Thursday, May 16, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – पिता की विदाई

“तुम आ गईं, जीजी?” नर्सिंग होम के उस कमरे में बाबूजी के बिस्तर की बगल में बैठा भाई मुझे देखते ही अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ|
“हाँ,” मैंने हलके से उसे गले लगाया, “बा कैसे हैं?”
बाबूजी की आधी खुली आँखें शून्य में देख रही थीं|
वहाँ क्या मृत्यु थी?
किसी आधे खुले दरवाज़े पर?
चौखट की मुठिया थामे?
पायदान पर खड़ी?
बिना अड़ानी के?
“अभी कुछ कहा नहीं जा सकता|” भाई ने मुझे अपनी कुर्सी पर बैठने का संकेत दिया|
“आपकी चाय|” मुझे यहाँ पहुँचाने आई भाभी ने चाय की थरमस भाई के हाथ में दे दी|
बाबूजी के बिस्तर के अलावा कमरे में एक दूसरी चारपाई और यह कुर्सी रही|
मैं कुर्सी पर बैठ ली| बाबूजी से संबद्ध दो नलियों के बीच| बाबूजी के हाथ की नली उनके सिरहाने वाली ग्लूकोज़ की बोतल से जुड़ी थी और उनकी पैताने वाली नली पेशाब जमा करने वाले एक थैले से|
“बा!”  मैंने उन्हें पुकारा|
“राणु?” उनकी आँखें शून्य से हट लीं, “कहाँ से?”
“इधर, अपने घर से…..|”
अपने विवाह के उस छब्बीसवें वर्ष में भी बाबूजी और भाई के सामने उन्हीं के घर को मैं अपना घर बताया करती| मेरे पति का घर ‘उधर’ ही रह जाया करता|
“कस्बा रोड से?” कस्बा रोड का नाम बाबूजी के होंठों पर पिछले तीन वर्षों में पहली बार आया था| अपनी आदत के मुताबिक वे छूटी हुई जगहों के बजाय हमेशा मौजूदा जगहों की ही बात करते|
“हाँ,” मैंने कहा, “कस्बा रोड से|” कस्बा रोड पर हमारा पुराना घर रहा| बाबूजी का बनवाया हुआ| कस्बापुर में| जहाँ सन् तैंतालीस से लेकर सन् इक्यासी तक बाबूजी अंग्रेज़ी के प्रवक्ता रहे थे| लेकिन तीन साल पहले जब भाई की बदली इधर बस्तीपुर में हुई तो कस्बापुर वाला मकान बेचकर भाई ने इधर अपना मकान बनवा लिया था|
“यह कैसा ज़ख्म है?” बाबूजी के नली वाले हाथ में एक नीली खरोंच और सूजन थी|
“बाबूजी ने कल हाथ वाली अपनी यह नली ज़ोर से खींचकर अलग कर दी थी|” भाभी ने कहा|
“कल बा बहुत बेचैन थे,” भाई बोला, “घर लौटने की ज़िद कर रहे थे…..|”
“तुम्हारा नाश्ता?” बा ने मेरी ओर देखा|
“लो, चाय लो|” भाई थरमस की दिशा में बढ़ लिया|
“नहीं,” मैंने धीमे स्वर में उत्तर दिया, “आज मैं उपवास रखूँगी…..|”
“ज़ोर मत दीजिए,” भाभी ने कहा, “अम्माजी के टाइम भी जीजी ने उपवास रखे थे…..|”
“उस वक्त हालात और थे,” भाई ने कहा, “वे पूरी बेहोशी में जा चुकी थीं|”
आठ साल पहले माँ की मृत्यु उनके दिमाग की नस के रक्तस्त्राव से हुई थी-कस्बापुर के सरकारी अस्पताल के इंटेन्सिव केयर यूनिट में दाखिल होने के पाँचवे दिन…..
“लीला?” बाबूजी चौंके|
“नहीं| बात चाय की हो रही है, बा!” माँ की मृत्यु के बाद से माँ का उल्लेख मैं केवल बाबूजी के साथ ही किया करती| अकेले में| माँ के संग भाई और भाभी के संबंध विशेष सुखद न रहे थे|
“चाय? लीला ने बनाई है? मलाई वाली?”
