“अच्छी तरह सजाना मीनू, कोई कसर न रह जाए।” माँ ने दुलार से रूपा की ठुड्डी को पकड़कर चूम लिया ।
“हाँ हाँ सब हो गया, बस ये लास्ट है माँ, बिंदी!। हमारे शुभम बन्ना तो बस फिट फटांग हो जाएंगे।”
मीनू ने ननद को छेड़ा।
“अरे भाभी! अब बस भी करो।”
रूपा ने बिंदी को माथे से हटाकर स्वयं को निहारा।
“आहा! कितना ब्लश कर रही है तू। और ये बिंदी लगा भाई। आज ब्याह है तेरा।”
“हाँ भाभी मगर देखो न बगैर बिंदी के स्मार्ट वाला लुक आ रहा है न।”
“चल, बड़ी आई स्मार्ट वाली, माँ ने प्यार की घुड़की लगाई।
बाहर बारात आने का शोर हो रहा था।
“माँ चलिए आपकी भी साड़ी ठीक कर दूँ ।” कहते हुए मीनू सास की तरफ बढ़ी।
इधर रूपा अपने रूप को आईने में निहारती लाज से भरी मुस्कान से भर गई थी।
पिछले साल घर वालों की ज़िद से सगाई के लिए मुश्किल से राजी हुई थी रूपा। आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए कुछ और साल की मोहलत नहीं मिली थी। मगर शुभम ने सगाई होते ही रूपा को एल एल बी में दाखिला दिलवा कर रूपा के दिल पर कब्जा जमाने की शुरुआत कर दी थी।
इस एक वर्ष में शुभम कब रूपा की आदत बन गया उसे पता ही नहीं चला ।
मंडप में भी रूपा और शुभम हँसने बतियाने में इतने मशगूल हो गए कि रूपा के भाई विवेक को टहोकना पड़ा।
विवाह संपन्न हो चुका था। विदाई के समय का माहौल ही बेहद ग़मज़दा होता है। ऐसे समय में भी शुभम ने रूपा का हाथ पकड़ रखा था। रूपा को शुभम का यह बेबाक संबल विदाई से अधिक भावुक कर रहा था।
विवेक ने कार तक बैठाते बैठाते कहा
“सुन शुभम सीधे सरल व्यक्ति हैं, अपनी भाभी की तरह अत्याचार मत करना।”
रोते हुए भी रूपा के साथ मीनू को भी हँसी आ गई।
सबसे विदा होकर वो ससुराल पहुँच गई।
दरवाजे पर ही कुछ औरतों ने रूपा का घूंघट और नीचे खींचा। और आपस में कहने लगीं कि आजकल की छोरियां तो बस एक दिन भी घूंघट नहीं रख सकतीं।
रूपा मन मसोस कर रह गई।
कार से उतारे जाने के बाद स्वागत की सभी रस्में दूर के रिश्ते की चाची निभा रही थीं। मगर शुभम अपनी माँ सरिता के बगैर कुछ करने को राजी न था।
जब वो रूपा का हाथ पकड़कर बगैर रस्मों के ही अंदर आने लगा तो मजबूरी में सरिता को बाहर आकर आरती की थाली लेनी पड़ी।
रूपा को शुभम का हर रूप मन भावन लग रहा था।
और माँ के परछन करने से रूपा के मन में शुभम का मान और बढ़ गया था।
शुभभ बार बार बहाने से उस कक्ष में आ जाता जहाँ रूपा को बैठाया गया था। वह लाज को अपने घूंघट की तरह संभाले थी। वर्ना शुभम की आवाजाही और शरारतों ने उसे भी बेचैन कर रखा था।
बार बार औरतें आतीं, उसका घूंघट उठाकर चेहरा देखतीं और शगुन उसके हाथ में थमा जातीं।
सांझ की बेला के पश्चात् वो पल भी आ गया जिसका दोनों को बेसब्री से इन्तज़ार था।
रूपा को शुभम के शयन कक्ष में बैठा दिया गया था।
शुभम के इन्तज़ार में बैठी रूपा ने सबके जाने के बाद जल्दी से दरवाज़ा बंद कर लिया। और साथ लगे बाथरूम में जाकर बाल भिगोकर जीभर के शाॅवर लिया।
दिन भर की थकन से मुक्त होते हुए। उसने काले रंग का एक खूबसूरत सा नाईट गाउन पहना और बिस्तर पर रखे तकिया को अपनी चूनर ओढ़ा कर दरवाजे के पीछे खड़ी हो गई।
दरवाजा खुला छोड़ कर कुछ देर साँस रोके खड़ी रही।
कुछ औरतों का स्वर उभरा।
“ऐसे नहीं जाने देंगे देवर जी, पहले कुछ नेग नेछू तो देते जाओ।”
“अरे भाभी मुझे क्या पता था कि अभी भी जेब ढीली करनी है।” शुभम का स्वर रूपा के कान में पड़ा।
“अरे बन्ना जेब तो अब जीवन भर ढीली करनी है।” सभी ठठाकर हँस पड़ीं।
“अरे ये क्या दुल्हन तो सो रही है!?।”
“जरा देखो तो।”
इतना सुन रूपा घबरा गई। और इस घबराहट में उसके हाथ की चूड़ियाँ चुगलखोर हो गईं।
औरतें खुसर फुसर करने लगीं।
सुहागरात में ही बाल धो लिए?…
आज ही मांग भरी थी आज ही सिंदूर बहा दिया और आज ही ये काला कपड़ा…?
