कोरोना ने बहुत सी जिंदगियों को कड़वे घूँट पिला कर मानवता, रिश्ते , प्रेम और विश्वास के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
रुटीन चैकअप के लिए सोनू हमेशा सैम्पल लेने के लिए आता था । हर पाँच महीने में बुलाते थे और इस कोरोना काल में भी उसको बुलाया गया। वह एक डॉक्टर के क्लीनिक में काम करता आ रहा था । वर्षों से और फिर क्लीनिक से नर्सिंग होम, पैथालॉजी सेंटर में विस्तार होता गया ।
वह पूर्ववत् ईमानदारी से काम कर रहा था बल्कि संघर्ष काल से इतनी ऊँचाइयों तक पहुँचने का एक मात्र साक्षी था। तभी शुरू हुआ कोरोना का कहर और तबलीगियों के साथ वह भी शक के घेरे में। आ गया । एक दिन सोनू को ये कहकर रोका गया कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है । काम कम हो रहा है।
उसे उम्मीद थी कि जल्दी बुला लिया जायेगा लेकिन धक्का तब लगा जब दूर से आने वाले कर्मियों को बराबर बुलाया जा रहा था । वह इसके लिए भी बात करने गया कि पन्द्रह दिन ही ड्यूटी दे दी जाय लेकिन एकदम मना।
वह साढ़े तीन महीने घर पर रहकर पूँजी खाता रहा और एक दिन उसे दूसरी पैथोलॉजी लैब में नौकरी मिल गयी ।
पुराने डॉक्टर साहब ने कोरोना के लिए एक ब्रांच खोली और विश्वसनीय आदमी खोज रहे थे तो एक दिन सोनू को बुलाया और वापस आने को कहा – मनमाने वेतन पर क्योंकि इस बीच कई चूना लगा कर निकल लिए थे ।
“हाँ तो सोनू क्या सोचा?”
“सर मैं सोनू नहीं बल्कि अख्तर हूँ , सोनू तो कोरोना की भेंट चढ़ गया । ये अख़्तर इंसान पहचानना सीख गया है।”
शानदार लघुकथा ………आज के समय का कटु यथार्थ रखती है. बधाई रेखा जी