जब तक माँ जीवित रहीं घर में आए सारे दूध की मलाई का प्रयोग केवल चाय के लिए होता| मलाई से घी न बनाया जाता|
“ब्लड प्रेशर और टेम्परेचर लेना है|” नर्सिंग होम की वे दोनों नर्सें सरकारी अस्पतालों वाली  सफेद पोशाक में न रहीं, नीले सलवार-कमीज़में रहीं, सफेद दुपट्टों के साथ|
बाबूजी का ब्लड प्रेशर एक सौ बीस, अस्सी था और बुखार एक सौ दो डिग्री|
“बुखार ठीक नहीं,” भाई ने कहा, “मैं डॉक्टर से पूछकर आता हूँ|”
“बा!” मैंने बाबूजी का हाथ पकड़ लिया| नली वाला| उनका दूसरा हाथ दीवार की तरफ था|
“पंखा तेज़ कर लो, राणु!” बाबूजी ने मेरी ओर देखा| अपने कमरे के पंखे को वे सामान्यतः दो नंबर से ज़्यादा कभी न चलने देते, लेकिन मुझे देखते ही वे पंखे का नंबर हमेशा चार या पाँच पर ले आया करते|
“बाबूजी ने इतनी गरमी पहले कभी नहीं मनाई,” भाभी बोली, “पिछले पूरे हफ्ते से अपना पंखा पाँच पर किए हैं…..|”
“पानी|” बाबूजी बुदबुदाए|
“डॉक्टर ने ज़्यादा पानी देने को मना किया है|” बोतल में रखे पानी को एक कटोरी में परोसते हुए भाभी ने कहा|
जैसे ही मैं चम्मच बाबूजी के होंठों के पास लेकर गई, उन्होंने मुँह खोल दिया| एक शिशु के अंदाज़ में|
“ज़्यादा पानी मत पिलाना,” इतने में भाई अंदर चला आया, “देखो तो इनका पेट पहले कभी इस तरह फूला रहा?”
उनका पेट वाकई अपने स्वाभाविक तल से काफी ऊँचा रहा|
“ठीक है|” हाथ की कटोरी और चम्मच मैंने भाभी को थमा दिए|
“यह आपकी बहन हैं?” आगंतुक ने एक सफेद एप्रेन पहन रखा था|
“आइए, डॉक्टर साहब!” भाई ने उसके अभिवादन में अपने हाथ जोड़े और मुझे उसका परिचय दिया, “डॉक्टर विज इस शहर के सबसे कुशल सर्जन माने जाते हैं और इनका रिकॉर्ड है, इनके इस नर्सिंग होम में आज तक कोई कैज़्यूल्टी नहीं हुई…..|”
“मेरा कहा अब मत टालिए,” डॉक्टर विज की आयु पैंतीस और चालीस के बीच की रही, “बाबूजी का ऑपरेशन हो जाने दीजिए…..”
“ऑपरेशन?” मैंने पूछा|
“आइए,” भाई ने मुझे बाहर आने का संकेत दिया, “उधर बात करते हैं…..|”
“किस हिस्से का ऑपरेशन?” कमरे के बाहर के बरामदे में पहुँचते ही मैंने पूछा|
“बड़ी अंतरी के निचले हिस्से का|” डॉक्टर ने कहा|
“कोलन का?” मैंने पूछा| कोलाइट्स की मेरी बीमारी पुरानी थी और कोलन की मेरी जानकारी विस्तृत रही, “वहाँ पौलिप्स हैं क्या?”
“नहीं, जौएट सिगमोएट डायवरटिकुलम| उसका सर्जिकल रिसेक्शन ज़रूरी है|” डॉक्टर ने कहा|
“बाबूजी की लंबी कब्ज़ का कारण भी वही रहा,” भाई बोला, “कल सभी लेबोरेटरी टेस्ट्स हुए थे| साथ ही अल्ट्रासाउंड, सी. टी. स्कैन, एक्स-रे…..”
“एक्स-रे?” मैंने डॉक्टर को घूरा, “लेकिन मैंने सुन रखा है कोलन की अंदरूनी जाँच के लिए एक्स-रे तनिक कारगर नहीं-कोलोनास्कोपी या बेरियम एनीमा बेहतर रहता है…..?”
