पुस्तक समीक्षा – गली तमाशे वाली

पुस्तक — गली तमाशे वाली  (उपन्यास), लेखिका – अर्चना चतुर्वेदी, प्रकाशन वर्ष -२०१९, मूल्य -१७५ रूपये, प्रकाशक- भावना प्रकाशन, दिल्ली

आज जब हिंदी में साहित्य का अर्थ निरपवाद रूप से केवल कहानी, कविता और बहुत हुआ तो उपन्यास रचना ही रह गया है, ऐसे में अर्चना चतुर्वेदी की किताब ‘गली तमाशे वाली’  इतना संतोष जरूर देती है कि हिंदी साहित्य के इस बासी से हो रहे माहौल में भी कुछ नया व ताज़ा करने की कोशिश पूरी तरह से मरी नहीं है। अर्चना चतुर्वेदी के इस उपन्यास का सबसे प्रमुख नयापन है, इसमे मौजूद ‘विधागत प्रयोग’।

एक उपन्यास लेखक कहानीकार, कवयित्री और व्यंग्यकारा की किसी भी रचना की समीक्षा लिखना एक बड़ी चुनौती होती है क्योंकि उसकी रचनाएं संदर्भित विधा के मापदंडों पर समरसता बनाये रखती हैं। ये किताब न तो पूरी तरह उपन्यास है और न तो कोई कहानी, इसकी रचावट-बनावट कुछ यूं है कि इसमें कहानी भी है और व्यंग्य भी है। यूँ कह सकते हैं कि कहानियों की पूरी की पूरी श्रृंखला है ये किताब। जहाँ व्यंग्य विधागत भी है और शैलीगत भी।

कोई रचनाकार रचना अपनी दृष्टि से करता है और पाठक उसे अपनी दृष्टि से समझता है, दोनों की दृष्टि एक भी हो सकती है और अलग भी, लेकिन अर्चना ने इस उपन्यास में इस समस्या को ही समाप्त कर दिया गया है, यानी कि अमुक पुस्तक किस कारण से और किस भाव व मनोस्थिति में लिखी गई है, ये पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया गया है। पुस्तक का जो गद्य है, उसे संस्मरण और डायरी जैसी श्रेणियों में रखा जा सकता है। बाकी तो व्यंगात्मक शैली है ही कमाल की।

इस उपन्यास का प्रत्येक अध्याय अपने आप में स्वतंत्र है, लेकिन जरा गहराई से अगर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्र से दिखने वाले ये अध्याय एक दूसरे से क्रमवार ढंग से न केवल जुड़े हैं, बल्कि लेखिका के जीवन के तमाम अनुभवों का क्रमवार विश्लेषण हैं जिसे उन्होंने एक कथा में पिरोने का काम किया है।

जीवन की आपा-धापी से कुछ समय मिलने पर लेखिका को लेखन की अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होती है, और वो इंसानियत से लबरेज हो रिश्तो के ताने बाने को एक सूत्र में पिरो तमाशे वाली गली के तमाम तमाशो को रचना में पिरो पाठको के सामने प्रस्तुत करती हैं। उनके पात्र भी ऐसे हैं जो आपके सबके आसपास मिल जायेंगे- गया प्रसाद, पुत्तन बाबू, पप्पू महाराज, कैलाशनाथ, बिरमा, विष्णु, नंदू, बिल्लो, दयाशंकर, जैसे पात्रों की सुमार है यहाँ।

