मादरे वतन हिंदुस्तान की धरती पर पांच बार घुटनों के बल होने वाले आक्रमणकारी मुगलिया सल्तनत के विनाश की कहानी है छत्रसाल। बुंदेलखंड के वीर , नामवर यौद्धा की कहानी है छत्रसाल। अपनी मातृभूमि के लिए अपनी आन, बान, शान की कुर्बानी देने वालों की कहानी है छत्रसाल। रूखा, सूखा खाकर अपनी मातृभूमि को आज़ाद करवाने की ललक और तड़प लेकर पैदा होने वालों की कहानी है छत्रसाल। हजारों की सेना पर अकेला भारी पड़ने वालों कहानी है छत्रसाल। प्रेम, करुणा, दया का सागर बहाने वालों की कहानी है छत्रसाल। और कुछ जानना बाकी है? वाक़ई?
बुंदेलखंड की धरती पर 1649 में पिता चंपत, माता सारंधा के यहां जन्में महाराज छत्रसाल के जन्म लेने की कहानी जितनी रोचक है उतनी ही उनके 82 वर्ष के जीवन काल में 44 वर्ष राज करने तथा 52 युद्धों में वीरता से लड़ने की कहानी भी रोचक है। इस पर अब कोई सीरीज या फ़िल्म बनकर आए तो जाहिर सी बात है उसका स्वागत किया जाएगा। फूल, मालाओं से और होना भी चाहिए। हमारे देश भारत में एक से एक कहानियां इन वीर यौद्धाओं की भरी पड़ी हैं।
इस सीरीज की कहानी शुरू होती है 1634 के भारत से लेकिन फिर थोड़ा आगे 1649 में जाती है। फिर 1658 लेकिन फिर एक बार 1640 में लौट आती है। आगे, पीछे जाकर यह क्रम तो बखूबी निभा ले गए निर्माता, निर्देशक लेकिन इस बीच कुछ छोड़ भी दिया। जब घने जंगल में बालक छत्रसाल एक आदमखोर बाघ से नवजात को बचाकर लाता है तब हल्की-हल्की आग की लपटें उठ रही होती हैं। अब कोई घने जंगल में जब आधी रात नहीं जाता तो आग किसने लगाई? ऐसे ही जब छत्रसाल के माता-पिता का सिर कलम करके लाया जाता है तब वह भी सचमुच का, असली नहीं लगता। खैर ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी सी लेकिन भारी और बड़ी गलती तथा कमजोर वीएफएक्स के कारण यह जानदार कहानी उतनी शानदार नहीं हो पाती।
कहानी 16 साल के शहजादे औरंगजेब से शुरू होती है जो धीरे-धीरे इतना क्रूर होता चला जाता है कि अपने बूढ़े बाप जिसने प्रेम की मूरत ताजमहल बनवाया उस बाप को नजरबंद कर खुद शहंशाह-ए-आलमगीर, बादशाह-ए-औरंगजेब बन जाता है। जो चाहता है इस हिंदुस्तान का हर शख्स सिर्फ इस्लाम की राह पर चले। फिर भले इसके लिए मंदिरों को खंडहरों में बदलना पड़ा हो, मूर्तियों को मिट्टी में मिलाना पड़ा हो, जबरन धर्मपरिवर्तन कराना पड़ा हो या जिन्होंने इस्लाम कबूल नहीं किया उन्हें मौत के घाट उतारना पड़ा हो। इतना ही नहीं फसलों में आग, पानी में जहर घोलने वाले इन मुगलों द्वारा भुखमरी फैलाई गई लेकिन बावजूद इसके कुछ लोग ऐसे थे हमारे इतिहास में जिनकी सदियों तक गौरवगाथा गाई जाती रही है और आगे भी गाई जाती रहेगी।
नायाब चीजों को पाने का ख्वाब देखने या उन्हें न पाने के मलाल में तबाह, तहस-नहस कर देने की कहानी इससे पहले हम संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ में भी देख चुके हैं। लेकिन वैसा ही जानदार लेकिन शानदार न होना इस सीरीज की कमी है। बावजूद इसके यह छत्रसाल जानदार है, शानदार है, आनदार है। छत्रसाल ने पिता से बहादुरी तथा माता से गुण एवं संस्कार जो पाए उन पर वे आजीवन चले। इसलिए युद्ध की ललकारों के बीच जब मासूम सी किलकारी छत्रसाल की गूंजी तो एक उम्मीद की किरण फूटी। जीवन और मृत्यु के द्वंद्व के बीच पैदा हुआ यह बालक असाधारण था तभी मुगलों के अस्तित्व का इस बालक ने हिंदुस्तान से ख़ात्मा किया। अपनी मां के वचनों का पालन कर डर को अपने भीतर से खत्म कर बुंदेलखंड को न केवल आज़ाद करवाया बल्कि अपने प्रेम , सौहार्द के व्यवहार से सदा-सदा के लिए अपना नाम स्वर्णाक्षरित करवा लिया।
एक समय बहन ने संकट के समय साथ छोड़ा, ग्रामवासियों ने पानी तक नहीं पूछा लेकिन बावजूद अपने पहाड़ जैसे इरादों को लिए संघर्ष की आग में तप कर सुदूर पहाड़ों, बीहड़ों समेत पूरे बुंदेलखंड पर राज किया। उसे अपना बनाया तथा अपना अस्तित्व भी कायम रखा। इस सीरीज में जातीय परंपरा को किनारे कर जान बचाने की कहानी भी है। मूसा पैग़म्बर के सहयोगी की छोटी सी कहानी भी है। भगवान राम की कहानी भी है। परमधाम की शक्ति जो छत्रसाल को बचपन से ही उसके जीवन में आने वाले संकटों से पहले आगाह करती आई है उसकी कहानी भी है।
ऐसे वीर यौद्धा की कहानी प्रेरक है लेकिन कमजोर वीएफएक्स और निर्देशन एवं कुछ सहयोगी कलाक़ारों की कमजोर एक्टिंग की कमियों , मेकअप के चलते यह कहीं-कहीं चूकती भी है। सूत्रधार नीना गुप्ता ने अच्छा काम किया लेकिन जब-जब वे पर्दे पर आई तो अतिशय भव्यता नजर आती है जो बाकी सीरीज में राजदरबार को छोड़ गायब हो जाती है। आशुतोष राणा ने कमाल किया है। उनके हिस्से में आए भारी भरकम संवादों को वे भरपूर जीते हैं। उनके लिए यह सीरीज देखी जा सकती है। जतिन गुलाटी, वैभवी शांडिल्य, मनीष वधवा, अनुष्का लुहार का अभिनय मिलाजुला रहा। छत्रसाल के बचपन के किरदार में रुद्र सोनी बेहतर लगे।