“चुप रहो,” भाई ने मेरी कुहनी दबाई, “चुप रहो…..|”
‘इन अ केस ऑफ डाएवर्टिक्युलाइट्स अ कोलोनोस्कोप और बेरियम कैन लीड टू परफोरेशन (कोलोनोस्कोप अथवा बेरियम को कोलन में ले जाने से डाएवर्टिक्युलम के वेधन का खतरा रहता है)|” डॉक्टर विज ने कहा|
“आप हमसे बेहतर जानते हैं,” भाई ने डॉक्टर से कहा, “आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिए…..|”
“मुझे अपने तीन साथियों को बुलाना पड़ेगा; मरीज़ के निश्चेतन के लिए एनिस्थैटिस्ट को, मरीज़ के दिल को वश में रखने के लिए कार्डियोलोजिस्ट को और ऑपरेशन में मेरी सहायता करने के लिए अपने एक सहचारी सर्जन को….. सभी अपनी फीस एडवांस में लेंगे…..|”
“क्यों नहीं?” भाई ने कहा, “आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिए, दस मिनट के अंदर आप द्वारा बताई गई रकम आपके पास जमा हो जाएगी…..|”
“आप उधर मेरे कमरे में आइए| धागे, इंजेक्शन, लोशन, ऑक्सीजन सिलेंडर और ताज़े खून का भी प्रबंध करना पड़ेगा…..|”
“एक मिनट|” डॉक्टर के साथ दूसरी दिशा में जा रहे भाई को मैंने रोक लिया|
“क्या है?” भाई झल्लाया|
“ऑपरेशन करना ज़रूरी है क्या?”
“हाँ|” भाई खीझा|
“हम उन्हें घर ले चलते हैं…..|”
“और घर ले जाकर क्या करेंगे? उनकी मौत का इंतज़ार?”
“हाँ,” मैंने कहना चाहा, “मंदगति उनकी मृत्यु को उसकी चाल-सीमा से तेज़ चलाना ज़रूरी रहा क्या?”
किंतु मैं चुप लगा गई|
“तुम कुछ नहीं जानती| तुम कुछ नहीं समझती| मैं सब जानता हूँ| सब समझता हूँ| पूरी दो रातें मैं उनके साथ जागता रहा हूँ| पूरे दो दिन मैं उनके पास बैठा रहा हूँ| जिस परेशानी से वे गुज़र रहे हैं, उस परेशानी से मैं वाकिफ हूँ, तुम नहीं…..|”
“प्रभु!” मैंने अपने कदम बाबूजी के कमरे की ओर बढ़ा लिए, “हे प्रभु! बाबूजी का ऑपरेशन न होने पाए….. उनके ऑपरेशन से पहले तुम उन्हें अपनी शरण में ले लो, कृपा से, शांति से, सहज में…..”
“डॉक्टर क्या कहता है?” भाभी ने पूछा|
“ऑपरेशन,” अंदर उमड़ रही मेरी रुलाई ने मुझे आगे बोलने न दिया|
“पानी|” बाबूजी बुदबुदाए|
“देना है क्या?” भाभी ने पूछा|
“दे देते हैं|” मैंने कहा|
“मैं पिलाता हूँ|” कमरे में लौट रहे भाई ने पानी की कटोरी हाथ में ली और स्नेहिल, कोमल भाव से चम्मच बाबूजी के मुँह तक ले गया|
“बस्स बा,” दो चम्मच पिलाने के बाद भाई ने बाबूजी के गाल सहलाए, “अब फिर थोड़ी देर बाद पीना…..|”
भाभी ने भाई के हाथ से कटोरी और चम्मच ले लिए|
“हमें घर जाना पड़ेगा,” भाई ने भाभी से कहा, “ऑपरेशन के लिए सामान खरीदना है…..|”
“चलिए,” भाभी भाई के साथ कमरे से बाहर निकल लीं|
कमरे में अब हम अकेले रह गए|
बाबूजी और मैं|
“हे प्रभु!” मैंने अपनी नई प्रार्थना दोहराई, “बाबूजी का ऑपरेशन न होने पाए, न होने पाए, न होने पाए…..|”
उनकी मृत्यु का पदचाप मैं उनके साथ सुनना चाहती थी, उनकी मृत्यु का आलिंगन उनके साथ देखना चाहती थी, उनकी मृत्यु की थपकी का दाब उनके साथ महसूस करना चाहती थी| मैं चाहती थी, मृत्यु उन्हें ऐसे लेकर जाए जैसे कोई माँ अपने बीमार बच्चे को अपनी गोदी में लेती है; निर्विघ्न, शांतचित्त, सगुनिया नींद की तरह, शामक मरहम की तरह…..