हंगामा सुनकर शुभम की माँ भी आ गईं। और अपराधिनी की तरह खड़ी रूपा को देखा।
“अरे तुम सब जाओ यहाँ से क्यों मेरे बच्चों को परेशान कर रहे हो? चलो भागो।”
सरिता ने डाँट लगाई। सारी महिलाओं को भगा कर सरिता ने रूपा को हिदायत दी।
“सिन्दूर बिन्दी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं बेटी! आज ही नहीं धोना था न!”।
“जी मम्मी! रूपा ने सर झुका कर कहा।
“जाओ अभी लगा लो। और ये काला गाऊन……।”
सरिता ने रूपा का गाल छूकर बस इतना ही कहा।
“ख्याल रखना बेटा।”
अपनी उदासी छुपाते हुए सरिता ने शुभम से कहा, और बेटे के
सर पर हाथ फेरकर चली गई।
माँ के जाने के बाद शुभम ने दरवाजा बंद कर लिया।
रूपा का मन भी उदास हो गया था।
“रूप!”
शुभम ने पुकारा।
“हम्म!”
रूपा ने अनमने ढंग से कहा।
“तुम्म!” शुभम मुस्कुरा कर बोला।
“और शबाना।” रूपा भी मुस्कुराई।
शुभम ने बाँहें फैलाईं।
“हम चैट पर ही भले थे।”
कहकर रूपा ने शरारत से शुभम को देखा और खिलखिला पड़ी।
शुभम ने भी जोर का ठहाका लगाया।
रूपा ने शुभभ के मुँह पर हाथ रख दिया।
“इसीलिए कहती हूँ कि हम चैट पर ही भले थे।”
रूपा की आँखों की चमक ने शुभम को विरोध न करने दिया।
उस रात से दोनों के बीच की बाॅन्डिंग और भी मजबूत हो गई थी।
सुबह किसी के भी जगाने से पहले ही रूपा भर मांग सिन्दूर, चूड़ी बिंदी सोलह श्रृंगार करके तैयार बैठी थी।
सरिता के आने पर उनके पाँव छुए।
शुभम की माँ रूपा के इस रूप पर गदगद होते हुए बलाएं लेने लगीं।
“किसी की नज़र न लगे मेरी लक्ष्मी को, सदा सुहागन रहो।”
इतना कहकर सरिता ने शुभम को झाँका।
“वो नहा रहे हैं।”
रूपा ने शर्माते हुए जवाब दिया।
सरिता मगन होकर चली गईं।
तभी शुभम बाथरूम से बाहर निकल कर रूपा की तरफ बढ़ा।
“सुबह से तुम्हें तैयार कर रहा हूँ। सिखा रहा हूँ । क्रेडिट लेते वक्त मुझे बाथरूम में भगा दिया?।”
“तो और क्या करती। कि ये सब तुमने किया है मने मैं इतना भी नहीं जानती?।”
दरवाजे से सटकर रूपा ने कहा।
“हम्म!”
शुभम उसकी तरफ बढ़ रहा था रूपा और सिमटती जा रही थी।
“सामने से हम्म हम्म करते हो तो लगता है कि भैंसा खड़ा है।”
रूपा शुभम की गिरफ्त से छूटने का प्रयत्न कर रही थी।
मगर शुभम ने उसे और जकड़ते हुए कहा।
“बफ़ेलो किस समझती हो?”
“न्नाः”
रूपा ने बनावटी मासूमियत से आँखें गोल गोल मटकाते हुए कहा।
कहो तो समझा दूं…..!।”
“अरे शुभम बेटा! सरिता की आवाज़ आई।
रूपा ने फिर बड़ी मासूम आवाज़ से कहा “माँ बुला रही बाद में मैं ही समझा दूंगी।”
“हाँ माँ!”
शुभम ने उंगली रूपा की तरफ उठाकर धमकी देते हुए बोला। “देख लूंगा।”
रूपा ने मुँह बिचकाते हुए कहा “हम्म!” और फिस्स से हँस दी।
शुभम ने दरवाजा खोला।
“चल ज़रा स्टेज कैसे सजाना है शाम की पार्टी के लिए देख ले।”
“अच्छा माँ!” शुभम कहकर निकल गया।
“माँ मुझे भी कुछ काम हो तो बताइए।”
माँ तो जैसे रूपा की हर बात पर बलि बलि जा रही थीं।
“अभी नहीं बेटा, तू तो बस दुनिया की सबसे सुन्दर अप्सरा सी तैयार हो जाना।”
रूपा ने शर्माते हुए गर्दन हिला दिया।
शाम को पार्टी में हर कोई रूपा के लिबास और रूप की तारीफ कर रहा था।
रूपा के मायके से मीनू और विवेक भी आए थे। माँ नहीं आ सकीं इसलिए रूपा बार बार माँ को वीडियो काॅल करना चाह रही थी। मगर संकोच में कर नहीं पा रही थी।
“रूपा!, शुभम ने पुकारा।
“अ हाँ ” रूपा ने धीमे स्वर में कहा।
“ये लो।”
शुभम ने फोन रूपा को थमा दिया।
शुभम ने माँ को वीडियो काॅल किया था। रूपा नज़रों ही नज़रों में पति को थैंकफुल होती अपनी माँ से बातें करने लगी।
इस बीच उसे ख्याल न रहा और सर पर रखा पल्लू सरक गया।
कल रात बिंदी प्रकरण पर खुसर फुसर करने वाली महिलाओं में सुगबुगाहट फिर बढ़ गई।
“रूपा! देख तेरे सर से आँचल नीचे आ गया है।”
विवेक की बात पर रूपा वीडियो पर बात करते चिहुँकी। मगर मीनू ने जल्दी से सब संभाल लिया।
बात सरिता के कानों तक भी पहुँची थी। लेकिन उन्होंने अनदेखा कर दिया।
रात में ही मेहमानों के साथ ही रूपा के भाभी भाई भी चले गए थे।
इन सबसे फारिग होकर सरिता रूपा को एक लिफ़ाफ़ा थमाकर बोलीं।
“रूपा! ये तुम दोनों के लिए तोहफ़ा है मेरी तरफ से।”
“अरे वाह माँ! क्या है ये!?”
