बी. एल. गौड़
बी.एल.गौड़ जी की कहानी पुल अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करती है। इसका शीर्षक ही पाठक को पढ़ने के लिए आकर्षित करता है। लगता है किसी रम्य, रमणीय स्थल जहाँ दो नदियों, नहरों को जोड़ने का अथवा दो किनारों को जोड़कर एक किनारे से दूसरे किनारे के छोर तक आवा-जाही का, चहलकदमी का दृश्य होगा। ऐसा तो सामान्य कहानीकार करता ही है, परन्तु विशिष्ट कहानीकार उस भीड़ से समुदाय में से एक ऐसी घटना, पात्र को लेकर जो अनजान-अपरिचित हो निःस्वार्थ भाव से अपनी सोच और अपने जीवन के कुछ पल देकर इंसानियत का, मानवता का, आत्मीयता का ऐसा पुल बना लेता है, जो खून के रिश्तों से भी बढ़कर हो जाते हैं। ऐसे पुलों का निर्माण करने वाले संसार में हैं, परन्तु दिखलाई कम पड़ते हैं, इनकी आवश्यकता है। हम यदि अपने जीवन के कुछ पल इनके प्रति लगा दें तो शायद खुशहाली ही खुशहाली हो। ऐसी उदात्त भावों की मंदाकिनी पुल कहानी में देखने को मिलती है। 
कहानी की शुरूवात दिल्ली के युमना स्पोर्टस काम्पलैक्स के पार्क से होती है। यमुना पार दिल्ली अर्थात् योजना विहार, आनंद विहार, विवेक विहार में बना लगभग पचास एकड़ में बने इस पार्क से होती है। दिल्ली का यह परिवेश धनाढ्य संपन्न परिवारों की स्थली है, जहाँ प्रतिदिन उसके जैसे बूढ़े लोग टीशर्ट पैंट या फिर जौगिंग सूट में सदैव जवान बने रहने की हसरत लिए सुबह बड़ी संख्या में आपको यहाँ घूमते हुए मिल जायेंगे। जब दिल्ली में एशियन गेम्स हुए थे तो इस काम्पलैक्स का नाम लगभग हर दिन समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर सुर्खियों में होता था। (पेज- 73)
14 जून को वो अर्थात् नवलकान्त तिवारी जी को पार्क में एक गोरा चिट्टा लगभग 15 साल का लड़का जिसने नज़र का चश्मा भी लगाया हुआ था, बड़ा गुमसुम सा बैठा आते-जाते वाहनों को देख रहा था। वह बिलकुल उसे अपने दोहते (बेटी का बेटा) कुशाग्र सा लगा। उससे रहा नहीं गया तो वह सैर का विचार छोड़कर उस लड़के की तरफ लौट आया। (पेज-73) तिवारी जी उसके मैले कपड़े और कमर पर एक बैग को देखते ही समझ गए कि यह अनजान अपरिचित है। इस कॉलोनी का बालक नहीं है। शायद घर से भागकर आया है।
यह भाव उन्हें अपनेपन  से जोड़ देता है। वह स्वयं उसके पास जाकर उससे उसके बारे में पूछते हैं। शशांक उस बालक ने कहा आपका क्या मतलब? बेटा हर काम में मतलब नहीं होता, मैं समझ चुका हूँ कि तुम घर से भागे हुए हो, अब क्यों और कैसे, यह तो तुम्हें ही मालूम होगा, लेकिन तुम्हें इस शहर के बारे में कुछ नहीं मालूम, तुम्हारे जैसे मासूम बच्चे एक बड़ी संख्या में हर दिन इस शहर में आकर खो जाते हैं बस यों समझ लो जैसे एक पत्थर तुम समुंद्र में फैंकों और फिर उसका पता न चले। (पेज-74)
यह संवाद बालक की मनःस्थिति और तिवारी जी की दृष्टि को साफ़ कर देता है। तिवारी जी का इतना भर कहना उस निरीह, भोले बालक के मन में आशंका पैदा कर देता है, भविष्य के प्रति डर का भाव उत्पन्न हो जाता है। एक संवेदनशील व्यक्ति ही इस भाव को पढ़ भी सकता है, पढ़कर कर्मबद्ध भी होता है। तिवारी जी पास में ही अपने घर ले जाकर उसे चाय-बिस्कुट खिलाकर आराम से बैठने के लिए कहते हैं। गार्ड के पास बैठकर बालक शशांक चाय पीने लगा। तिवारी जी तभी घर के अंदर जाकर अपने मित्र योगेन्द्र शर्मा जी से इस बालक के बारे में सलाह लेकर पुलिस को सूचित करते हैं। जब तक पुलिस आती है तब तक उसे नाश्ता करने के लिए तैयार करते हैं। पुलिस के पूछने पर उसने अपने पिता का फोन नंबर और छत्तीसगढ़ रायपुर का रहने वाला बताया। तिवारी जी ने स्वयं फोन लगाकर कहा क्या आप शशांक के पिता बोल रहे हैं। बड़ी डरी और घबराई हुई आवाज में उन्होंने हाँ कहा। उसने जब उन्हें बताया कि उनका शशांक उसके पास है तो वे दहाड़ मार कर रोने लगे। उसने शशांक के पिता को आश्वस्त करते हुए कहा आप बिलकुल निश्चिंत रहें, जब तक आप दिल्ली नहीं पुहँच जाते वह हमारे ही घर में रहेगा। (पेज- 75)