“एंटीबायोटिक दवा का यह सिलंडर हमें ग्लूकोज़ की जगह यहाँ लगाना है|” इस बार की दोनों नर्सें दूसरी रहीं, पहले वाली नहीं|
बाबूजी के हाथ की नली का जुड़ाव उन्होंने ग्लूकोज़ की बोतल से हटाकर अपने साथ लाई उस नई बोतल से कर दिया|
“जाँच के लिए खून भी लेंगे|” उनमें से एक नर्स ने बाबूजी की उँगली अपने हाथ में ले ली|
सिरिंज की चुभन बाबूजी ने महसूस की और अपनी आँखें पूरी तरह खोल लीं| मुझे सामने पाकर वे चमकीं|
“धन्यवाद|” दोनों नर्सें कमरे से बाहर हो लीं|
“किसने बताया?” बाबूजी ने पूछा| मेरी उपस्थिति क्या अब दर्ज हुई थी?
“मैंने फोन किया था,” मैंने बाबूजी की हथेली सहलाई, “और आप घर पर नहीं थे…..|”
“हाँ,” बाबूजी की आवाज़ पहले से कुछ मज़बूत हुई, “दो दिन पहले मुझे एक खराब उलटी आई थी| बाइल की| फिर वे मुझे डॉक्टर विज के नर्सिंग होम में ले गए थे| लेकिन मुझे वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगा और मैं घर लौट आया…..|”
“वहाँ क्या अच्छा नहीं था?” उनके भुलावे को मैंने दूर न किया| उनके चेतन-अवचेतन, क्षिप्त-विक्षिप्त, पहचाने-अनजाने चित्त की थाह लेने की खातिर|
“बिस्तर की चादर के नीचे वहाँ मोमजामा बिछा था…..|”
“क्यों?”
एकाएक उनके हाथ अपनी चादर के नीचे चले गए|
“यहाँ भी देखो….. यहाँ भी….. इन्हें भी डर है, मैं बिस्तर गीला कर दूँगा…..|”
“इन्हें मालूम नहीं है,” उनकी हथेली मैंने अपने दोनों हाथों से ढक ली, “और वहाँ क्या अच्छा नहीं था?”
“कहाँ?”
“उस नर्सिंग होम में?”
“डॉक्टर विज| वह मेरा ऑपरेशन करना चाहता था…..|”
“ऑपरेशन में क्या बुराई है, बा?”
“डेथ हैज़ अ थाउज़ंड डोरज़ 
टू लेट आउट लाइफ/आए शैल फाइंड वन…..”
एमिली डिकिन्सन की कविता उन्होंने उद्धृत की| मृत्यु के पास जीवन को ले जाने के हज़ार दरवाज़े हैं, मैं एक का पता लगा लूँगा…..
“लेकिन ऑपरेशन में कोई बुराई नहीं है बा,” मैंने कहा, “उससे आपकी कब्ज़ दूर हो जाएगी…..”
“तुम ऐसा सोचती हो?”
“हाँ, बा|”
“हे प्रभु,” मैंने अपनी प्रार्थना की आवृत्ति शुरू की, “तुम बा को ऑपरेशन से पहले देहमुक्त कर देना….. देहमुक्त कर दो, देहमुक्त कर दो…..”
“तुम्हारे नाम मैंने अलग से कुछ नहीं रखा, राणु!” उनकी आँखों में आँसू तैरने लगे| गालों पर बहने लगे|
“ठीक किया,” अपने दुपट्टे के छोर से मैंने उनके आँसू पोंछ दिए, आलोक ठीक हकदार है| उसने आपकी अच्छी देखभाल की है…..|”
माँ की मृत्यु के दो-एक वर्ष बाद उन्होंने मेरे पास रहने की इच्छा प्रकट की थी| स्थायी रूप में| मगर मैं टाल गई थी| ‘उधर’  हमारा फ्लैट छोटा था| दरवाज़े में घुसते ही हमारी बैठक थी, फिर एक छोटा कमरा और रसोई और उसके बाद एक दूसरा कमरा| बस्स| हमारी बैठक मेज़-कुर्सियों से भरी थी, खाने की, बैठने की, सजावट की| छोटा कमरा हमारी बेटियों की शादियों से पहले की अलमारियों से भरा था और दूसरा कमरा मेरे पति की किताबों से| किताबों के बीच मेरे पति सोया करते और अलमारियों के बीच मैं| ऐसे में बाबूजी को किधर ठहराया जा सकता था?