शुभम ने लिफ़ाफ़ा हाथ में झपटते हुए कहा।
“तुम दोनों के लिए प्लेन का टिकट है। ऊटी का।”
“माँ! तुम्हें इतनी उलझनों में भी याद था।”
शुभम सरप्राईज़ होकर बोला।
“भूल जाती तो तेरे चेहरे की ये रौनक भी तो न देख पाती।”
सरिता भी इमोशनल हो रही थीं।
“हम कहीं नहीं जाएंगे।”
रूपा ने जैसे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया।
“अरे! बट क्यों यार?”
” पिछले साल से पापाजी की बरसी का एक हिस्सा मैं भी हूँ ।”
रूपा ने जैसे नशे से जगाया शुभम को।
“ओ माय गॉड! मैं कैसे भूल गया यार,।”
वह माँ से मुख़ातिब हुआ।
“हम हनीमून पर कभी भी जा सकते हैं न माता जी।”
“हाँ बेटा पर मैंने सोचा विवाह के तुरत बाद यह सब बरसी वगैरह…।”
माँ जैसे कहते कहते रुक सी गईं ।
“अरे माँ अब तेरे एक नहीं दो बच्चे हैं।”
शुभम ने माँ का हाथ थामकर कहा।
सरिता ना दोनों आँखें मूंद ली थीं। जैसे ऐसा करने से समय रुक जाएगा।
कितनी मन्नतें मांगने पर भी ऐसे बेटा बहू नहीं मिलते।
वह बार बार अपने को दिलासा देतीं कि …देर से ही सही मुझे सब सुख मिल रहे हैं।…
रूपा को शादी में अधिक छुट्टियाँ नहीं मिल पाई थीं। क्लासेज़ अगले ही दिन से शुरू थी। शुभम की छुट्टियाँ चल रही थीं और रूपा गैप करना चाहे तो सरिता तो खुश हो जाती थी। मगर शुभम उसे काॅलेज भेज ही देता था।
बरसी के दिन सारी तैयारियां हो चुकी थीं। बस पंडित जी के आने की देर थी।
“माँ कितनी देर है पंडित जी के आने में?” रूपा ने पूछा।
“ट्रैफिक जाम में फँसे हैं अभी फोन पर बताया।” माँ ने दीये में बत्ती डालते हुए कहा।
“वो… माँ मैं दस मिनट के लिए काॅलेज जाना चाहती हूँ, एक असाइनमेंट जमा करके चली आऊंगी माँ, आज लास्ट डेट है… प्लीज़।”
“ऐन वक्त पर चली जाएगी तो मैं अकेली… अच्छा ठीक है जा।”
सरिता ने मन की न करके रूपा को इजाजत दे दी।
“थैंक्यू माँ!।”
रूपा ने सरिता को गले लगाते हुए कहा।
न चाहते हुए भी विवाह के माह भर के भीतर ही बहू का अकेले जाना सरिता को बुरा लग रहा था। मगर शुभम पंडित जी को लाने गया था।
शुभम के पंडित को लेकर आने में खासा समय लग गया और जल्दी जल्दी पूजा की तैयारी आरंभ हो गई।
पंडित जी ने सबके हाथ में पुष्प अक्षत दिया। तब तक रूपा का भी हाथ पीछे से बढ़ा देखकर सरिता को तसल्ली हुई।
रूपा को भी तसल्ली हुई माँ का आश्वस्त चेहरा देखकर।
श्राद्ध की पूजा समाप्त हो चुकी थी। पंडित जी के खाने की तैयारी में सास बहू लगी हुई थीं, कि रूपा के फोन पर मैसेज टोन बजी।
आमतौर पर रूपा को उसका निजी स्पेस देने वाले शुभम ने रूपा का फोन उठा लिया। और देखने लगा। रूपा के फ्रेन्ड्स ग्रुप पर ढेर सारी तस्वीरें थीं, जिसमें रूपा शाॅर्ट्स पहने हुए दोस्तों के साथ डान्स कर रही थी।
“बेटा खाना तैयार है जरा बुला पंडित जी को, अरे! क्या हुआ परेशान दिख रहा है?”
“क्..कुछ नहीं माँ”
कहते हुए शुभम ने रूपा का फोन जेब में रख लिया। और उठकर चला गया।
“सारा काम हो गया अब हम तीनों भी खा लेते हैं। चल रूपा!”