नवलकान्त तिवारी जी से सब-इन्सपैक्टर का कहना बाबू जी आज आपने अपनी जिंदगी में एक बड़ा काम किया है, दिल्ली के हर थाने में ना जाने गुमशुदगी की कितनी रिपोर्ट रोज आती हैं पुलिस भी क्या करे? कागजी कार्यवाही करने के बाद हम पुलिसवाले भी रोज़मर्रा के दूसरे कामों में उलझ जाते हैं और जितनी कोशिश हो सकती है करते हैं, लेकिन ये सब औपचारिकता के नाते होता है। इस तरह के खोये हुए बच्चे कहाँ हाथ आते हैं। दिल्ली एक महानगर है, यहाँ भी बंबई, कलकत्ता की तर्ज़ पर एक उद्योग की तरह बच्चे उठाना, उन्हें गायब करना, उनसे  गैर कानूनी काम करवाने का धंधा खूब चलता है। (पेज-76)
यह कथन आज के गोरखधंधे की कहानी दर्शाता है। बच्चों को अपाहिज बनाकर भीख मँगवाना, उनके शरीर के अंगों को बेचना और जुर्म की दुनिया में धकेल देना आम बात हो गई है। सब-इन्सपैक्टर का यह कहना कागजी कार्यवाही के लिए इस बालक को थाने ले जाना पड़ेगा। पुलिस विभाग की धूमिल छवि को लेखक का यह कथन दर्शाता है। पुलिस, प्यार और थाने में किसी की सुरक्षा ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जिन पर कम से कम तिवारी जैसा आदमी तो अपना विश्वास खोये हुए है। (पेज-76) खैर तिवारी जी की यह सोच गलत सिद्ध होती है, थाने में नीचे से लेकर दरोगा तक सभी बड़े प्यार से मिलते, चाय पिलाते हैं। उनकी पूरी मदद करते हैं।
रायपुर से फ्लाइट द्वारा तीन चार घंटे में ही शशांक के पिता अपने परिचित के साथ थाने में पहुँच जाते हैं। पुत्र शशांक को देखकर वे उसे अपनी बाँहों में भरने की कोशिश में एक बार फर्श पर गिर गए। सब लोगों ने उन्हें उठाया, उसके बाद शशांक को अपनी बाँहों में भींचकर वे कई मिनट तक रोते रहे। रोते-रोते उन्होंने कहा बाबू जी हमारे शशांक  को आपने नया जीवन दिया है, हम लोग उम्मीद ही छोड़ बैठे थे, आपका यह अहसान हम जिंदगी भर नहीं भुला पायेंगे। तिवारी जी ने उन्हें समझाया शुक्ला जी मैंने तो कुछ भी नहीं किया, बस जो इंसान मेरे भीतर अभी जिंदा है उसी ने मुझसे कहा तू अभियंता है तूने बड़े-बड़े भवनों और पुलों का निर्माण करवाया है, कभी-कभी इंसानियत के छोटे पुलों का भी निर्माण किया कर सो शुक्ला साहब उसी के तहत मैंने और मेरे मित्रों ने इस शशांक के लिए कुछ समय खर्च किया है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। (पेज-78)
शुक्ला जी शशांक को लेकर रायपुर अपने घर चले जाते हैं। एक साल से अधिक समय बीत जाने पर क्या मतलब कहने वाला शशांक कैसे हैं दादा जी जब तिवारी जी से कहता है तब तिवारी जी कहते हैं, मैं बिलकुल ठीक हूँ, अब जब तेरा घर से भागने का मन हो तो मुझे फोन करना और सीधा अपने दादा जी के पास आना, तभी मैं समझूँगा कि तूने मुझे दादा माना है। (पेज-78)
वास्तव में बी.एल. गौड़ जी ज़िंदादिल इंसान है, उनकी ज़िंदादिली उनके पात्र नवलकान्त तिवारी जी में दिखलाई पड़ती है। दुनिया में लोग मुखौटे पर मुखौटे लगाए हुए हैं। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। पर वास्तव में रिश्तों का संबोधन अगर सच्चा है, तो उसकी गरमाहट से आत्मीयता, अपनापन बना रहता है। यही कारण है कि अब शशांक के दो दो घर हैं। एक रायपुर में और एक दिल्ली में है। कहानी के उत्तरार्ध में दिल्ली आने पर तिवारी जी को शुक्ला जी बताते हैं कि उनके दो पुत्र दीपांशु और शशांक 10वीं कक्षा में था, अकेलेपने के कारण घऱ से मोटरसाइकिल लेकर गया और सात दिन बाद आपके पास से मिला।