“आलोक कहाँ है?” बाबूजी ने पूछा, “उसे बुलाओ…..|”
“वह आपके लिए दवा लेने गया है…..|”
“दवा?” वे झल्लाए, “दवा तो इधर मेरी अलमारी में कितनी रखी हैं…..|”
उन्होंने बिस्तर से उठना चाहा|
“आप मत उठिए, बा| दवा मैं सारी यहीं ला देती हूँ…..|”
“मुझे अपना कुर्ता भी बदलना है|” घर पर भी जैसे ही मैं गेट से उनके कमरे में पहुँचती वे अपने कपड़ों की तरफ ज़रूर देखने लगते और जब कभी वे कुर्ते-पाजामे में रहते तो पहला मौका मिलते ही कमीज़ और पतलून पहन लेते| सर्दियों में तो कोट भी ज़रूर पहनते, शॉल उतार देते|
“नहीं,” मैंने उनका हाथ सहलाया, “आपका कुर्ता बिलकुल ठीक है…..|”
“स्पिवैक पर तुम्हारे विद्यार्थी का काम कैसा चल रहा है?” वे सहज हो गए| स्नातकोत्तर मेरे कॉलेज में कुछ विद्यार्थी एम. ए. द्वितीय वर्ष के एक पेपर के एवज़ में शोध-निबंध लिखा करते हैं, हम अध्यापकों के निरीक्षण में|
“बताऊँगी| बाद में बताऊँगी…..|”
साहित्य में उनकी रूचि ने यदि उन्हें उनके लोहे के पुश्तैनी कारोबार से विलग किया था तो मुझे मेरे विज्ञान विषयों से| हाई स्कूल की अपनी परीक्षा में विज्ञान विषयों में नब्बे प्रतिशत अंक पाने के बावजूद बाबूजी ने मुझे मेरी प्री. यूनिवर्सिटी में विज्ञान विषय छुड़ा दिए थे ताकि उनके साहित्य-प्रेम की बपौती मेरे द्वारा वितान पा सके| उस समय सातवीं में पढ़ रहा भाई चुटफुट कार्टून कॉमिक्स से आगे न बढ़ा था जबकि उसकी उम्र तक पहुँचते-पहुँचते आसान अंग्रेज़ी में रूपांतरित अनेक रूसी, अमरीकी और ब्रितानवी उपन्यास मैं निगल चुकी थी| बाबूजी के कॉलेज के पुस्तकालय के बूते परl
“प्रभु!” मैं रोने लगी, “हे प्रभु! तुम उनके ऑपरेशन से पहले उन्हें स्वीकार लो, वे निष्प्राण हों तो मेरे सामने, उन अजनबी, बेगाने डॉक्टरों के सामने नहीं….. उनकी छुरियों की कड़कड़ाहट के बीच नहीं…..”
“सामान मैंने डॉक्टर विज को ला दिया है,” भाई पसीने से तर था, “दूसरे डॉक्टर भी पहुँच चुके हैं| ऑपरेशन की तैयारी अब पूरी है…..|”
“आलोक,” बाबूजी ने भाई को पुकारा, “मेरे दस्तखत ले लो…..|”
“मेरे पास हैं, पूरे दस्तखत हैं|”
“इधर बैठो…..”
भाई कुर्सी पर बैठ गया|
“लीला के बक्से में एक जगह पाँच हज़ार रखा है और मेरी अलमारी में बारह सौ…..”
“घर आकर मुझे बताना,” भाई कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, “मुझे कुछ समझ में नहीं आया…..|”
“मैं समझ गई हूँ,” मैं तुरंत कुर्सी पर बैठ ली, “बाबूजी कहते हैं, पाँच हज़ार…..”
“चुप हो जाओ,” भाई ने कहा, “मुझे तुम्हारे समझाने की कोई ज़रुरत नहीं…..”
“मेरी राणु बहुत समझदार है,” बाबूजी ने मेरी ओर अपना दूसरा खाली हाथ बढ़ाया| मेरी मर्यादा बनाए रखने हेतु|
“डॉक्टर आपका ऑपरेशन करना चाहते हैं,” भाई ने बाबूजी का बायाँ हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया, “ऑपरेशन से आपकी आँत की तकलीफ दूर हो जाएगी…..”