सरिता ने कहा।
“हाँ मम्मी मैंने थाली लगा दी है आप शुभम मेरा मतलब है इनको बुला लीजिए।” रूपा ने शर्माते हुए कहा।
“हाँ हाँ बुलाती हूँ, “शुभम” को।”
सरिता भी मुस्कुराकर बोलीं।
आम तौर पर रोज़ ही सबके खाने का अलग अलग समय होता था। पर छुट्टियों में सभी का एक साथ खाना बतियाना सरिता को खुशी से भर देता।
सरिता खाकर आराम करने के लिए अपने कमरे में चली गईं।
शुभम और रूपा अपने कमरे में।
कमरे में आते ही रूपा बिस्तर पर आँख बंद करके पड़ गई।
“आज बहुत थकान हो गई।” रूपा ने कहा।
“हम्म” शुभम भी पास ही लेटते हुए बोला।
“रूपा! तुम हनीमून पर कहाँ चलना चाहोगी?”
“अभी बेहद थकी हूँ सुबह से काम, और काॅलेज भी जाना था आज।” रूपा ने आँख बंद किए हुए ही कहा।
“काॅलेज? पर तुम्हारी तो छुट्टियाँ चल रही हैं?”
“हाँ छुट्टियाँ तो थीं, लेकिन आज ही मैसेज आया। कि असाइनमेंट की लास्ट डेट है। तुम थे नहीं।”
“हम्म…।” शुभम ने हुंकारी भरी।
“तुम…!” रूपा शरारत से मुस्कुराई। और शुभम के करीब आकर कहने लगी। “आज सुष्मिता का बड्डे था, मुझे याद ही नहीं था।”
“हम्म…।”
शुभम ने फिर हुंकारी भरी।
“ये क्या हम्म हम्म किए जा रहे हो, ठीक से बात करो न।”
रूपा शुभम को छेड़ते हुए बोली।
शुभम ने रूपा के चेहरे पर बिखरे बालों को पीछे किया और बोला।
“तुम्हें सुन रहा हूँ। अगर नहीं सुनूंगा तो बतियाने का कोटा कैसे पूरा होगा तुम्हारा।”
शुभम स्नेह से मुस्कुराया।
“अच्छा सुनो! आज न सुष्मिता की बड्डे पार्टी थी हाॅस्टल के उसके रूम में वहाँ सान्याल सर के आने में समय था। मैं सुष्मिता के पास गई तो पता चला कि आज उसका बड्डे है, मैंने जाहिर नहीं होने दिया कि भूली हूँ ।”
“और…।” शुभम ने रूपा की पीठ सहलाते हुए कहा।
“और क्या… वहाँ सब पार्टी कर रही थीं, सुष तो सरप्राईज़ हो गई थी मुझे देखकर।”
“तब पार्टी मनाया?”
शुभम ने पूछा
“अरे सबने मेरे कपड़े चेंज करवा दिए, जानते हो सुष के शाॅर्ट्स पहने थे आज।”
रूपा ने शुभम की आँखों में ताकते हुए कहा।
शुभम की कोई प्रतिक्रिया न देखकर रूपा ने कहा।
घर जल्दी पहुँचना था सो बस सर के आते ही निकल ली वहाँ से।”
“अच्छा की, सुष्मिता तुम्हारी बेस्ट फ्रेंड है न।”
शुभम ने रूपा का माथा चूमते हुए कहा।
“फ़ोटोज़ देखो न मेरे फोन पर आई होगी।
।”
“घर से तो साड़ी में ही गई होगी?”
शुभम अंजान बनते हुए बोला।
“हाँ पर साड़ी में दोस्तों के साथ… तो…।”
रूपा ने जैसे हल्की होते हुए कहा।
“हम्म।”
इस बार शुभम की हम्म में हुंकारी नहीं एक राहत थी।
“तुम्हें बुरा लगा?”
रूपा ने पूछा।
“नहीं, लेकिन….।”
“मैं कोशिश करती हूँ कि कोई गलती न हो।”
“पागल इसमें गलती कैसी, कुछ बातों पर तुम ध्यान दो कुछ पर मैं। सब आसान हो जाएगा, है न?”
शुभम ने कहा।
“हम्म,वैसे मम्मी वर्ल्ड बेस्ट हैं लगता नहीं कि सास हैं मेरी।”
रूपा ने कहकर शुभम को गले लगाया और आँखें फिर बंद कर लीं।
जीवन ऐसे ही सुख से बीत रहा था।
रूपा और शुभम भी अपने करियर को और चमकाने की कोशिशों में लगे थे।
रूपा के फाइनल एग्ज़ाम चल रहे थे। सुबह सास के हाथ का बना नाश्ता लेकर काॅलेज के लिए भागना भी बिरलों को ही नसीब था। रूपा खुशकिस्मत थी इस मामले में।
वह घर से तो निकलती आदर्श बहू की तरह।
मगर कार में बैठते ही शुभम की मदद से मेक अप कम करती।
इस दोहरी ज़िन्दगी से रूपा थक जाती थी। लेकिन शुभम का सपोर्ट देखकर वह भी चुप रह जाती।
इधर शुभम भी माँ और पत्नी में तालमेल करते चिढ़ तो जाता। फिर भी रूपा को उसने कभी टोका नहीं।
सरिता मुहल्ले और रिश्तेदारों से रूपा के रहन सहन को सुनकर भी अनसुना कर देती। मगर कहते हैं कि एक हरे वृक्ष को हमेशा श्रापते रहो तो वह भी सूखने लगता है। और अब सरिता कुछ कुछ खिन्न सी रहने लगी थी।
रूपा की पढ़ाई से सरिता पर ज़िम्मेदारी भी अधिक आ गई थी।
कभी कभी वह कोशिश भी करती कि रूपा को समझाए। परन्तु अक्सर ही रूपा का अपने प्रति लगाव और समर्पण देखकर उसकी ज़बान भी रुक जाती।
एक दिन फ़िर यही हुआ।
“सुन रूपा!”
