गुनगुनाते हुए विदा हुए।