Friday, October 11, 2024
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हरदीप सबरवाल की लघुकथा – अपने अपने भ्रमण

यूं दिन तो था किसी बुजुर्ग की अंतिम अरदास और भोग का, पर अलग-अलग शहरों में बसे उन ममेरे, मौसेरे भाई बहनों के वर्षों बाद मिलने का भी मौका या उत्सव था, ज्यादातर सब एक दूसरे से कटे हुए, या यदा कदा फोन पर बात हो जाती, रस्म अदायगी के बाद सब में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। घूमने फिरने के शौकीन एक ने अपने अलग-अलग जगह पर घूमने के अपने अनुभव बताए और कहा, “दुनिया देखनी जरूरी है भाई, कल भगवान के पास वापिस जाएंगे, और वो पूछेंगे कि दुनिया में क्या देख कर आया तो बताना तो पड़ेगा ही कुछ”
सब हंस पड़े और बारी-बारी अपने भ्रमण अनुभव बताने लगे, उन्हीं में से एक वो थी, जो बरसो बाद घर से निकली थी, पति और ससुराल वालों से त्रस्त जैसे तैसे जीवन काट रही थी, उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी बारी आ गई और सब उसकी तरफ देखने लगे, एक दम से जोर से हंसते हुए वह बोली, “ मैं भगवान से कहूंगी कि मैं देख कर अाई , रसोई, कड़छी, कड़ाही और ढेर सारे बर्तन” , और फिर से हंस दी, सबके चेहरे पर फीकी पड़ती मुस्कान विषयांतर का इंतजार कर रही थी…….
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