“हाँ माँ!”
“बेटी मुहल्ले वाले तेरे रहन सहन को लेकर बहुत बातें बनाते हैं। तेरे कपड़े… और सुना है तू काॅलेज के लिए निकलते ही बिंदी निकाल देती है।”
कहते कहते सरिता का स्वर रोषपूर्ण हो गया था।
“मम्मी इस साल मेरा फाइनल इयर है। इसके कुछ समय बाद जब जाॅब में आ जाऊंगी तब तो सादगी में ही रहना होगा।”
और सरिता के गले में बाहें डालकर मनुहार से बोली।
” माँ… पढ़ाई पूरी होने के बाद मैं दो साल कुछ नहीं करने वाली, घर पर रहूंगी आपके साथ।”
“तो क्या सोलहों सिंगार करके थोड़ी न बैठेगी, और बात सिर्फ सिंगार पटार की नहीं है। तू तो बिंदी सिन्दूर भी नहीं…।”
“मुहल्ले वाले आपकी सोच पर बोलते हैं माँ, वैसे भी जज की परीक्षा पास कर ली तो कोई भी ऐसा चिन्ह…, अच्छा ये बताइए अब कल को आपके पोता पोती होंगे तो उन्हें उनकी मर्जी से जीने का हक़ देंगी न? वैसे भी मैं जब न्याय की कुर्सी पर बैठूंगी तो सबसे अधिक आपके प्यार और आशीर्वाद की जरूरत होगी। उस समय तो सिंदूर भी अलाउड नहीं होता।”
“पोता पोती भी तो नहीं आ रहे।”
सरिता कुछ खीझी और उदास सी बोलीं।
“आने वाले दो साल मैं आपकी इच्छानुसार रहूंगी और आगे भी कोशिश रहेगी माँ…!”
रूपा ने अपने पेट पर सरिता का हाथ रखकर कहा।
“मगर कपड़े …, क्या!? कितना समय हुआ?।”
सरिता खुशी से लगभग चीख पड़ी।
“दो महीने ।”
रूपा ने सरिता के गले लगते हुए कहा।
“रूपा तू नहीं जानती कि तूने आज क्या दिया है मुझे।”
कहकर रूपा को कसकर गले लगा लिया।
“अब तो एग्ज़ाम खत्म हो गए। रु…रुक पहले तेरी माँ को फोन करती हूँ।”
कहकर सरिता ने रूपा को पकड़ कर बैठाया।
“मम्मी! अभी शुभम को भी नहीं पता है। मैं चाह रही थी कि पहले…।”
रूपा ने बात अधूरी ही रहने दी।
“अच्छा अच्छा पहले शुभम को ही बताना ला पहले नज़र उतार दूँ ।”
“माँ पहले आप बैठिए मेरे पास आपकी खुशी मैं भी तो देखूँ।”
रूपा ने सरिता का हाथ थाम कर बैठा लिया।
सरिता की आँखें कब से भीग रही थीं उसे पता ही न चला। रूपा ने उसकी आँखों को अपनी दोनों हथेली से ढक दिया। और माथा चूम लिया।
“मेरी माँ!”
सरिता को तो पता नहीं कितनी खुशी मिल रही थी।
“अच्छा सुन वो मैंने नेट पर प्रेग्नेंसी के समय पहनने वाले आधुनिक कपड़े देखे थे। तू खरीद ले अपने लिए।”
“मम्मी सुनो न।” रूपा ने हथेलियों को सरिता के मुँह पर रख दिया।
“आपके बेटे को फोन करें?”
“मेरे बेटे और तेरे शुभम को।”
सरिता ने भावातिरेक में कहा।
“किसने हमें याद किया।”
शुभम नाटकीय अंदाज़ में अंदर आया।
“शुभम! शुभम बेटा आज मैं कितनी खुश हूँ तुझे अंदाज़ भी नहीं।”
शुभम ने सवालिया निगाहों से रूपा को देखा।
“बताओ तो क्या हुआ?”
शुभम ने सरिता का कन्धा पकड़ कर कहा।
“रुक आती हूँ, जरा मिर्च सुलगा दूँ।”
सरिता कमरे से बाहर निकलते हुए बोलीं।
“रूप!”
“हम्म!”
रूपा ने जब्त करते हुए कहा।
“अरे यार बता न क्या बात है?”
शुभम धैर्य नहीं रख पा रहा था।
“अरे हम्म का जवाब तो दो।”
रूपा ने और चिढ़ाया।
“हुँह!”
शुभम मुँह फुलाकर बोला।
“और शबाना।”
रूपा ने शुभम के हाथ पर एक बेबी ब्रश रख दिया।
“क्या?”
रूपा ने ब्रश दोनों के बीच रख दिया।
“रूप अब मुझे गुस्सा आ रहा है ओके?”
“लाइफ में कुछ भी फिल्मी नहीं होने देते तुम।”
रूपा ने मुँह फुलाकर कहा।
“मैं प्रेग्नेंट हूँ।”
“व्हाट!?”
रूपा का चेहरा सपाट था।
शुभम जैसे बोल ही न पा रहा हो।
“सच्ची!?”
रूपा शुभम के सीने में समाती हुई बोली।
“मुच्ची।”
“रूपा…!”
