अभिषेक अगले कुछ दिन शॉक की हालत में रहा . लगा जैसे सभी स्वजन बिछड़ गए हैं और वह नितांत अनजान जगह पर आ गया है . बेहद अकेला,बिलकुल निस्सहाय. शची को समझाते समझाते थक गया था कि ज़िन्दगी चाहे चार पल की हो या एक सदी की,वह शची के साथ ही गुजारना चाहता है. हो सकता है,सब कुछ ठीक हो जाए. मेडिकल साइंस में रोज इतने नए प्रयोग हो रहें हैं…हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए
पर शची, हर बार एक लम्बा सा लेक्चर दे डालती, ” अभिषेक ! तुम अभी भावनाओं के ज्वार से उबर  नहीं पा रहे हो.व्यावहारिक बनो. यथार्थ के धरातल पर उतर कर सोचो. ऐसा ना हो अभी जोश में लिया गया निर्णय ,होश आने पर गलत साबित हो.तटस्थ  होकर सोचो,इस विषय पर. “
 या कभी हंसी का पुट लिए बींध  देती,” अभिषेक ! कितनी ही गरीब लडकियां दहेज़ का शिकार हो रही हैं. उन्हीं में से किसी का उद्धार करो,ना. अपनी तरफ से कोई कुर्बानी भी नहीं दोगे और  आराम से स्वर्ग में भी रिजर्वेशन हो जायेगा. मैं भी एक शानदार आर्टिकल लिखूंगी.” एक बड़े उद्योगपति के इकलौते सुपुत्र ने किया एक गरीब कन्या का उद्धार ” तुम्हारी उदारता के किस्से बच्चे बच्चे की  जुबान पर चढ़ जाएंगे  गली-गली में गूँज उठेगा नाम तुम्हारा.” तिलमिला कर रह जाता अभिषेक .
 शची की इस भूल जाओ की रट से खासा परेशान हो उठा था वह .समझ में नहीं आता कैसे इस लड़की को  राह पर लाये. जीना मुश्किल कर दिया था,शची की इस जिद ने.
आखिर एक दिन बरस ही पड़ा अभिषेक , ” जब तुम्हे पता था कि तुम इतनी भयावह बीमारी से पीड़ित हो तो क्यूँ आगे बढ़ी ? क्यूँ इस राह पर कदम रखा ? खुद लौट तो गयी बड़े आराम से पर मुझे खाई में धकेल कर. और खुश हो तुम,क्यूँ नहीं होगी ,आदिम प्रवृत्ति तो सबमे होती है. क्रूर सुख  मिलता है, किसी को यूँ तिल तिल जलाकर. बोलो मेरी बेचैनी का हजारवां भाग भी छू  गया है  तुम्हे ?”
शची एकटक देखती रही उसे. और जोरों से भड़क उठा, “हाँ क्या बोलोगी…अब कहाँ गए वो लम्बे लम्बे लेक्चर…वो फिलौस्फर किस्म की  बातें. वो देवी बनने का ढोंग.,..हमेशा ऊँचे रहने का दिखावा. यथार्थ की  एक चोट पड़ी नहीं कि सब निष्प्रभ . बीच में कितनी आत्मीयता जताई तुमने. कितना प्यार दिखाया. कहाँ गए वो सब कहे शब्द तुम्हारे….कोई मैजिशियन तो नहीं मैं कि तुम्हे हिप्नोटाईज  करके तुम्हे अपने करीब ले आया था. क्यूँ भूल गयी, उस समय कि तुम्हे रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़ है. कि ये क्षेत्र तुम्हारा नहीं.”