“अच्छा जी|” भाई के प्रति अपनी आस्था वे इन्हीं रीतिक और औपचारिक शब्दों में व्यक्त किया करते|
भाई की आँखों में आँसू आ गए और अपने आँसुओं के साथ वह कमरे से बाहर हो लिया|
“ही इज़ गोइंग (वे जा रहे हैं),” मैं भाई के पास जा पहुँची|
“क्या?”
“उनका ऑपरेशन नहीं होना चाहिए…..”
“चुप करो,” भाई डॉक्टर विज के कमरे की ओर बढ़ लिया|
“बा!” मैं कमरे में लौट आई| अपनी कुर्सी पर|
“ऑल द बेस्ट,” मैंने उनका हाथ चूमा| बिलकुल उसी तरह जैसे मैं स्टेशन पर अपनी गाड़ी छूटने से ऐन पहले चूमती थी| उनसे विदा लेते समय…..
“ठीक है,” उन्होंने मेरा हाथ हिलाया| एक स्नेहिल हैंडशेक के अंतर्गत| एक मुस्कान के साथ|
विदा देते समय वे इसी तरह मुस्कराया करते| भावी विमुक्ति को समायोजित करते हुए| विस्तीर्ण दार्शनिक स्वीकृति के साथ|
“हे प्रभु!” मैंने उनका हाथ फिर चूम लिया, “उनके ऑपरेशन से पहले उन्हें देहमुक्त कर देना, देहमुक्त कर दो, देहमुक्त कर दो…..”
“कैसे हैं, बाबूजी?” ब्लड प्रेशर और बुखार लेने पहले आई नर्सें भाई के साथ चुपके से कमरे में आ खड़ी हुईं|
दोनों नलियाँ उन्होंने बाबूजी से अलग कर दीं और पेशाब का थैला लेकर बाहर चली गईं|
तभी स्ट्रेचर के साथ वार्डबॉयज़ प्रकट हुए|
मैं अपनी कुर्सी से उठ गई| भाई ने वह कुर्सी एक कोने में जा टिकाई|
वार्डबॉयज़ ने स्ट्रेचर बाबूजी के बिस्तर के बराबर पटवार दिया|
दीवार की तरफ जाकर भाई ने उनकी सहायता लेकर बाबूजी को स्ट्रेचर पर अंतरित कर दिया|
दो कमरों के बाद हम उस नर्सिंग होम के ऑपरेशन थिएटर के बाहरी कमरे में पहुँच लिए|
“आप यहीं रूक जाना|” वहाँ दूसरी नर्सें रहीं और उन्होंने मुझे आगे जाने से रोक दिया|
लेकिन जब वे सब आगे निकल गए तो मैं उनके पीछे हो ली|
ऑपरेशन थिएटर बड़ा था| अच्छा बड़ा| वातानुकूलित| उसकी मेज़ भी अच्छी-खासी थी| अपने-अपने आधार पर खड़े सरकवें बल्ब भी अच्छी तेज़ रोशनी फेंक रहे थे| अपनी-अपनी नींव पर खड़ी तरंगी मशीनें अच्छी कूज कर रही थीं| विभिन्न ट्रेओं में रखी सर्पीली कैंचियाँ और छुरियाँ अच्छी चमक रही थीं|
स्ट्रेचर जैसे ही ऑपरेशन की मेज़ पर पहुँचा हरे एप्रेन और हरे मुखावरण भी वहाँ पहुँच लिए| अपने खाली दस्तानों वाले हाथों के साथ|
अभिलाषी, बुभुक्षु मृत्यु को खुले हाथों भोज देने? अचिर?
मुक्तहस्त भेंट करने उसे विपुल निवाले? तत्काल?
अधिकाराधीन सौंपने उसे चारा लगे ग्रास? अविलंब?
बाबूजी को वहाँ मेज़ पर बिछाकर…..
“हम कमरे में बैठते हैं,” भाई ने मेरी पीठ घेर ली|
आठ साल पहले वाले अंदाज़ में….. जब माँ की मृत्यु की सूचना उसने मुझे दी थी…..
