‘क्या ये सपना है?’ आनंद ने सोचा। द्वार के बाहर मरीजों की लम्बी-लम्बी पंक्तियां लगी थी। आनंद एक-एक कर मरीजों को देख रहा था। उसकी ऩजर बाहर पंक्ति में खड़ी एक अधेड़ आयु की महिला पर पड़ी। वह सपना जैसी दिखाई दे रही थी। उसकी गोद में एक बच्चा था। सपना! सपना वह जिसे आनंद प्रेम करता था। शायद अभी भी करता है। एमबीबीएस की ड्रिग्री लेकर आनंद प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहा था। उसने सपना को अपने जीवनसाथी के रूप चून लिया। आनंद का परिवार रजामंद था।

सपना पढ़ी-लिखी और खुबसूरत युवती थी। जिससे कोई भी अविवाहित विवाह करना चाहेगा। सपना को आनंद से विवाह मंजूर न था। वह विवेक के प्रेम में थी। और उसी से विवाह करना चाहती थी। सपना के परिवार वालों को आनंद पसंद था जबकी विवेक अप्रिय। किन्तु जब सपना ने विवेक से विवाह करने का दबाव बनाया तब सपना को परिवार की और से सख़्त हिदायत मिली। यदि सपना ने परिवार की ईच्छानुसार विवाह नहीं किया तब उसका अपने परिवार से सभी तरह का संबंध खत्म हो जायेगें। सपना पर प्रेम का भूत संवार था। उसने अपने माता-पिता की इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। विवेक कॅरियर के लिये संघर्ष कर रहा था। इसलिए सपना को उसने आनंद  से विवाह करने के लिए मना लिया। उसका तर्क था कि जैसे ही उसे व्यवस्थित नौकरी उसे मिल जायेगी वह सपना से विवाह कर लेगा।

“तुम्हारे मन में क्या है? मुझसे कहो।” आनंद ने पुछा। आनंद की विवाहिता सपना अपने रूखे व्यवहार के लिये ससुराल में चर्चा का विषय बनी हुई थी। आनंद से विवाह  के छः माह बाद ही उसका धीरज जवाब दे गया।

“आनंद! मैं गर्भ से हूं। विवेक इस बच्चें का पिता है।” सपना ने कहा। ये आनंद ही था जो इस वज्रपात को सह गया। वह धैर्य पुर्व मंथन कर रहा था। वह विवेक से भी मिला। विवेक अब भी सपना को स्वीकारने को तैयार था। बस फिर क्या था। आनंद ने सपना को तलाक देने का प्रस्ताव दिया। जिसे सपना ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अब सपना, विवेक के साथ थी। वह प्रसन्नचित होने का भरसक प्रयास कर रही थी। सपना ने मायके से मदद मांगी लेकिन उसके लिए सब दरवाजे बंद हो चूके थे। विवेक अवश्य सपना को प्रेमानंदित करने का प्रयास करता किन्तु मात्र प्रेम के आधार पर जीवन चल पाना कठिन था।

विवेक पुनः बेरोजगार हो चला था। नौकरी छुटते ही घर की माली हालत खराब हो गयी। तन्वी के जन्म के बाद और भी बुरी परिस्थितियों से सपना गुजर रही थी। पति-पत्नि के छोटे-छोटे झगड़ों ने विकराल रूप ले लिया था। विवेक अब सपना पर हाथ भी उठाने लगा था। सपना भी कम न थी। ईंट का जवाब वह पत्थर से देती। बेटी को गोद में लेकर वह काम ढूंढने निकल जाती। किन्तु सिवाये झाडु-बर्तन के उसे अन्य कोई काम नहीं मिला। जैसे-तैसे वह गुजर बसर करने पर विवश थी। उसका असफल प्रेम कहीं उसके लिए घोर अपमान का कारण न बने यह सोच कर सपना गृह जिले से अन्य शहर आ गई। यही एक कमरा किराये पर लिया। तन्वी कुपोषण की चपेट में थी। सरकारी अस्पतालों के चक्कर काट-काटकर सपना सूख के कांटा हो गयी। बाल बिखरे हुये, मैली-कुचैली साड़ी बेतरतीब पहने हुई सपना आनंद का पीछा नहीं छोड़ रही थी।

“क्या सपना मिल गयी?” आनंद की सहकर्मी डाॅक्टर आशा ने पुछा।

“हां! वह यही है। इसी शहर में।” आनंद ने कहा। आनंद के चेहरे पर प्रसन्नता देखकर आशा समझ गई। आनंद सपना से कितना प्रेम करता है ये आशा जानती थी। सपना के विषय में सब कुछ जानते हुये भी आशा ने आनंद को अपना भावी जीवनसाथी बनाना तय किया था। दोनों के परिवार इस विवाह की तैयारीयों में लगे थे। किन्तु आशा के व्यवहार में आये आश्चर्यचकित परिवर्तन देखकर सभी हतप्रद थे। सपना के बेटी के उपचार में दिन-रात एक देने वाला आनंद अब भी सपना को स्वीकार करने को तैयार था। यह सपना भी भलि-भांति जानती थी कि आनंद उसे अब तक नहीं भुला है। वह अपने उस निर्णय पर शर्मिंदा थी जिसने उसे आनंद जैसे सुयोग्य वर से दूर कर दिया। वह आशा से भी मिली, जो आनंद से असीम प्रेम करती थी।

आनंद सर्वाथा आशा के योग्य था। वह दोनों के बीच आना नहीं चाहती थी। इसलिए उसने जो निर्णय लिया वह अपने आप में कठोरतम था। उसने विवेक को पुनः अपना लिया। तन्वी अब ठीक थी। सो उसने तन्वी का भविष्य बनाने के लिये पुर्ण ऊर्जा से कामकाजी महिला बनना स्वीकार किया। तन्वी के लिए विवेक के हृदय में पितृत्व जागा। उसने न केवल बुरी संगत से तौबा की अपितु आनंद से बैर भाव त्यागकर सद्ममार्ग पर चलने का निश्चय किया। आनंद यह देखकर प्रसन्न था। उसने सबके सामने आशा से कहा-“वील यू मेरी मी?” आशा को जैसे सब कुछ मिल गया हो। वह दौड़कर आनंद से लिपट गई। दोनों ने जल्द ही विवाह कर लिया।

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