प्रथम पृष्ठ पर प्रारम्भ में मथुरा शहर का चित्रण लेखिका ने किया है-“….अस्सी के दशक में जैसे शहर  होते थे वैसा ही मथुरा भी था, ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता। मथुरा के बारे में कहा जाता है कि यह असल में वो शहर है जो तीनो लोक से न्यारा है….इस न्यारेपन को मेंटेन करने के जितने भी जतन वे कर सकते थे, पूरी सिद्दत से कर रहे थे।…..यहाँ जतन, न्यारेपं, मेंटेन   शब्दों का प्रयोग प्रतीकात्मक लगता है। संकीर्ण मानसिकता और तमाशेवाली गली से निकलकर खुले क्षेत्र में आना, यह स्वतंत्र चिंतन, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति है। ये गालियां तमाशा छोड़ नहीं सकतीं और कतिपय व्यक्ति संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित रहते हैं। महानगर से छोटे शहर का संबंध स्पष्ट है इस उपन्यास में। बकौल तेजेंदर शर्मा” आज जबकि बहुत से व्यंग्यकार ऐसी रचनाएं रच रहे हैं जिनसे महसूस होता है कि वे पूरा प्रयास कर रहे हैं कि गलती से कहीं व्यंग्य ना लिखा जाए, ऐसे में अर्चना ने एक ऐसे मुहल्ले का सृजन किया है जो अपनी तमाम विसंगतियों और बेवक़ूफ़ियों के साथ हमारे सामने सजीव हो उठता है।

अर्चना एक ऐसी अनूठी साहित्यकारा हैं जिन्हें साहित्य की अनेक विधाओं पर महारत हासिल है। यह दिगर बात है कि आधुनिकता के परिवेश में बदलती हुई जीवन शैली, चिंतन, खानपान और रहन-सहन पर पाश्चात्य सभ्यता ने यथेष्ट प्रभाव छोड़ा है। लेखिका इन सभी अवयवों पर अपने उपन्यास के चरित्रों और घटनाओं के माध्यम से बहुत कुछ कह जाती है।

युवावस्था में पदार्पण करते ही जहां हमारे शरीर में परिवर्तन होते हैं हमारी सोंच, हमारी अभिलाषाएं भी जाग्रत होती हैं। बिरमा, नंदू जैसे पात्रों की रचना करके अर्चना ने इस मनोवाज्ञानिक सत्य को उद्घाटित किया है। बिल्लो के सौदर्य को वर्णित करके वे एक विचित्र चरित्र की रचना करती हैं, जहाँ कितने ही जाति, धर्म, संप्रदाय के बंधन नारी की अदाओं से धूमिल हो जाते हैं। “…..बिल्लो भी अपनी इम्पोर्टेंस समझने लगी थी, सो अलग ही अदाएँ बिखेरती आराम-आराम से ऐसे चलती मानो मंडप में सीता जा रही हो ……बिल्लो कभी गली में कभी छत पर चाँद की तरह अपने दर्शन देती …उसके भक्तों की संख्या में उतरोत्तर वृद्धि हो रही थी…यहाँ लेखिका वयंग्य को ऊँचाई तक ले गयी है। एक और प्रयोग देखें-“… परेशान थी तो बस लुगाइयां जो अपने मर्दों की हरकतों से पहले ही बेजार थी। “अब ये मुई और जवान हो गयी।… जे रांड हमरी छाती पे मूंग दलने को ही जवान हुई है।“….” यहाँ लेखिका की चिंता उन स्त्रियों को लेकर है जो पति के चल-चलन से पीड़ित हैं। किसी लड़की का जवान होना भी उनके लिए बड़ी सिरदर्दी है। स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होना मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक रूप से एक सहज प्रक्रिया है जिसे लेखिका प्रेम-प्रसंगों के माध्यम से एक वास्तविक रूप देती है। स्नेह, वात्सल्य और प्रेम को चित्रित करना, लेखिका की दूर-दृष्टि और नजरों के पनेपन को प्रतिबिंबित करता है।