शची, बिना पलकें झपकाए , मुहँ खोले, इतनी आहत दृष्टि से देख रही थी उसे कि अचानक ब्रेक लग गया अभिषेक के शब्दों को . शची के चेहरे पर इतने सारे भाव आ जा रहे थे कि उन सबका स्पंदन उसके ह्रदय में भी हो रहा था या नहीं कहना मुश्किल था. इतना असहाय,इतना कातर ,इतना आहत रूप उसने नहीं देखा था शची का. सहा नहीं गया उसका इतना कमजोर और लाचार रूप. ऐसी दहशत भरी डरी डरी नज़रें थी उसकी जैसे किसी मासूम बच्चे की होती हैं,पीटे जाने की आशंका से.
शची sssss ….” शायद थर्रा गयी अभिषेक की आवाज़. जिसने शची की हिम जड़ता को भी पिघला दिया.
उसके घुटनों पर सर रख,बेसंभाल हो फफक पड़ी, “मत करो यह सवाल,अभिषेक .मत पूछो मुझसे यह सब. इतनी बार पूछ चुकी हूँ खुद से कि कहीं अर्थ ही ना खो जाए ,इनका. चौबीसों घंटे किसी विशाल बजर सा यह  सब बजता रहा है ,मन मस्तिष्क पर. आखिर क्यूँ मैं आगे बढ़ी ? क्यूँ नहीं उसके भी आगे का सोचा ? क्या हक पहुँचता था मुझे किसी को यूँ परेशान कर डालने का? क्यूँ आँखें मूँद लीं मैंने ? क्यूँ नहीं देखा किस लायक हूँ मैं ? किसी गर्म हथौड़े सा दिलोदिमाग पर निरंतर चोट करती रहती है ये बातें .अब तुम भी यह सब मत पूछो…जो सजा देनी हो दो पर यह सब कह कह कर मत बीन्धो मुझे….आई केन  नॉट  बियर  अभिषेक..केन नॉट  बियर.” हिचकियाँ तेज हो गयीं और आगे बोलने की उसकी सिसकियों ने इजाज़त नहीं दी.
अभिषेक वैसे ही हाथ पीछे टेके बैठा रहा. मन बेहद विचलित हो उठा. क्यूँ इस तरह होश खो बैठा. जो मुहँ में आया बोलता चला गया. क्या क्या ना कह डाला. इन सबमे भला, शची का क्या दोष ? उसने ही तो इस तरह विवश कर दिया,उसे. शची की जगह कोई संत भी होते तो क्या उसके इतना बाँध पाते अपने मन को. कितनी चोट पहुंची होगी शची को ,उसकी एक एक हिचकी बता रही थी. जो पिघले शीशे की तरह पड़ रही थी, अभिषेक के कानों में. किसी तरह अपने को समेट कुछ कहना चाहा. पर कहे तो क्या कहे. शची ,तूने तो सारे रास्ते ही बंद कर रखे हैं. कैसी सांत्वना दे, कौन सा दिलासा दे तुम्हे ? क्या कहकर हिम्मत बंधाये  तुम्हे ? हमेशा  मजबूत बने रहने की कोशिश में तुमने दुख दर्द बांटना  जाना ही नहीं. शची की इतनी कातर छटपटाहट देख,मन भर आया. पर शब्द सूझ नहीं रहे थे. वैसे ही  छोड़ दिया उसे. शायद अश्कों  के रूप में कुछ पीड़ा बह सके, कुछ भार हल्का  हो शची के मन का.
आंसू थमे तो चेहरा उठाया शची ने. काले काले बादलों के छा जाने से हल्का सा अँधेरा   घिर आया था. उस अँधेरे में शची की लाल लाल आँखें और आंसुओं से सना चेहरा एक अजीब ही रहस्यमय सा दृश्य उपस्थित कर रहे थे.
