Saturday, July 27, 2024
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05 दिसंबर, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय पर प्राप्त कुछ पाठकीय प्रतिक्रियाएं

05 दिसंबर, 2021 को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीयक्या नई शिक्षा नीति की सच में ज़रूरत है…?’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं

नूतन पांडेय, दिल्ली

तेजेन्द्र जी, अति महत्वपूर्ण और  प्रासंगिक मुद्दों को रोचक ढंग से संपादकीय में उठाया गया है। निश्चित ही भारतीयों की कुछ खास विशेषताएं  हैं जो इन्हें विश्व के लोगों से अलग बनाती हैं। यह देश के लिए सुखकर है कि  जिन तत्वों को  भारतीय समाज की जटिलताएं और विविधताएं कहा जाता है वे ही उसे सहज और सरल बनाने के साथ उसे एकीकृत  भी करते हैं, मजबूती देते हैं। रही बात नई शिक्षा नीति की ,तो व्यवस्था में बदलाव लाने से पूर्व उसके लिए पूर्व तैयारी आवश्यक है, ऐसा करने से निश्चित ही भविष्य में सार्थक और सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित किये जा सकते हैं।

प्रो. आनंद सिंह, भोपाल

तेजेन्द्र जी, आपकी बात बहुत महत्वपूर्ण है। आपने बहुत सुचिंतित तरीक़े से कुछ उन अतिशय प्रभावी बिंदुओं की चर्चा की है जो अमूमन लोग नहीं सोचते। बहुत दूर तक आपसे सहमत हुआ जा सकता है। निःसंदेह पुरानी शिक्षा नीति ने इस तरह के महत्वपूर्ण भारतीयों को पैदा किया है जिन पर हमें गर्व होना चाहिए।

लेकिन यदि यह तर्क सही है तो हमें इन महत्वपूर्ण भारतीयों की तुलना कुछ उन भारतीयों से करनी चाहिए। मसलन स्वामी विवेकानंद, दाद भाई नौरोज़ी, बाल गंगानगर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सुब्रह्मण्यम भारती, काका कालेलकर, चक्रवर्ती राजागोपालाचारी, सुभाष चंद्र बोस, श्री अरविंद, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जवाहर लाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रतन टाटा, घनश्साम दास बिड़ला, डॉ होमी जे भाभा, जगदीश चंद्र बसु, वल्लभ भाई पटेल, डॉ विश्वेश्वरैया, डॉ हरगोबिंद खुराना, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला,  वग़ैरह वग़ैरह । ये सभी अंग्रेज़ी शिक्षकों देन हैं अथवा उससे उपजे लोग हैं। इन्होंने केवल भारत के लिए ही नहीं बड़ी मानवता के लिए भी बहुत कुछ किया। इनके आचरण से सीखा जा सकता है। इनका जीवन और कार्य अभी भी प्रासंगिक है।

मुझे नहीं मालूम है इंदिरा नूई या इनके जैसे अनेक अति महत्वपूर्ण भारतीयों का किसी देशी विदेशी कंपनी के हेड होने के अलावा क्या योगदान है!

क्या शिक्षा पद्धति का मूल्यांकन इस बात से किया जाएगा कि इसके कारण कितने लोग कंपनी के हेड बने? क्या पृथ्वी को नष्ट करने वाली जीवन दृष्टि का एजेंट बनना शिक्षित होना है? इस सुंदर पृथ्वी को उपभोक्तावाद के ग्रह में बदलने वाली तथा उसी पूँजीवादी विचार की ओर धकेलने वाली पर्यावरण की शत्रु दृष्टि पैदा करने वाली उपभोक्तामुखी शिक्षा महत्वपूर्ण मानी जानी चाहिए या हमें नए सिरे से सोचने वाली शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत है? जो व्यवस्था हमारे देश की रही है उसमें शिक्षकों अनेक मूल्य और मानदंड निर्धारित हैं। वह विश्व मैत्री के लिए बहुत अनिवार्य है। आज़ादी के बाद भारत जिस राह पर चला वह मूल्यहीन शिक्षा व्यवस्था का उत्पाद है जिसमें व्यक्तिगत उपलब्धियों की गुंजाइश और नुमाइश है। हमारे देश से पढ़ लिखकर देश की स्कॉलरशिप लेकर लोग बाहर चले गए। देश और गर्त में गया है। ब्रेन-ड्रेन!