इस उपन्यास की एक बड़ी विशेषता है पात्रों का चरित्र चित्रण, गयाप्रसाद बाबू का वर्णन लेखिका ने कुछ यूँ किया है-“ इस गली के एक प्रतिभाशाली सदस्य हैं बाबू गयाप्रसाद चौबे जी। पूरे  मौहल्ले में अपनी अद्भुद मेधा शक्ति और व्यवसाय क्षमता के कारण प्रसिद्ध हैं। उनकी मेधा शक्ति समझने के लिए यह एक उदाहरण ही काफी है कि उन्होंने अपने बाप के जीते जी ही प्रोपर्टी अपने नाम करा ली थी। …पुत्तन बाबू का चित्रण कुछ यूँ किया गया है—पुत्तन बाबू… गया प्रसाद के मंझले बेटे हैं और,”माँ पर पूत पिता पर घोडा बहुत नहीं तो थोडा थोडा” की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूरे-पूरे पिता पर ही गए हैं, बल्कि एक दो कलाएं ज्यादा ही पाई हैं। ….पप्पू महाराज यानि छोटे नवाब के तो अंजाद ही निराले हैं। खुद को साक्षात् कृष्ण का अवतार मानते हैं, सो दिनभर गोपियों के पीछे घूमते हैं।…. सरला के चरित्र का वर्णन करते हुए लेखिका मानो वयंग्य के आसमान तक की सैर पाठको को कराने का उद्देश्य पूरा कर रही हैं….”नाम है सरला…पर सरलता तो मानो कई किलोमीटर दूर से निकल गयी है इनसे।…ये शायद दुनिया की पहली बेटी होंगी जो अपने मायके की बुराई और अपने ससुराल की तारीफों के पुल बाँधती है।“ इसी तरह बिल्लो के चरित्र को भी लेखिका चुटीले अंदाज में उभारती है….इन दिनों मोहल्ले की लड़की बिल्लो नयी-नयी जवान हो रही थी। उसकी चल में अजीब सी लचक थी । देखने में सुन्दर गोरी-चिट्टी बिल्लो का बदन भरा भरा था। ….स्कर्ट मोड़ घुटनों से जांघो तक करके चाल में एक्स्ट्रा लचक पैदा करना सीख गयी थी। इस तरह का चित्रण आधुनिक उपन्यास लेखकों की रचनाओं में कम ही मिलता है। ऐसे बेहतरीन चरित्र के ऊपर ही शायद लिखा गया-“ देखी मैंने क्या कही। जे अपने मोहल्ला के पानी में ससुरी मिलावट है, जो पैदा होवे बू सालो शरारत का पोटरा लेके ही पैदा होवे…. ।

उपन्यास में सिर्फ पुरुषों की कारगुजारियों का ही वर्णन लेखिका नहीं करती वरन उसके यहाँ लैंगिक समानता का पूरा स्कोप है। स्त्री में उपजी भावनाएं एक-दूसरे को शारीरिक रूप से आकर्षित करने के लिए स्वाभाविक रूप से उद्धेलित होती हैं ऐसा  ही कुछ उपन्यास में चित्रित है।..इस मेनका ने अपनी अदाओं के जादू का सीधा प्रसारण अपने कमरे से करना शुरू किया…जिसके दर्शको की संख्या में दिन पर दिन वृद्धि होने लगी। लेकिन शादीसुदा स्त्री ऐसा यकायक नहीं करती लेखिका ने उसके पीछे का कारण भी बताया है-“पति यानि बिरजू जी जितना बाहर की लड़कियों को छेड़ने में आनन्दित होते, पत्नी के सामने आते ही उनके बल्ब फ्यूज हो जाते हैं।तरह-तरह की जड़ी-बूटियां और शिलाजीत का सेवन भी बिरजू के किसी काम नहीं आया और पत्नी ने कुछ दिन तो अपनी भूख दबाकर रखी पर कोई कब तक व्रत कर सकता…. । यहाँ लेखिका जिस तरह से शब्दों को कलात्मक रूप से प्रयुक्त करती है वह देखने योग्य है।

यूँ तो उपन्यास का हर पात्र अपने आप में अनूठा है, लेकिन बसंती अपने आपमें एक अनूठी महिला है। ये मेनका अपनी अदाओ के जादू का सीधा प्रसारण अपने कमरे से करती है। लेखिका ने यहाँ जो वर्णन किया है उसे पोर्न मूवी के फिल्मांकन से अधिक प्रमाणिक रूम में समझा जा सकता है।बिल्लू से प्रेम भी अनायास नहीं है, इसे अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के साधन के रूप में देखा समझा जा सकता है।

