Saturday, July 27, 2024
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डॉ तबस्सुम जहां की लघुकथा – प्रेम औऱ समर्पण

सोशल मीडिया पर एक खास रिश्ता बना था विनोद से उसका। वो उसे ईश्वर प्रदत मानती थी। ईश्वरीय देन। एक रिश्ता जो दोस्ती से ऊपर था लेकिन प्रेम की सीमा से परे। दैहिक औऱ मांसलता से बहुत दूर। इश्क़ मिज़ाजी से इश्क़ हक़ीक़ी बनकर रूह में उतरता हुआ। वह उसमें ईश्वर की छवि देखने लगी। एक ऐसा रिश्ता जिसमें आदर था समर्पण था। कुछ करने की ख़ुशी थी। जाने क्यों वो जब भी ईश्वर के सामने हाथ जोड़ती विनोद का नाम प्रार्थना में सबसे पहले आता था। उसे उससे बात करने में सुकून मिलता। हर फोन के बाद उसे अगले फोन का इंतिजार होने लगता। बड़ा खूबसूरत-सा रिश्ता बन पड़ा था विनोद से उसका।
हालांकि वो जानती थी कि दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं अपने-अपने दायरे हैं। दोनों ही अपने दायरे नहीं तोड़ सकते। ऐसा भी नहीं था कि उसने विनोद पर किसी बात के लिए दबाव बनाया हो। उसने तो कभी उससे मिलने की ख़्वाहिश तक ज़ाहिर नहीं की थी। वह बेशक दूर थी पर हर संभव विनोद को ख़ुशी देने की कोशिश करती। फिर एक दिन उसने अपने स्त्रीत्व को ताक पर रख कर हिम्मत जुटा कर उससे बात की। उसे बताया कि वो शख्स उसके लिए कितना ‘खास’ हो चुका है। पर उसके बाद जो हुआ उसने सपने में भी नहीं सोचा था।
“उसे ऐसे रिश्ते बोझ लगते हैं” सुनकर विनोद ने दो टूक कहा था।
फिर क्या था उसके बाद से वो उस “खास”के लिए “आम” हो गई। सम्मान, मित्रता औऱ आदर के जिस ऊँचे शिखर पर विनोद से उसे बैठाया था उसे धडाम से वहाँ से गिरा दिया गया। धीरे-धीरे उसे अहसास दिलाया जाने लगा कि वो कभी उस खास के लिए खास नहीं थी ।
फिर व्यस्तता के खंजर से उसे गोदा जाने लगा। इग्नोर की पिन से कोंचा जाने लगा। विनोद ने बताया कि वो ऐसा ही है। पर वो ऐसी नहीं था। उसने विनोद के इस बेरुखीपन को आत्मसात किया। उसने अपने ईश्वर औऱ गुरुओ के सामने अहद किया कि वह नहीं बदलेगी। उसका समर्पण, सम्मान, संवेदना और प्रेम विपरीत परिस्थितियो में भी नहीं बदलेगा। जब तक वह जीवित है तब तक।
धीरे धीरे विनोद उससे दूर होता गया। एक खूबसूरत रिश्ता भावनाओ के सूखेपन में कच्चे घर-सा भरभरा कर ढह गया। प्रेम बस दो दिन की ख़ुशी देता है बिना पंखो के उड़ान देता है। तीसरा दिन आते-आते प्रेम में पीड़ा भर जाती है। अब उसका दिल भी पीड़ा से भर गया। आनंद का भाव पीड़ा में बदल गया था। जो पल-पल उसे मार रहा था। अंत में उसने ही हिम्मत जुटा कर उस रिश्ते के मलबे को समेटना चाहा।
“मुझे आपसे बात करनी है कुछ है जो आपसे कहना है। समय मिले तो बात करें मुझे इंतिजार रहेगा आपके फोन का।” उसने तड़पते लहज़े में विनोद से कहा।
वो हर पल उसके ही फोन का इंतिजार करती रही।
लेकिन विनोद के लिए चूँकि अब वो “आम” थी इसलिए न नीयत थी न ही समय निकल पाया उसके लिए।
“कह देगा बहुत व्यस्त रहा है वो आजकल।”
एक रात उसने फिर व्हाट्सएप्प पर दस्तक दी वो सांत्वना के भीगे शब्दों से सरोबार होकर आई थी। पर विनोद उसके लिए अपने शब्द भी खर्च करना नहीं चाहता था। नतीजन संवाद के अभाव में वो हाथ जोड़ कर क्षमा मांग कर निकल गई। उस रात उसने बमुश्किल अपनी रूह की किरचों को समेटा था।
उस रात वह रात भर ईश्वर के सामने ख़डी रही। आँखों से आँसू झरते रहे। आँसू के साथ भीतर का विषाद बूँद बूँद पिघल रहा था। लगा जैसे हर आँसू ईश्वर से उसका साक्षातकार करा रहा हो। उसने अपनी दोनों बाहें फैला कर ख़ुद को आलिंगनबद्ध किया। आँसू थम चुके थे औऱ निर्मल -सी ठंडक उसके दिल को महसूस हुई। अब वो शांत थी भीतर बहुत कुछ धुल गया था।
अगले दिन सुबह विनोद ने उसे फोन किया। स्क्रीन पर विनोद का नंबर देखकर उसे अच्छा- बुरा कुछ महसूस नहीं हुआ। विनोद का होना न होना अब उसके लिए बेमानी था। उसने रात ईश्वर को पा लिया था जिसके आगे अब सब गौण था। उसने फोन उठाया औऱ विनोद को अपने फोन और अपनी ज़िन्दगी दोनों से ब्लॉक कर दिया।
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3 टिप्पणी

  1. आपकी लघुकथा पढ़ी तबस्सुम जी!आभासी दुनिया का सबसे अधिक तंगदिल खेल है जिसे आपने अपनी लघुकथा में बताने का प्रयास किया है।
    पुरुष इस खेल को खेलते हैं और स्त्रियाँ उसमें सिर्फ एक पाँसे की तरह इस्तेमाल होती हैं।अंत में जिसे वे सबसे बड़ा सच समझती हैं वही झूठ निकलता है। सिवाय मृग मरीचिका के यह कुछ नहीं। हर कदम पर सावधानी अपेक्षित है।
    बेहद सकारात्मक लघुकथा है यह,जो स्त्रियों को सतर्कता और सावधानी का संकेत देती है।
    अंत बहुत सकारात्मक रहा। देर आयद दुरुस्त आयद। टाइप। सही निर्णय जीवन को सार्थक बना देता है।
    बेहतरीन लघुकथा के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

  2. बहुत शुक्रिया नीलिमा जी इस सार्थक टिप्पणी के लिए। स्नेह बना रहे आपका

  3. स्त्रियाँ अक्सर भावुक होती हैं और रिश्तों को बहुत महत्व देती हैं चाहे वो आभासी ही क्यूँ न हों और यहीं मात खाती हैं। लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि पुरुष अधिकतर रिश्तों में अपना फ़ायदा देखते हैं।

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