क्या इन अति महत्वपूर्ण भारतीयों का जीवन भारत के एक आदमी को भी मुक्ति प्रदान कर सकता है। क्या उनका चिंतन भारत की देसी जनता से जुड़ा हुआ है? वग़ैरह… इस तरह से भी सोचने की ज़रूरत दिखती है।

इसलिए शिक्षा नीति को नए सिरे से निर्मित करने की ज़रूरत है।

अरुण सभरवाल, लंदन

निशब्द हूँ आपके उत्कर्ष सम्पादकीय और ऊर्जा को सलाम। परिवर्तन प्रकृति का नियम है ।शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करने से पहले हमें नई नीति के कमजोर और सशक्त  पहलुओं को देखना होगा। अपने अनुभव से  यही कहूंगी बचपन से ही हमें child centered approach और Independent learning को प्रोत्साहन देना होगा। क्योंकि हर  बच्चा अपने आप में individual होता है। उसका learning process भी अलग होता है।

तेजेन्द्र जी सार्थक लेख के लिए बधाई हो। आपके लेख हमारी सोच के आयाम को विस्तार करते है।

शन्नो अग्रवाल, लंदन

तेजेन्द्र जी, भारत में नई शिक्षा नीति को लेकर आपका यह नवीनतम सम्पादकीय बहुत विचारणीय व प्रशंसनीय है।

इसे पढ़कर हमें भारत की नई शिक्षा नीति पर सोचने को विवश होना पड़ता है कि भविष्य में युवाओं को वैश्विक स्तर में सफलता व ऊंचाइयों पर ले जाने में यह नई प्रणाली कितनी मददगार साबित होगी।

आपने अब तक के होनहार युवाओं की सफलता के पीछे जो कारण बतायें हैं उनकी पुष्टि करती हूँ। आप ऐसे तमाम लोगों के नाम सामने लाये जिन्होंने अपने देश का नाम ऊँचा किया है। और आपका यह कहना भी ठीक है कि अब तक विदेशों में बड़े पदों की उपलब्धियां प्राप्त करने वाले व अनेक क्षेत्रों में अपना परचम लहराने वाले भारतीय पुरानी शिक्षा प्रणाली के तहत ही पढ़े थे।

और उनकी सफलता के पीछे के कारण भी बताये।

ऐसे सफल लोग जिस देश में पले और बड़े हुए उनके संस्कार उन्हें विनम्रता व सहनशीलता सिखाते हैं। व बचपन से ही परिवारों में जुगाडूपन की आदतें सीखने वाले शीघ्र ही दूसरे देशों में कम सामान व कम पैसे में रहने के अभ्यस्त हो जाते हैं। और अपना आत्मविश्वास, लगन व उत्साह नहीं खोते।

ऐसे लोग जिस देश में रहते हैं वहाँ की नीति व वहाँ की तहजीब का सम्मान करने में अपनी भलाई समझते हैं। और अपनी  मुख्य धारा से जुड़कर भी वह उस देश के नियमों का खंडन नहीं करते। उग्रवादी बनकर अजीब मांगें न रखकर शांतिपूर्वक रहने  में ही अपनी भलाई समझते हैं।

यह तमाम बातें भारत से आने वाले लोगों को विशेष बनाती हैं।  तमाम लोगों ने अब तक अपनी योग्यता के बल पर सफलता का शिखर छूकर भारत को गौरवान्वित किया है।

विदेशों में काम करने के लिये अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ होना जरूरी है जो उन्हें पुरानी शिक्षा प्रणाली से मिली है। इसीलिये अब नई शिक्षा प्रणाली को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है।

समीक्षा तेलंग, पुणे

बहुत अच्छा विचारणीय संपादकीय।

एक बात इसमें जोड़ना चाहूंगी कि अभी मैं यहां महाराष्ट्र के पुणे में रहती हूं। यहां की पूरी पढ़ाई मराठी में होती है। स्टेट बोर्ड के स्कूलों में। बच्चों की ग्रास्पिंग पॉवर अपनी भाषा में सबसे अच्छी होती है। यहां की संस्कृति से यदि आप वाकिफ होंगे तो बहुत खुलापन रहा है शुरू से ही। सोच, विचार सबमें। शिक्षा की वजह से यहां गरीबी और अपराध बहुत कम हैं। लेकिन ज्यादातर सभी अपनी मातृभाषा मराठी में पढ़े हुए होते हैं। इस वर्ष से इंजीनियरिंग का पाठ्यक्रम भी मराठी में आ गया। यहां के लोगों ने उसका खुलकर स्वागत किया है। उन्हें अपनी भाषा में पुस्तकें भी उपलब्ध हैं।

डा. तारा सिंह, गोरखपुर उ.प्र.