शुभम अपनी अंकशायनी को गदगद देखने लगा।
“रूपा आ बेटा तेरी नज़र उतार दूँ।”
सरिता चहकते हुए अंदर आईं।
” तुम दोनों ने आज मेरी रही सही कमी को भर दिया।”
रूपा ने शुभम के साथ सरिता के पैर छुए।
“अब तो शिव धाम भी मिले तो न जाऊँ।”
सरिता बहू के सर पर से मिर्चें उतार कर रुपओं से सदके कर रही थीं।
“मैं अभी मन्दिर से आती हूँ अब तू कहीं जाएगा नहीं।”
“मगर माँ मुझे आज ही बाहर जाना है। बेहद ज़रूरी।”
शुभम ने कहा।
“अरे अब तू कहीं नहीं जाएगा।”
सरिता ने घुड़कते हुए कहा।
“अच्छा तुम पहले मन्दिर हो आओ।”
“ठीक है आती हूँ पर तू यहीं रहना।”
सरिता जैसे उड़ते हुए चल रही थीं।
“कहाँ जाना है?”
रूपा बैठते हुए बोली।
“अरे यार वो आज मुझे प्रमोशन लेटर मिला है।”
“और तुम ये अब बता रहे हो?”
रूपा ने खुशी से कहा।
“तुमने भी तो छुपाया।”
शुभम शरारती अंदाज़ से रूपा की तरफ आते हुए बोला।
“देखो अब तुम बड़े हो जाओ।”
रूपा शुभम की नाक खींचकर बोली।
“वाह जी, मैं अब बड़ा हो जाऊँ और तुम फुटेज खाओ? अच्छा आज तो मत कहो बड़ा होने को।”
“जी मैं फुटेज खाऊंगी। पहले बताओ कहाँ जाना है और कब जाना है?”
“पोस्टिंग यहीं रहेगी यार। बस दस दिन की ट्रेनिंग होगी।”
कहकर शुभम ने रूपा को जकड़ लिया।
“हटो माँ आती होंगी।”
रूपा बगैर किसी प्रतिरोध के बोली।
रूपा ने फटाफट शुभम की पैकिंग शुरू कर दी। शुभम का प्रमोशन काफी समय से रुका हुआ था। आज वो भी मन ही मन भाग्य पर इठला रही थी।
“रूपा मुझे अभी निकलना होगा।”
“माँ को तो आ जाने देते।”
“हाँ तब तक तैयारी तो कर लूँ।”
“अब क्या बचा है सब तो पैक कर दिया।” रूपा ने आस पास देखते हुए कहा।
“अब बचा है बस थोड़ा सा समय, और उसमें मैं तुमको अपने करीब चाहता हूँ।”
शुभम की इस बात पर रूपा हँसी।
“ऐसा लग रहा है बड़ी दूर जा रहे हो, अरे रुको सुनो न।”
रूपा शुभम को परे करते हुए बोली।
“तुम चाहती हो कि ऐसे ही चला जाऊँ भूखा प्यासा?”
शुभम ने बनावटी गुस्से से कहा।
“क्यों भूखे प्यासे जाओगे? कुछ देती हूँ खाने को।”
रूपा ने फिर से छेड़ा।
“अरे यार, देखो देर भी हो रही है।”
“अरे तो माँ के आने के बाद ही जाओगे न?”
रूपा ने देर की बात पर उठते हुए कहा। और दरवाज़े तक हो आई।
“सुनो! मुझे न अच्छा नहीं लग रहा कि तुम जा रहे हो।”
“लो अब तुम भी वही बात कर रही हो जैसे कितनी दूर चला जा रहा हूँ।”
“शुभ!”
रूपा ने शुभम के मुँह पर हाथ रख दिया। और भावुकता को धकेलने की कोशिश में चेहरा घुमा लिया।
“रूप! कहो तो न जाऊँ।”
“नहीं नहीं जाओ हम वीडियो पर बात करेंगे न।”
“हाँ वो बफैलो चैटिंग भी।”
शुभम ने रूपा को ज़बर्दस्ती जकड़ लिया।
“मुझे लगा आज प्यासा ही रह जाऊंगा।”
इस बार रूपा भी चुपचाप शुभम के घेरे को समेटती रही।
“ए शुभ! तुम्हारा फोन बज रहा है।”
रूपा ने कहते हुए शुभम को फोन थमाया।
“अरे यार यही होता है नसीब।
देर भी हो रही है माँ कब तक आएगी।”
फोन लेते हुए कहा।
फोन पर बात करके एकदम से बैग उठाते हुए शुभम बोला।
“रूप अब समय नहीं है, चलता हूँ। माँ को समझा लेना।”
“मगर…”
“मगर अगर नहीं यार पूरी टीम वेट कर रही है।”
रूपा ने भी मौन सहमति देते हुए शुभम को विदा किया।
शुभम के जाने के दस मिनट बाद ही सरिता आईं।
“अरे शुभम गया क्या? “
“हाँ माँ वो बहुत देर हो गई थी।”
“मुझसे मिला भी नहीं…… अच्छा चल उसे फोन लगा।”
सरिता के कहने पर रूपा तुरत फोन लगाने लगी। मगर फोन ऑफ आ रहा था।
“प्लेन का समय हो गया है माँ कुछ देर में उनका फोन खुद ही आएगा।”
रूपा ने आश्वस्त करते हुए कहा।
“अच्छा ठीक है।”
सरिता थके स्वर में बोलीं।
“पानी पी लीजिए।”
रूपा ने गिलास आगे बढ़ाया।
“तू बैठ बेटा अपनी माँ को फोन किया कि नहीं?”