यह उपन्यास लोकजीवन का अनूठा एवं सजीव चित्र प्रस्तुत करता है। जो लोग मथुरा के जन जीवन को करीब से समझते हैं उनके समक्ष यह उपन्यास पूरे लोकजीवन का प्रभावी साक्षात्कार करता है। अर्चना नए शब्दों का सर्जन करने में भी माहिर है- एक उदहारण देखिये-“ मुहल्ले में नई टेक्लनोलोजी यानि टेलिविज़न का पदार्पण हो चुका था। कुछ घरों की छतें एंटिना से शोभायमान हो चुकी हैं… और घर के लोग एंटिनासन करने में व्यस्त…!” यहाँ “एंटिनासन” शब्द को बिना किसी हो हल्ले के बड़ी तरकीब से गढ़ा गया है, और यही अर्चना की खूबी भी है।अर्चना की भाषा में मुहावरों की भरमार है लेकिन  सब उपन्यास में जरुरत के हिसाब से प्रयोग किये गए हैं, इन्हें जबरन ठुंसा नहीं गया है।

उपन्यास में तमाम तामझाम के बीच जो एक बात अंत तक पाठक की समझ आती है वह है “निम्न मध्यवर्गीय परिवार की समस्याएं”, जरूरतों के बोझ में दबा आदमी “कैलाशनाथ” के रूप में उपन्यास में उपस्थित है जो कभी हंसता है, कभी रोता है, आकांक्षाओं का अनंत आकाश हमेशा उसके ऊपर हावी रहता है। निम्न मध्यवर्गीय परिवार के दैनिक जीवन का जो चित्र अर्चना ने खींचा है वह  आप तमाम हिंदुस्तान की हर गली-मोहल्ले में देख सकते हैं।

अर्चना चतुर्वेदी अपने लेखन में एक सरल शैली का उपयोग करती है जिसमें वह अलग से कोई अनुप्रयोग नहीं करतीं, न ही कोई विशेष शैली ही अपनाती हैं, वह आसानी से शब्दचित्र प्रस्तुत करती हैं पाठक उन शब्दचित्रों में अपने जीवन की तलाश करते हुए खुद को उपन्यास में खोजने लगता है। ’गली तमाशे वाली’ में मथुरा के आम आदमी की गाथा है, ये लोग न तो पूरी तरह से शहरी हैं और न ही ग्रामीण जीवन ही जी पा रहे हैं, किराये के मकान से लेकर कर्फ्यू तक की  को झेलने को वे अभिशप्त हैं। कुल मिलाकर एक कस्बाई जीवन का वर्णन है ये उपन्यास।  इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद उपजे आक्रोश जैसी घटनाओं का समावेश लेखिका की संवेदना का प्रस्फुटन ही है। ये घटनाएँ कथा में प्रसंगवश प्रयुक्त की गयी है। उपन्यास के मूल में बेराजगारी, नशा, संयुक्त परिवारों का विघटन, और रिश्तो की आड़ में घिनौनी राजनीति, महिलाओं-उत्पीडन इत्यादि ही है। कैलाशनाथ के रूप में एक सम्पूर्ण चरित्र को लेखिका ने लिया है जो आजीवन संघर्ष करता है, नौकरी, परिवार की जिम्मेवारियाँ, पिता की ज्यादतियों का शिकार, मकान के नाम पर धोखा, यही सब उसकी जिन्दगी का सबब है। बेटों की नौकरी के बा दभी उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता अलबत्ता उसकी जिन्दगी का अंत जरुर हो जाता है।  जीवन की जितनी नाटकीयता हो सकती है उन सबकी भरमार है उपन्यास में-घुटन का शिकार आदमी, पति से मार खाती स्त्री, बहु-सास के झगडे, गिन्दायी, छेडछाड, गाली-गलौज, हंगामें,  पानी भरने के चलते झगडे, बिजली का हंगामा, लाउडस्पीकर, स्त्री व्यभिचार, जैसे न जाने कितने विषय हैं जिन्हें लेखिका मात्र छूती नहीं है अलबत्ता विस्तार से वर्णन भी करती है। हाँ इतना अवश्य है कि लेखिका उपन्यास में तमाम शब्दचित्र खींचती जरुर है, लेकिन वह चिंतन में समय और शब्द नष्ट नहीं करती, न ही उसका उद्देश्य  समाधान प्रस्तुत करना है, जो जैसा है उसे उसी रूप में लेखिका ने परोसने का प्रयास किया है।