तेजेन्द्र शर्मा जी पुरवाई का संपादकीय ” क्या नई शिक्षा नीति की सच में जरूरत है?” पढ़ लिया। इसका शीर्षक   वास्तव में नई शिक्षा नीति भारत के समसामयिक मुद्दों में से एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है।

यकीनन इस प्रश्न का भारतीय युवा पीढ़ी से ,जो देश के कर्णधार यानी भारत के भविष्य है , से सीधा अंतर संबंध है। ज़ाहिर है उक्त प्रश्न पर पाठकों का अपनी-अपनी सोच के अनुसार सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के उत्तर होगा ..

मगर मध्यम मार्गीय अवधारणा के अनुसार… पुराना सब खराब नहीं होता, नया सब अच्छा नहीं होता… इसके मद्देनजर मेरा अपना मानना है कि, इस  कथ्य,  तथ्य पर विचार करते हुए हमें पुरानी शिक्षा नीति की  खूबियां व खामियां और नई शिक्षा नीति की खूबियों व खामियों के मद्देनजर  समग्र रूप से धरातलीय  विचार करना प्रासंगिक होगा।

भारत के भविष्य को उन्नत फ़लक  प्रदान करने की मंशा से, समग्र स्वायत्तता के साथ राष्ट्रीय विकास को ध्यान में रखते हुए उक्त प्रश्न विचारणीय होना चाहिए।

“क्या नई शिक्षा नीति की सच में जरूरत है?”  प्रश्न पर मैं यह मानती हूँ कि ये नयी शिक्षा नीति भारत में कहां तक कारगर हो सकती है… इसे परखने, समझने के लिए सुधार के विकल्प  रखते हुए, इसे लागू करना आवश्यक है।

मेरे विचार से में वर्तमान आधुनिक, बहुआयामी प्रगति के दौर में, पुरानी शिक्षा नीति पर ही चलते रहने का औचित्य नहीं दिखाई दे रहा है। वास्तविकता के धरातल पर वैश्विक स्तर पर , रफ्तार पकड़ने हेतु भी भारतीय शिक्षा पद्धति में बदलाव किया जाना अत्यंत आवश्यक है। दरअसल किसी भी नीति, विचार, सिद्धांत को व्यवहारिक धरातल पर परखने पर ही उसकी अच्छाई , बुराई परिलक्षित हो सकती है।

तेजेन्द्र जी आप द्वारा, इस संपादकीय में भारत की  प्रमुख विशेषता “अनेकता में एकता” का उल्लेख किया गया है। यूं भारतीयता का मानवीय स्वरूप भी तो यही है। जहाँ भिन्न-भिन्न जाति , धर्म , कौम के लोग समन्वित रूप से आपसी परस्पर प्रेम भाव एवं आपसी सहयोग के साथ रहते हैं… इसी ख़ास  गुण के कारण भारतीय संभवतः हर परिस्थिति में, हर जगह अपने को साधने में सक्षम होते हैं।

अतः नए परिवेश के मद्देनज़र… इस नई शिक्षा नीति के लागू होने पर भी , भारतीय शिक्षार्थी स्वयं को उत्कृष्ट करने के लिए सतत्  प्रयत्नशील होकर प्रतिस्पर्धा में  अग्रसर रहेंगे। बस आवश्यकता है सतत् सुधार के लिए हमेशा  और विकल्प  खुले रहने चाहिए।

अतः एक महत्वपूर्ण समसामयिक , विचारणीय संपादकीय के लिए पुरवाई के संपादक तेजेन्द्र शर्मा जी को मैं हार्दिक बधाई देती हूँ… क्योंकि आपने इस महत्वपूर्ण शैक्षिक मुद्दे पर  बुद्धिजीवी पाठकों और विचारकों को नई शिक्षा नीति  मुद्दे पर, देश-हित में, पुनः  पढ़कर, समझकर, विचार कर, अपने सुझाव प्रेषित करने के लिए ध्यान आकर्षित किया है।

उषा साहू, मुंबई.