सामने खाली खाली नज़रों से देखती शची बोलती रही. जैसे मीलों  दूर से आवाज़ आ रही हो,उसकी. “अभिषेक ईश्वर गवाह है. कौन सी कोशिश  नहीं कि मैंने तुमसे दूर रहने की. बहुत पहले ही तुम्हारा मनोभाव जान लिया था मैंने,शायद तब तक तुम्हे भी अपने मन की खबर नहीं थी. और अवोइड करती रही तुम्हे. लेकिन शायद गलत ही  किया. इस उपेक्षा ने और भी ध्यान खींचा तुम्हारा. लेकिन इसके सिवा मैं और क्या कर सकती थी. तुम्हारा विवश क्रोध से अपमानित चेहरा झिंझोड़ डालता मुझे. फिर भी कोई कमजोरी नहीं आने दी मन में. हर बार सख्ती से होंठ भींच, आवेगों को कुचल डाला मैंने. पर पता नहीं उस दिन कॉमन रूम में कैसे कमजोर पड़ गयी. कैसे तुम्हारा प्यार स्वीकार कर लिया.  विश्वास नहीं दिला सकती तुम्हे, उस एक पल के लिए कितना धिक्कारा खुद को. रोज निश्चय करके आती, आज देखूंगी भी नहीं तुम्हारी तरफ. ऐसा करारा जबाब दूंगी किसी बात का कि तिलमिला कर रह जाओ तुम. लेकिन क्या करूँ,विवश हो गयी,अभिषेक…तुम्हारे सामने आते ही सारे निश्चय पानी के बगूलों से फूट पड़ते. तुम्हें आहत देख कितना दुख  होता था लेकिन हर बार सख्ती से रोक लिया खुद को.पर हूँतो आखिर मनुष्य ही ना. भावनाओं के लपेट में आ ही गयी.. ऐसा क्यूँ होता है, अभिषेक ? शरीर तो हमलोगों का बीमार हो जाता है पर मन को बीमारी छू भी नहीं जाती. उसमे अपेक्षाओं, आशाओं की तरंग वैसे ही उठती रहती है.वह भी सुनहरे ख्वाब बुनने से बाज़ नहीं आता. बड़ी मुश्किल से मस्तिष्क साधे रहता है, उसे पर रस्सी तुड़ा ,भाग निकलता ही है,कभी कभी. अच्छी तरह जानते हुए भी कि यह क्षेत्र मेरा नहीं…यह अनर्थ कर डाला मैंने.
मुझे इतना खुश  देखते  हो,पर खुश रहना जैसे एक आदत सी बन गयी है.दिल से कोई रिश्ता नहीं इसका. कभी ह्रदय, शांत, उत्फुल्ल नहीं रहता.पर सच मानो,जब जब तुमसे बातें की हैं सारे अदृश्य बोझ एकबारगी ही उतर आए हैं. फिर भी घर लौटती तो रातें यही सोचते बीतती, ये क्या कर रही हूँ,मैं? क्यूँ छलावा दे रही हूँ तुम्हे. जिस राह की कोई मंजिल नहीं,क्यूँ उस पर कदम से कदम मिला,बढ़ी चली जा रही हूँ. और फैसला कर लिया,कॉलेज छोड़ दूंगी. काश जिस वक़्त यह ख़याल आया,उसी वक़्त छोड़ दिया होता. पर ख़ुशी चाहे वह झूठी ही हो,अगर सच का आभास दे तो उसे पाने का मोह बहुत दारुण होता है.,अभिषेक. और मैंने सोचा कुछ दिन में कॉलेज बंद हो ही रहा है. छुट्टियों में जाउंगी तो नहीं लौटूंगी और यही सोच सभी बंधन ढीले कर दिए. दृढ मन से सोचा था,किसी को कुछ नहीं बताया. 