जवाब में मैंने केवल अपना सिर हिला दिया|
“बिजली के जाने के डर से ऑपरेशन हमेशा जेनरेटर चलाकर करते हैं,” कमरे में पहुँचकर भाई ने मेरी मनःस्थिति टोहनी चाही|
मैंने अपना सिर फिर हिला दिया|
“तुम प्रार्थना कर रही हो?” भाई ने पूछा|
“हाँ,” अपनी प्रार्थना मैं जारी रखना चाहती थी|
“हे प्रभु!” मैंने विनती की, “बाबूजी को उन डॉक्टरों के प्रयोगों से पहले देहमुक्त कर देना, देहमुक्त कर देना, देहमुक्त कर देना…..”
पंजाबी का एक पुराना लोकगीत मेरा दिल धड़काने लगा…..
“साडे दिल ते चलायियाँ छुरियाँ
सानू कटिया वाँग कसाइयाँ…..”
(हमें तुमने कसाइयों की भाँति तिक्का-बोटी कर दिया, हमारे दिल पर तुमने छुरियाँ चला दीं…..)
“मैं उधर बैठा हूँ,” भाई ने कहा, “डॉक्टर के कमरे में| जैसे ही उन्हें खून चाहिए होगा, मैं अपना खून हाज़िर कर दूँगा…..”
“रेडक्रॉस में भी ताज़ा खून मिल जाता है,” रोवनहार कलेजे के अपने रोदन को अपनी आवाज़ से काट देने में मैं सफल रही|
भाई भी मुझे बहुत प्यारा रहा, प्यारा है|
और फिर बाबूजी भी तो उस पर जान छिड़कते थे…..
“नहीं, उन्हें मैं अपना ही खून देना चाहता हूँ…..”
कितने, कितने पल मैंने पूर्ण स्तब्धता में बिताए…..
बाबूजी के बिस्तर को सहलाते हुए, उनके तकिए को अपनी गोदी में रखकर…..
प्रार्थना करते हुए, “हे प्रभु! बा को स्वीकार करो….. एक पिता की मानिंद….. वे तुम्हारे बेटे हैं, हमारे परम पिता परमेश्वर….. अपने बेटे को स्वीकार करो, उनके ऑपरेशन से पहले…..”
“डॉक्टर विज ने मुझे दो बीकर दिखाए हैं,” लगभग डेढ़ घंटे बाद भाई ने मुझे आकर सूचना दी, “उस वेस्ट मैटर के जो उनके पेट से निकाला गया है…..|”
“वे कैसे हैं?” मैं काँपने लगी|
“उनका पेट एकदम समतल है, पहले की भाँति…..”
“और वे?”
“अभी उन्हें खून और ऑक्सीजन की और ज़रुरत पड़ सकती है, मैं इंतज़ार कर रहा हूँ…..|”
और आँख बचाकर भाई कमरे से बाहर चल दिया|
इस बीच ऑपरेशन थिएटर से मुझे तीन बार बुलावा आया|
पहली बार….. भाई के जाते ही…..
“ऑपरेशन सफल हो गया है|” मेरे वहाँ पहुँचते ही डॉक्टर विज ने एक खिलंदड़ी पुलक के साथ मुझे सूचित किया- सभी डॉक्टरों के चेहरों पर विजय भाव उपस्थित रहा- “हमारी औषध और चिकित्सा कारगर सिद्ध हुई है| हमारी तीनों मशीनें सब ठीक दिखा रही हैं| इस मशीन पर ब्लड प्रेशर, देखिए, सत्तर-तीस है, मगर अभी नॉर्मल हो जाएगा, नॉर्मल हो रहा है….. यह मशीन हार्ट बीट दर्ज कर रही है, इसका ग्राफ भी सही जा रहा है….. और यह ऑक्सीजन के निष्पादन का हिसाब रख रही है….. और देखिए, आपके पिता साँस ले रहे हैं…..”
“कृत्रिम?” मैंने पूछा|
बाबूजी का आधे से ज़्यादा चेहरा ऑक्सीजन मास्क ने ढक रखा था, लेकिन उनके चेहरे का जितना भाग नज़र में उतर सकता था, वह ज़र्द पीला था…..|
किसी भी डॉक्टर ने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया…..
दूसरी बार…..आध-पौन घंटे बाद…..
इस बार भाभी भी मेरे साथ रही, तरोताज़ा, नहाई-धुली, बदले हुए कपड़ों में…..
तीनों मशीनें अन बेलगाम हो रही थीं| डॉक्टरों के पसीने छूट रहे थे और उनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं…..