“अभी नहीं।”
रूपा ने भी उदासी भगाते हुए कहा।
“चल वीडियो कर तेरी माँ के चेहरे की खुशी सामने से दिखेगी।”
रूपा भी खुश होते हुए अपने मायके फोन लगाने लगी।
सरिता की निगाह बरबस ही रूपा के माथे पर चली गई। रूपा ने सोने की तैयारी की आदत में बिंदी निकाल दिया था।
सरिता ध्यान हटाने की कोशिश करने लगी।
“माँ!”
“अ हाँ ……।”
“मेरी माँ हैं फोन पर आपसे बात करेंगी।”
“हाँ हाँ ला दे।”
कहकर सरिता फिर से दादी बनने की खुशी में खो गई।
रूपा और सरिता दोनों ही काफी थक गए थे। लगातार फोन पर बातें और खुशी का अतिरेक।
रूपा शादी के बाद पहली बार अकेली सो रही थी।
उसने सरिता से मनुहार करते हुए कहा।
“माँ आज प्लीज़ मेरे कमरे में सो जाइए।”
“अरे तुझे डर तो नहीं लग रहा?”
सरिता घबराई।
“नहीं माँ आज वो नहीं हैं न।”
रूपा ने सकुचाते हुए कहा।
सरिता का ध्यान फिर रूपा के खाली माथे पर गया।
और अपने वैधव्य की पीड़ा आँखों में उतरने लगी। जैसे अंदर से आँसू आना चाहते हों और उन्हें तरलता न मिलती हो।
“माँ!
“हाँ… ठीक है चल आज तेरे साथ सो जाती हूँ। जरा शुभम को एक बार फिर से फोन कर दे।”
“हाँ करती हूँ।”
पति के जाने के बाद सरिता के लिए यह पहली मर्तबा था कि शुभम कहीं जाने से पहले उससे मिल कर नहीं गया। उसके मन में बहुत सी आशंकाओं ने डेरा डाल दिया था।
“माँ उनका फोन नहीं मिल रहा है, लेकिन मैसेज आया है कि बैटरी डेड है माँ को बता देना।”
“ओह……”
सरिता ने राहत की साँस लेते हुए कहा।
भावी बच्चे की माँ और दादी दोनों अपने अपने सपनों की सैर पर चल पड़ी थीं।
सरिता को तो नींद आ गई थी। मगर रूपा बेचैन थी। शुभम के मैसेज की झूठी बात से सरिता को तो आश्वस्त कर दिया था। लेकिन खुद चिंता में डूबी थी।
आस निरास में आधी सोई आधी जागी सुबह रूपा जब सोकर उठी तो सर भारी था। सरिता कब की जाग चुकी थीं।
रूपा ने उठते ही शुभम को फोन मिलाया मगर अब भी फोन ऑफ था। उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। निर्णय नहीं ले पा रही थी कि सरिता को बताए या नहीं।
रूपा किचन में गई तो सरिता कहीं दिख नहीं रही थी।
उसने खुद के लिए चाय बनाई।
“ये माँ कहाँ रह गईं।”
रूपा ने खुद से सवाल सा किया।
“रूपा फटाफट तैयार हो जा।”
तेरी माँ और हम मिलेंगे। मन्दिर में।”
सरिता ने सारे पर्दे हटाते हुए कहा।
“आपकी बात हुई क्या उनसे?”
“हाँ सुबह ही फोन आया था। ये दीपिका न दिन ब दिन कामचोर हो जा रही है। सुबह ही फोन किया था कि आज से जल्दी आएगी।”
सरिता बड़बड़ा रही थीं।
रूपा को जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो लगातार एक हाथ से फोन ही मिला रही थी।
“रूपा तू सुन भी रही है? तेरी चाय भी ठंडी हो रही है।”
“अ ह हाँ हाँ सुन रही हूँ।”
रूपा उठकर भीतर चली गई।
“ये लड़की भी न क्या हो जाता है इसको।”
सरिता पीछे से काम समेटते हुए फिर बोलीं।
इधर रूपा भीतर आकर नहा कर शीशे के सामने बैठ गई।
यकायक वो चिहुँकी। लगा शुभम कह रहा है “प्यासा ही चला जाऊंगा…।”
उसने झपट कर फोन उठाया और शुभम को डायल करने लगी।
“रूपा जल्दी कर बेटा।”
सरिता की पुकार आई।
” ज जी माँ।”
रूपा ने घबराहट में कहा।
एक हाथ में फोन और दूसरे से श्रृंगार अभी इतनी भी अभ्यस्त नहीं थी। जैसे तैसे लिप्स्टिक लगभग पोतते हुए, काजल लगाते समय देर से गले तक रोकी रुलाई ने आँखों में रास्ता पा लिया था।
“रूपा!”
पीछे से सरिता की आवाज़ से रूपा चिहुँकी।
“क्या हुआ?”
