Sunday, October 6, 2024
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रेखा श्रीवास्तव की लघुकथा – उम्रदराज

अपार्टमेंट के बेस्मेंट  में कतार में गाड़ियां खड़ी रहती हैं और उनमें से कुछ तो रोज जाती हैं और कुछ खड़ी हैं – साफ सफाई तो नौकर कर देते हैं लेकिन उनको निकलने का मौका नहीं मिलता है। सुबह हुई और सफेद गाड़ी का मालिक आया और ड्राइवर ने गाड़ी निकली साहब बैठ कर चले गए
नीली गाड़ी बगल में खड़ी पीली गाड़ी से बोली – “बहन क्या हमारे भी भाग्य खुलेंगे ? एक जगह खड़े खड़े तो सारे कल पुर्जे जाम हो गए हैं।
“क्या पता बहन ? हमारा जीवन इतने ही दिनों के सफर का हो ?” पीली दार्शनिक सी बोल पड़ी
“अब तो घुटन होने लगी है , इस पार्किंग में बंद हुए दो वर्ष हो गए। ” नीली बोली
“वो तो है बहन हम ही जब से मालिक को फालिज मारा है , ऐसे ही खड़े हैं।  वह थे तो साफ सफाई भी कर देते थे।” पीली का दर्द भी कम न था।
“देख बहन समय की बलिहारी है, हम नए फैशन के थे तो हमें भी खूब चमका कर रखा गया।  मालिक खुद ही चलाते थे और फिर साफ करके ही खड़ा करते थे।  मजाल है कि धूल का एक कण भी कहीं दिख जाए। ” नीली की आखें पुराने समय को याद कर चमकने लगी।
“समय के साथ साथ बड़ी बड़ी चीजें धूल से ढक जाती है , इससे अच्छा तो हमें भी वृद्धाश्रम में भेज दें।” “
“क्या कहा बहन ?”
“और क्या ? मालिक बूढ़े हो गए और घर से बाहर उन्हें वृद्धाश्रम में भेज दिया , किसी काम के न थे और पैसा तो था ही , कौन सी कमी है।”
“इससे क्या होगा ?”
“अरे कम से कम इस जेल से  निकल कर वहां खुले में खड़े होंगे , साँस तो आएगी और क्या पता नया जन्म ही मिल जाए।”
“मतलब!”
“अरी बहन , हमें पता है कि मालिक को वहाँ जा कर नया जन्म मिला है , अपने उम्र वालों के साथ कितने खुश रहते हैं ? वैसे ही हम भी अपने और सखी सहेलियों के साथ रहकर ज्यादा खुश रहेंगे।”
गहरी सांस लेते हुए  नीली बोली – “हम भी अपनी जिंदगी जी लेंगे। “
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