Friday, October 11, 2024
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उषा साहू की लघुकथा – हे भगवान!!

“मनुआ अरे ओ मनुआ, चल उठ, गाँव की तरफ निकलना है । अपना दाना–पानी उठ गया रे यहाँ से….” बोलते बोलते उनकी ही आवाज भर्रा गई । ये श्याम भाई साहब की आवाज थी, जो  इस महानगरी में हम सब के गुरु, बड़े भाई साहब, रक्षक कुछ भी कह लो, बस यही थे । वे करुणा भरी आवाज में बोले, “भयंकर बीमारी की वजह से हम सभी की नौकरी चली गई है, अब हम गाँव का रुख करेंगे” और उन्होने साफे में मुँह छिपा लिया, ताकि कोई उनकी आँसू भरी आँखें देख न सके।
मनुआ अनमने मन से उठा, आवश्यक कागजात संभाले और सबके साथ निकल पड़ा । गिरते – पड़ते, भूखे प्यासे, कभी पैदल, कभी सरकारी बस में, कहीं ट्रक में, किसी ने लिफ्ट दे दी । इस तरह फटे हाल, मनुआ गाँव तक पहुँच ही गया । वे  9 लोग  साथ में निकले थे । रास्ते में कौन किधर चला गया पता ही नहीं चला।
गांव पहुंचते ही देखा, हर घर से रोने- विलखने की आवाजें आ रही थीं । बिना जांच करवाए किसी को गाँव में घुसने की अनुमति नहीं थी । मनुआ तो गाँव के और आसपास के चप्पे चप्पे से परिचित था । छुपते-छुपते घर पहुँच  ही गया और हल्के से कुंडी खटखटाई। उसके पिता मांगीलाल लालटेन लेकर बाहर आए और गरजते हुये बोले, “कौन है इतनी रात को, अरे मनुआ तू, इतनी रात को, … डाक्टर से जांच कारवाई की नहीं…..”  “नहीं बाबा,  वह तो नहीं कारवाई” । “तो जा यहां से, पहले जांच करवा कर आ । 14 दिन बाद ही घर में आना”  पीछे से उसकी माँ बेवश आँखों से उसे देख रही थीं । उसकी पत्नी शकुन खिड़की से झांक रही थी । जैसे ही मनुआ से  नजर टकराई तो उसने झट से खिड़की बंद कर दी ।
मनुआ सिर थामकर  बीच सड़क पर बैठ गया । बाबा ने कितने लाड़ से मनोहर  नाम  रखा था, जो अब सिर्फ मनुआ रह गया । पत्नी शकुन को कितना प्यार किया । सारे उपहार देने के बाद, शहर जाते  समय, सबसे छिपाकर,  उसे बहुत सारे नकद रुपए देकर आता था ताकि वह किसी तरह से परेशान न हो ।
उसे याद आया, फेक्ट्री में उसके हाथ का एक्सीडेंट हो गया था, जिसके इलाज के लिए सेठ ने उसे पचास हजार रुपए दिये थे । वह उसने पूरे के पूरे अपने पिताजी के पास भेज दिये थे, ताकि वे अपना मकान पक्का बनवा लें । खुद का इलाज उसने सरकारी दवाखाने में करवा लिया था।
मनुआ उठा, निरुद्देश चलने लगा । उसे पता ही नहीं था, वह कहाँ जा रहा है । चलते – चलते होश आया तो उसने देखा, वह  शमशान में पहुँच गया । वहाँ का डोम* कोठरी से निकलकर बाहर आया और बोला, “क्या बात है भाई, इतनी रात को मुर्दा जलाने की अनुमति नहीं है”  मनुआ एकदम हताशा भरी आवाज़ में बोला, “नहीं नहीं, मुर्दा नहीं, आज तो मैं स्वयं को जलाने आया हूँ” । डोम ने टॉर्च जलाकर, पहले तो उसे ऊपर से नीचे तक अनुभवी आँखों से देखा, फिर प्यार से बोला, “बहुत परेशान लग रहे हो, थके हुये भी हो, क्या बात है, मुझे बताओ” । डोम की हमदर्दी भरी बातें सुनकर वह ज़ोर – जोर से रोने लगा और रो रो कर सारा किस्सा डोम को बता दिया । “शांत हो जाओ शांत हो जाओ भाई, तुम जब तक चाहो यहा रह सकते हो । यहां कोई चेक करने नहीं आता । मैं अपनी दो रोटी सेंकता हूँ तुम्हारी भी सेंक दूंगा” । मनुआ समझ नहीं पा रहा था कि उसे देखूँ या उसकी बाते सुनूँ । जिस डोम के हाथ का कोई पानी तक नहीं पीता, वही आज एक भगवान के रूप में उसके सामने खड़ा था ।
फिर डोम बोला, “थोड़े दिन बाद गाँव के हालत देखकर, मैं तुम्हारे लिए कोई न कोई रास्ता निकाल दूंगा। तुम चिंता मत करो”
मनोहर के मुंह से सिर्फ एक ही शब्द निकला “हे ! भगवान”
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