“माँ! कल से उनका फोन ऑफ आ रहा है।”
रूपा ने एकदम से कह दिया और आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे।
“मगर तूने तो कहा था कि मैसेज…।”
“मुझे लगा बात हो जाएगी लेकिन …।”
“अच्छा इधर देख। पहले मन्दिर चलते हैं। सब ठीक होगा।”
सरिता ने रूपा को कन्धे से पकड़ कर कहा।
“जी।”
रूपा अपना हुलिया ठीक करते बोली।
सरिता बेकली में बाहर तो आ गईं मगर छटपटाहट के नाते कुछ सूझ नहीं रहा था। घड़ी देखा आठ बज रहे थे।
“शुभम के दोस्त को फोन लगाती हूँ, ऑफ़िस तो बन्द होगा।”
रूपा भी बाहर आ गई थी।
“माँ मनोज भईया की मिस्ड काॅल थी। मैंने काॅल बैक किया तो अब वो भी ऑफ है।”
रूपा का रूंधा स्वर काँप रहा था।
“मनोज तो शुभम के साथ जाने वाला था न……? अच्छा तू बैठ पहले इधर आ सब ठीक है।”
सरिता रूपा को बैठाते हुए जैसे खुद से बोलीं।
“माँ! मैं बिल्कुल आपके जैसे ही रहूंगी बस… एक बार…।”
“नहीं बेटा मेरे जैसे नहीं बिल्कुल नहीं…।”
सरिता सर पर हाथ रखकर बैठ गईं।
“हम निकलें फिर?”
रूपा ने पूछा।
“तेरा भाई आने वाला है हमें लेने।”
“मैं फोन करूँ विवेक भईया को।”
“कुछ खा ले पहले।”
सरिता ने रूपा को नेह से देखा।
“मुझे भूख नहीं माँ, आपके लिए कुछ…।”
नहीं मन्दिर होकर ही कुछ लूंगी तू कुछ अनाज रख ले दान के लिए।”
“ठीक है।”
रूपा रसोई में चली गई।
सरिता ने विवेक को फोन करने के लिए फोन उठाया कि फोन की घंटी बज उठी।
भय और आशंका से फोन छूटकर गिर गया उसके हाथ से।
सरिता ने झपटकर फोन उठाया, विवेक का ही फोन था।
“ह हलो! हाँ हम तैयार हैं, माँ बात करेंगी? क्या हुआ? सब ठीक है न?।”
मारे घबराहट में सरिता की मुख भंगिमा विद्रूप हो रही थी।
“हाँ ज जी आइए आप लोग क्या हुआ? क्या शुभम? क्या हुआ उसे? ह लो आप सुन रही हैं? मेरी आवाज आ रही है? हलो हलो?”
सरिता लगभग चीख रही थीं फोन पर।
“क्या हुआ माँ?”
रूपा बुरी तरह दौड़ती हुई आई।
“क् कुछ नहीं …।”
“माँ दरवाज़े पर कोई है, म् मैं आती हूँ।”
“विवेक होगा…।”
सरिता ने चेहरा उठाए बगैर जवाब दिया।
रूपा इतनी व्यथित थी कि उसके पैर भी ठीक से नहीं पड़ रहे थे।
“तुम!”
रूपा की आवाज़ से सरिता ने सर उठाकर देखा। सामने शुभम, विवेक, उसकी माँ और मीनू सब खड़े थे।
सरिता को अब कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। उसे लगा सब शून्य है। सब अंधेरा है।
फिर उसकी आँखें मुंद गईं।
वापस से जब उसने आँखें खोलीं तब वो बिस्तर पर थी। सबसे नजदीक शुभम और रूपा फिर बाकी सब बैठे थे।
उसने फिर से आँख बंद कर लीं। मानो वो स्वप्न देख रही हो।
“माँ!”
शुभम की आवाज़ पर वो फिर जागी।
“कैसी हो।”
“कहाँ रह गया था तू…।”
“माँ मेरी फ्लाइट डिले हो गई थी। और मेरा चार्जर भी घर पर रह गया था।”
“माँ ये पी लो।”
रूपा ने गिलास आगे बढ़ाया।
“मैं ठीक हूँ बेटा आ बैठ मेरे पास।”
सरिता ने सबके आश्वस्त चेहरे को देखकर खुद को संभाला और रूपा को पास बुला लिया।
“अच्छा अब आप वो राज़ भी खोल दें कि फोन पर आप ऐसे क्यों बात कर रही थीं।”
सरिता रूपा की माँ से संबोधित हुईं।
हम लोग आपके ही घर आ रहे थे कि रास्ते में शुभम मिल गया। हमने गाड़ी रोकी ही थी कि उसके सर पर एक…।”
रूपा की माँ ने बात अधूरी छोड़ दी।
“हम्म कौवा बैठ गया था है न?”
सरिता ने गंभीर स्वर में कहा।
“आन्टी मैं मना करता रहा माँ को लेकिन…।”
“मैं कुछ कहना चाहती हूँ।”
सरिता की बात पर विवेक भी चुप हो गया।
“आज से रूपा को हर वो काम करने की छूट है जो वो करना चाहती है, मेरा मतलब है मेरी तरफ से कोई भी बंदिश नहीं है।”
रूपा ने सजल नेत्रों से सरिता के काँपते हाथ को मजबूती से थाम लिया।
“कोई कुछ भी कहे, कुछ भी समझे मुझे तुम दोनों की खुशी से बढ़कर कुछ भी प्यारा नहीं।”
सरिता एकदम संभल चुकी थीं और संयत स्वर में बोल रही थीं।
रूढ़ियों परंपराओं की इस कशमकश में परिवर्तन का साहस ऊपर हो गया था। और बेड़ियां टूट गई थीं।
शुरू से लेकर अंत तक कहानी ने बांधे रखा। बहुत सुंदर आलेख ❤️