लेखिका ने ब्रजभाषा को प्रमुखता से प्रयोग किया है। ब्रज भाषा की अधिकता उपन्यास के प्रवाह को कहीं कहीं बाधित अवश्य करती है लेकिन इसे एक प्रयोग के रूप में भी तब लिया जा सकता है, जब वह किसी लेखिका का पहला उपन्यास हो। उपन्यास का सबसे दुर्बल पक्ष(उलझन) है इसके पात्रों की अधिक संख्या, घटनाओं की भरमार और संवादों की ऊँचाई(हाईट), लेकिन लेखिका  के चातुर्य को नमन करना होगा कि वह उन्हें उस उलझन से निकाल लेती है कथा की धारा में आने के लिए। कथा अगर कहीं बहकती भी है तो वह जल्दी ही पाठक के जहन में पुनः जगह बना लेती है और पाठक नीरसता का अनुभव नहीं करता। सबसे विशेष बात इस उपन्यास का कथाक्रम है जो अंत तक बना रहता है उसमें एक निरंतरता है जो पाठकों को बांधे रखती है। कथा में कहीं भी ठहराव नहीं आता। कथोपकथन में स्वाभाविकता है। पाठक एक बार पढना शुरू करे तो पन्ना-दर-पन्ना पढने की ललक बनी रहती है।

एक कमी जो उपन्यास में खलती है, वह है प्रूफ रीडिंग। कुछ उर्दू के शब्द जिनके सही उच्चारण को जांचा नहीं गया। यहाँ टंकण और संसोधनकर्ता को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता अनुभव होती है। तथापि किसी भी लेखक के पहले उपन्यास से जो अपेक्षाएं हो सकती हैं उन पर यह उपन्यास खरा उतरता है, साथ ही आश्वस्त करता है कि इस लेखिका का भविष्य उज्जवल है। कहना न होगा कि साहित्य-जगत में इस तरह के उपन्यास कम ही देखने को नजर आते हैं, लेखिका के इस उपन्यास का साहित्य जगत में स्वागत किया जाना चाहिए। लेखिका को इस रचना के लिए शुभकामनायें।

समीक्षकः संदीप तोमर
जन्म: ७ जून १९७५ (गंगधाडी, जिला मुज़फ्फरनगर उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम्.एस सी(गणित), एम् ए (समाजशास्त्र व भूगोल), एम फिल (शिक्षाशास्त्र)
लेखन की विधाएँ: कविता, कहानी, लघु कथा, आलोचना
सम्प्रति: अध्यापन
प्रकाशित पुस्तकें: थ्री गर्लफ्रेंड्स (उपन्यास), सच के आस पास (कविता संग्रह), टुकड़ा टुकड़ा परछाई(कहानी संग्रह), शिक्षा और समाज (लेखों का संकलन शोध-प्रबंध), कामरेड संजय (लघुकथा), महक अभी बाकी है(संपादन, कविता संकलन),

पता: D 2/1 जीवन पार्क , उत्तमनगर, नई दिल्ली – 110059
मोबाइल नं: 8377875009
ईमेल :  gangdhari.sandy@gmail.com

 

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.