नमस्कार तेजेन्द्र जी,

हमेशा की तरह एक नए विषय को लेकर प्रस्तुत किये गए संपादकीय के लिए आभार अभिनंदन, जिसमें आपने विदेशों में, उच्च पदों पर आसीन भारतीयों की विस्तृत जानकारी दी है। ये तो वे नाम हैं जो विदेशों में सर्वोच्च पदों पर हैं।  इसके अलावा विधि विभाग में, चिकित्सा विभाग में, इंजीनियरिंग में, आईटी में भारतीयों का ही वर्चस्व है ।

इस विषय को लेकर पाकिस्तानियों के बारे में कुछ नहीं कहना । उनका किस में बोल–बाला है, दुनिया से छिपा नहीं है।

ऊपर जिन गणमान्य व्यक्तियों की बात की गई है, वे हमारी इसी शिक्षा प्रणाली की उपज हैं। इसके अलावा सुश्री कमला हैरिस और सुश्री प्रीति पटेल जैसे नाम भी हैं, जो इस बात का सबूत है कि वहाँ के प्रशासन में भी भारतीय शामिल हैं।

जैसा कि आपने बताया है भारत में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो विशेषतः उनकी प्रगति का कारण बनती हैं।  जैसे सभी तरह के लोगों के साथ समन्वय करना, जैसे हालत है उसमें निर्वाह करना, माता-पिता का आदर करना, जिससे उनके दबाव में आकार पढ़ाई पर ध्यान देना जैसे कई बातें हैं जो उन्हें दुनिया से अलग रखती हैं। चूंकि भारत एक बहुभाषी देश है, ऐसे में 2-3 भाषाओं की जानकारी होना लाजिमी है। फिर लोकतंत्र होने की वजह से हम निर्णय लेने की क्षमता भी रखते हैं ।

नई शिक्षा नीति का ढांचा क्या है, यह स्पष्ट नहीं है। वर्तमान शिक्षा नीति में थोड़ा-बहुत सुधार तो किया जा सकता है, पूर्णतया बदलना,  अनावश्यक मुश्किलों का कारण बन सकता है। जैसा कि आपने कहा है, अध्यापकों को प्रशिक्षित करना होगा। जब सभी लोग शून्य होगे तो प्रशिक्षित करेगा कौन ? नई प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध कराने में ही कई वर्ष बीत जाएंगे ।

अत: जैसा है ठीक है, की प्रक्रिया में चलते रहना ही उचित है । धन्यवाद,

राजेश कुमार 

आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है कि स्थानीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों का अभाव है परन्तु साथ ही यह बिंदु भी विचारणीय है कि क्यों नहीं है?

उत्तर है कि उनकी अभी तक माँग ही नहीं थी तो होती भी कैसे और किसके लियेl मेरा विश्वास है कि बहुत अच्छे स्तर की पुस्तकें हमारी कल्पना से भी अधिक और शीघ्र उपलब्ध हो जाएंगीl बात शुरुआत करने की थी जो हो चुकी हैl

हम तो तन्हा ही चले थे…… वाली बात हैl बात की बात में कारवाँ बन जाता हैl

एक और बिंदु है भारतीय लोगों में एक प्यास होती है… होड़ लगाने की जो हमें बाकी देश के लोगों है अलग करती हैl

निस्संदेह विचारोत्तेजक लेखl आपको साधुवाद

यतिन त्रिखा, फ़रीदाबाद

एक ऐसे ही कार्यशाला में मुझे भी बैठने का मौका मिला था।

नई शिक्षा नीति एक अध्यापक की नज़र से बिल्कुल भी स्पष्ट नही है। कई बड़े बदलाव एक साथ किये जायेंगे जिसके लिए न तो अध्यापक तैयार न ही स्कूल का इंफ्रा-स्ट्रक्चर।

सबसे बड़ी बात कुछ एक वर्कर और अध्यापक पूरी तरह से काम से जाएंगे।

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