पर एक महीने  तुमसे दूर रहकर ऐसा लगा ,वह एक मोहपाश था ,जिसे झटक सकती हूँ.  तोड़ सकती हूँ,सारे बंधन. तुम्हारा भी जो मन मैंने पढ़ा था,यही लगा कि किसी भी चीज़ को बड़ी तीव्रता से आत्मसात करते हो तुम. बहुत तेजी से जुड़ते हो पर मोहभंग होने पर या धक्का लगने पर उतनी ही तेजी से दूर चले जाते हो. दुर्भाग्यवश ऐसा लगा मुझे कि इतने लम्बे अंतराल में तुम्हारी भावनाओं पर बर्फ की  ठंढी चादर पड़ गयी होगी. और उन्हें मेरा व्यवहार और भी सर्द बना देगा. और इन्हीं अटकलों ने मेरा फैसला बदल डाला.मैं क्यूँ चौपट करूँ,अपना कैरियर? व्यस्त रहकर ही तो भूली रहती हूँ सबकुछ. जब सोचने का समय ही समय होगा तो माथे की नसें फट नहीं जाएँगी तड़क कर. और यही सोच लौट  आई और इस बार देर  भी नहीं की बताने में .आते ही बताना चाहा पर सब उलट-पुलट हो गया अभिषेक.मैं क्या करूँ.इतना सोचा है मैंने.इतनी कोशिश  की है तुम्हें इस स्थिति से बचाने की. इस तरह तो आरोप मत लगाओ,मुझपर “….और कहती कहती चुप हो आई थी,शची
अभिषेक वैसे ही दोनों हाथों पर शरीर का बोझ डाले…पीछे हाथ टेके बैठा रहा. मन इतना खाली हो आया था कि शची की स्वीकारोक्तियां  सुन,ना हर्ष हुआ,ना विषाद. ह्रदय सुन्न सा हो गया था,जैसे बस घड़ी  की तरह  टिक टिक करना ही उसकी नियति हो. सुख-दुख-चिंता-कुंठा कुछ भी महसूस करने की कोई क्षमता ना हो. सांत्वना के दो बोल तक नहीं आ सके उसके होठों पर. भावशून्य नज़रों से बस शची की तरफ देखता रहा.
तभी मोटी मोटी बूंदे गिरने लगीं. शची ने उसके हाथों के नीचे पड़ा अपना बैग खींचा तब ध्यान आया उसे. उसी तरह शून्य मस्तिष्क लिए, आगे बढ़ गया. पलट कर देखा , तो शची झुक कर अपनी सैंडल पहन रही थी…कुछ ज्यादा ही समय लगा रही थी,बोला …”चलो भी ”  
अब वह अपने बैग के साथ उलझी हुई थी. खीझ गया अभिषेक , “क्या इरादा है ?”
उसके स्वर में किसी भाव की भनक पा,शची मुस्कुरा दी…बेतरह नटखटपन  कस आया चेहरे पर…बोली, “ भीगने का…एक बार कहा था ना तुमने, फिल्मों में कोशिश  करूँ…तो आज रिहर्सल हो जाए…कौन सा गाना चलेगा?”
इतना तनावग्रस्त होते  हुए भी मुस्करा पड़ा,अभिषेक . निर्निमेष देखता रहा वह शची की तरफ.. कैसी भी सिचुएशन हो, ये लड़की उसे सामान्य बनाने का प्रयास करती रहती है. बेहद प्यार उमड़ आया शची पर और अनायास ही उसके हाथ शची की  तरफ बढ़ गए. उसके इतने स्नेहिल  स्पर्श का शची भी अनादर नहीं कर सकी. और उसकी बाहों में सिमट आई. शची के पास आते ही जैसे अंतर उमड़ पड़ा उसका. शची का हाल भी उस जैसा ही था और इसकी कहानी उसके  हिलते कंधे कह रहे थे. हे ईश्वर ये ,कैसी लड़की चुनी , उसके लिए ,जो तन से तो इतनी कमजोर है पर मन से उतनी ही मजबूत. तभी जोरों की बारिश शुरू हो गयी. शची ने बारिश से बचने को शेड की तरफ जाना चाहा पर अभिषेक ने बाहों के बंधन ढीले नहीं किए . आज रोने दो आसमान को भी उनके साथ. अभिषेक ने अपना चेहरा ऊपर की तरफ उठा दिया.चेहरे पर तड़ तड़ बूंदे पड़ रही थीं और उसके आँखों की बरसात ,आसमान की बरसात के साथ मिलकर एकाकार हो रही  थी.

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