“चलो, हम लोक कलाकारों की ऊँट गाड़ी से निकल चलते हैं, जो शहर जा रहे हैं। स्टेशन की ओर जाती कोई सवारी दिखी तो कर लेंगे। हमारी मेजबान दोस्त का ‘अभी भिजवाती हूँ’ का रिकॉर्ड फँसा है, हमारी ट्रेन न छूट जाए।”
ऊँट गाड़ी पर बैठ दोनों मध्य वयस सहेलियाँ मन हल्का करने लगीं।
“लेखा बीते दिनों की दोस्ती का हवाला न देती तो हम शहर से दूर स्थित इस क्षेत्र में न आते। ट्रेन छूटी तो बुरे फँसेंगे।”
दोनों का मन बड़ा उचाट सा था।
“इनदिनों शादियाँ मानवीय संवेदनाएँ समेटे सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठान कम, शादी-पूर्व और शादी-उपरांत शूटिंग अधिक हो गई हैं। लुक्स, ड्रेस, मेकअप, सेल्फी, सारे इन्हीं में व्यस्त रहते हैं।”
“सच कहा! वर-वधू की माताएँ मेकअप की मोटी परतें ओढ़े उनकी बहन दिखने को आतुर! माँ-माँ दिखें और दादी-दादी दिखें, उम्र की गरिमा दिख जाए तो आफत तो नहीं आ जाएगी?”
“विवाह दूल्हा-दुल्हन का दिन है। सर्वश्रेष्ठ दिखने का उनका मौका है और दस्तूर भी। अन्य जन समारोह का निरीक्षण कर व्यवस्था टंच रखें। पर नहीं!”
“सच है, शादियों में फूफा, दामाद, समधी, मेहमानों से अधिक पेशेवर, जैसे मेकअप आर्टिस्ट, कोरियोग्राफर, डीजे, इंटीरियर डेकोरेटर, कैमरामैन, वीडियोग्राफर मुख्य अतिथि बने फिरते हैं। मीडिया, सोशल मीडिया योग्य वही शूट करके देते हैं, भई! उपेक्षित मेहमान विचारता है, ‘हमें बुलाया क्यों?’ नेपथ्य भरने के लिए?”
“मेहमान भूखे लौट जाएँ, कोई नहीं। आवश्यक रस्में संक्षिप्त हों, चलेगा। बस दूल्हा-दुल्हन संग दोनों पक्षों की तस्वीरें शानदार हों। कृत्रिम चमक-दमक, ओढ़ी मुस्कान और बेदिल मेहमाननवाज़ी शेष रह गई है।”
“हूँऽऽ! दिन नहीं बहुरेंगे, शायद?”
तभी गाड़ीवान के पुकारने से तारतम्य टूटा, “बाईसा! यहीं से स्टेशन के लिए बस पकड़ लो।”
“भैया! आभार आपका।”
कुछ पैसे देने चाहे पर मना कर दिया, “बातें सुन रहा था। आपलोग क्षेत्र के मेहमान हो। मन का मलाल त्याग, कुशल मंगल घर पहुँचें। यही दुआ करूँगा।”