गौड़ जी की यह कहानी चार पात्रों में रची गई है, जिसका मुख्य पात्र कहानीकार अर्थात् नरेटर है, जो मूलतः सभी कहानियों, उपन्यासों में अप्रत्यक्ष होते हुए भी प्रत्यक्ष होता है। उसी के कारण कहानी में विस्तार, गति बढ़ती है। इस कहानी में कहानीकार का किरदार वर्णनात्मक, संस्मरणात्मक कहानी होने के कारण अधिक है। दूसरा पात्र नवलकान्त तिवारी जी का है, जो एक अभियंता हैं, साथ ही साथ समाज के एक सजग नागरिक की भूमिका को अदा करते हैं। शुक्ला साहब शशांक के पिता हैं, जो पुत्र के लापता होने पर बदहवास से नज़र आते हैं। बाकी तीन-पात्रों का उल्लेख भर हुआ है। 
इस छोटी सी कहानी या फिर घटना के माध्यम से बी.एल. गौड़ जी ने एक समसामयिक समस्या को उद्घाटित किया है, क्या कारण है, बच्चे क्यों घर से भागते हैं। इस कहानी में शशांक के घर से भागने का कारण अकेलापन ही है। यह बहुत सटीक कारण नहीं है, न ही तनाव है। फिर भी इस तरह से निकलना दिमागी नादानी और भी फिल्मी-प्रभाव भी हो सकता है। लेकिन इस समस्या के भयंकर परिणामों को लेखक ने अवश्य दिखाया है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कहानी हमें सजग नागरिक बनने का संदेश देती है। अगर हर व्यक्ति अपने परिवेश में सजग रहे तो कोई भी असामाजिक गतिविधियों को अंजाम नहीं दे पाएगा। हम लोग देखकर-समझकर भी अनजान बने रहना चाहते हैं। यही कारण है कि हमें क्या? हम क्यों कहें? की प्रवृत्ति बढ़ती चली जा रही है। अनजान व्यक्ति को देखकर हम उससे पूछने, बात करने से कतराते हैं। कोई किसी लड़की के साथ छेड़खानी करे हम चुपचाप चले जाते हैं। हम लोगों की चुप्पी ने शरारती तत्वों को बढ़ावा दिया। यह सोच बदलने पर ही समाज का उत्थान हो सकता है, अन्यथा नहीं।
कहानीकार गौड़ जी का उद्देश्य यह भी है कि मात्र भौतिक संसाधनों को जुटा लेने और बड़े-बड़े भवनों-पुलों को बना लेने से वह आत्मिक खुशी नहीं होती है, जो अनजान लोगों से आत्मीयता का संबंध बनाके, एक दिल को दूसरे से जोड़कर-बाँधकर होती है। कुछ समय ऐसे कार्यों में लगाकर हम इंसान बनने के हकदार हो सकते हैं। इसमें आपका कुछ नहीं लगता है, केवल कुछ समय और आँख खोलकर चलना ही तो है। पुलिस, कानून अपना काम करें, हमें अपना काम करना चाहिए।
इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस कहानी में अपनेपन की संवादगी देखने को मिलती है, जो पाठक को बाँधे रखती है। कहानीकार की उपस्थिति कहानी को ही गति नहीं देती है, अपितु एक पात्र के रूप में पाठक से जुड़ती भी है। पात्रों के बीच संवाद अत्यंत संक्षिप्त है, जो पात्रानुसार और प्रसंगानुकूल हैं। भाषायी बोध शहरी सभ्यता को दर्शाता है, साथ ही साथ व्यंग्यार्थ भी प्रसंगानुसार है। पुलिस व्यवस्था पर किया गया व्यंग्य देखने योग्य है, पर एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, यह बात सत्य है। पुलिस विभाग में भी हमारे ही तरह के लोग काम करते हैं, उसमें भी ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ लोग हैं। गौड़ जी का आस्तिक दृष्टिकोण और कण-कण में भगवान की सोच सत्कर्मों के प्रति प्रेरित करती है। तिवारी जी स्वयं देव तथा उनके साथीगण देवदूत से कम नहीं थे। मेरा मानना है कि ईश्वर स्वयं नहीं आते किसी न किसी रूप में हम सभी की विपरीत परिस्थितियों में मदद करते हैं। (पेज-83) हमें पहचानने की समझ होनी चाहिए, ईश्वर किसी न किसी रूप में मिलते ही हैं। कहानी के तत्वों की कसौटी पर यह कहानी किस्सागोई के गुण से भरी हुई है। यह कहानी वास्तविक घटना पर आधारित समाज का दर्पण है। साथ ही इसका परिवेश महानगरों में फैलते गोरखधंधों और संवेदनशून्य समाज में जागरूकता का होना कितना अनिवार्य है, यह दर्शाता है। हमें अपने नागरिक बोध का एहसास कराता है।

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