“आप प्रार्थना कीजिए, प्लीज़, प्रार्थना कीजिए….. हम अपनी कोशिशें जारी रख रहे हैं…..|”
बाबूजी पहले की मानिंद ऑक्सीजन मास्क और नलियों के बीच आधे छिपे थे और आधे उद्घाटित….. चेहरे का उनका प्रकटन अभी भी ज़र्द पीला था…..
तीसरी बार….. हमारे लौटने के दसेक मिनट बाद सुबह वाली नर्सें आई थीं, “आपको डॉक्टर साहब बुला रहे हैं…..|”
ऑपरेशन थिएटर में तीनों मशीनें अपनी तरंगें खो चुकी थीं और चारों डॉक्टर अपना-अपना संतुलन|
“हमें बहुत अफसोस है,” चारों एक-दूसरे के बीच में बोल रहे थे, क्रम भंग करते हुए, “उन्हें हम लौटा नहीं पाए…..” “उनकी श्वास चालू नहीं हो सकी…..” “उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ गया…..”
बाबूजी के चेहरे से वे मास्क हटा चुके थे और एक झकाझक सफेद चादर उनकी गरदन तक उन्हें ढके थी| उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था, वे अभी-अभी गहन प्राण-पीड़ा से गुज़रे थे| वे शांत चित्त, संतोषी मुद्रा में सोते हुए लग रहे थे| तो क्या मेरे प्रभु ने मेरी प्रार्थना सुन ली थी और ऑपरेशन से पहले ही उन्हें मृत्यु दे दी थी? और डॉक्टरों ने केवल उन्हें स्वच्छ किया था? षड्यंत्रकारी उनके डायवरटिकुलम की वजह से उनके कोलन में एकत्रित हुई उस अंतर्भूस्तरी को दूर करके?
किंतु उस ऑपरेशन में प्रयोग की गई सामग्री की अवशिष्ट गंध तिक्त रही थी…..
जो उनकी अस्थियों में जा बसी थी…..
जो उन्हें प्रवाह करते समय हवा में तैर ली थी…..
जो अब मेरी शिराओं में आ घुली है और मेरे हर श्वास के साथ मुझे उनकी उपस्थिति एवं अनुपस्थिति का अहसास दिलाती है….. वही, वही, वही मेरे पहले मित्र थे, मेरे परम मित्र थे, मेरे अकेले मित्र थे, मेरे अंतिम मित्र थे…..


दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - dpksh691946@gmail.com
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3 टिप्पणी

  1. बहुत ही मार्मिक कहानी है दीपक जी आपकी! आँखों में आँसू तैर गए।
    किसी भी प्रिय का इस तरह अस्पताल जाना बहुत तकलीफ देता है।
    हमने भी अपने जीवन में अपनों की बहुत मौतें देखीं।
    अस्पताल लूटने के सिवा कुछ नहीं करते।
    हमने तो हमारे बच्चों को सख्त हिदायत दी हुई है कि हमें अस्पताल कभी मत लेकर जाना। बस हमारे होम्योपैथिक डॉक्टर से संपर्क रखना। मृत्यु भी आए तो घर पर ही आए।
    हमें मौत से डर नहीं लगता लेकिन मौत किस रूप में आएगी यह बेचैन करता है।
    इस बार पथरी के कारण किडनी के ऑपरेशन ने हमें बहुत तकलीफ दी। बोतल लगाने के लिए नसें ही नहीं मिलती थीं। डॉक्टर बता रहे थे कि आपकी नसें बहुत बारीक हो गई हैं। मानसिक परेशानियों से लड़ सकते हैं लेकिन शारीरिक तकलीफ हमें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती। इसीलिए किसी का भी दर्द हमें बहुत जल्दी महसूस होता है।
    सच कहें तो आपकी कहानी ने बहुत रुलाया। सिर्फ पिता ही नहीं, अस्पताल में कई अपनों की अनेक कहानियाँ आसुँओं में तैर गईं।
    कहानियाँ बहुत जीवंत लगती हैं।
    आपकी कहानी ने पीड़ा से साक्षात्कार कराया ! यह कहानी की सफलता है कि वह अंदर तक महसूस हुई।
    बहुत-बहुत बधाई आपको आदरणीय दीपक जी जैसे कि तेजेंद्र जी ने कहा “आप एक बेहतरीन कहानीकार हैं।”
    आभार पुरवाई

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