कोरोना के दाँत बुढ़ऊ की गर्दन पर होंगे न तब भी उसे बुढ़िया मेरे बाद क्या करेगी ये चिंता होगी । वह उसकी आखिरी इच्छा पूछे तो वह यही कहेगा कि इसे भी साथ ले ले वरना मेरे बाद पता नहीं क्या करेगी ।उसके जाने के बाद बुढ़िया किसी बुड्ढे से बात कर ले तो बुड्ढे की आत्मा पागल भी हो सकती है। इसलिए उसकी आत्मा का ध्यान रखते हुए बुढियाएँ पहले भी शराफत से रहती हैं बाद में भी रह सकती हैं ।बात केवल बूढों की है ये सुनकर खुश न हो जाना व्यक्ति जितना जवान होता है उतना ही भयग्रस्त होता है जाने जाना।घूँघट- नकाब के आविष्कार यूँ ही नहीं हुए थे ।
कुछ आदमी शायद चरित्र के मामले में ढीले होते हैं उन्हें डर लगता है कोई ढीले चरित्र का व्यक्ति कुछ गड़बड़ न कर दे। जितने खेल खेल चुका सब उसे डराते हैं ।उसे चारों तरफ अपने जैसे खिलाड़ी नज़र आते हैं। जब उसके मुँह में दाँत पेट में आँत नहीं बचती बीवी के दाँत आँत भी सफाचट हो जाते हैं ।ये ऐसा मानसिक रोग है जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोग सनकते जाते हैं ।बेचारा गालियों से दिमाग की धुलाई करवाता है ।किसी को क्वारन्टीन कर दिया जाता है। मगर कुछ दिन बाद फिर उसे इस दौरे का अटैक आ जाता है।
हिंदुस्तान में 50 प्रतिशत लोग इस रोग के शिकार हैं ।औरतें भी हैं या नहीं पता नहीं। होंगी भी तो मन ही मन कुढ़ेंगी सामने वाले को डंक तो नहीं मारेंगी ।वैसे मार भी सकती हैं। वे भी तो नहले पर दहला और आदिशक्ति हैं ।इस बीमारी के मरीज के साथ जिसका निकाह /ब्याह हो जाता है वह खुद ब खुद नागिन या नाग हो जाता है।पूरी दुनिया में उसे सब लोग ऐसे ही दिखते हैं।
वह हर तीसरे चौथे दिन डंक मरवाता मारता है। फिर बैठकर रोता है हारता है ।कोरोना ने लोगों को जबरदस्ती दिनभर एक छत के नीचे रहने को मजबूर कर दिया हैं ।मामला नॉर्मल होते ही कुछ लोग महीनों के लिए अज्ञात वास में जाने की सोच रहे हैं ।मगर जाएँगे कहाँ ?मामले जैसे उड़े जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवे “होते रहे हैं।
पता चला यहाँ व्यक्ति सात जन्म का ठेका क्यों लेता है। क्योंकि उसे सामने वाले के रपटने का डर होता है ।मेरी दीवार भले गिरे पड़ोसी की बकरी दबकर मरनी चाहिए ।यानी मेरी जिंदगी नरक भले हो बीवी मेरे हिसाब से उठक बैठक लगाए सांस भी उसकी लंबी छोटी मुझे पूछकर चलनी चाहिए ।अब बताइये साथी हुआ या फांसी का फंदा जितनी मर्जी हुई ढील दे या कस डाले अपना फंदा । मजबूरी का नाम महात्मा गांधी घर- बाहर के काम की एवज में उनको झेलने ये तूफान आंधी ।लोगों को खाने के लाले पड़े हैं मगर जिनके पेट भरे उनके लिए ऐसे मुद्दे पड़े हैं।वैसे ये भी सच नहीं है।
ये बीमारी अमीर, गरीब, मध्यवर्ग सबको कोरोना की तरह लगती है।एक मजदूर बाहर से आया ।बीवी के साथ टाइम बिताया ।जाकर बच्चे की खबर मिली तो दिन गिनने लगा बोला ये तो सात ही महीने हुए ऐसे कैसे हो सकता है ?सोच सोचकर पागल हो गया बच्चा किसी और का भी हो सकता है ।भला डी. एन. ए .टैस्ट भी हो सकता है ।बच्चा तो सतवासा भी हो सकता है।लोगों ने चंदे से टिकट खरीद उसे हवाई जहाज में बैठाकर भारत खदेड़ा। किसी को भी मिल सकता है ऐसा येड़ी- येड़ा ।
कमाल ये है ज्यों- ज्यों साथी की शक्ल बिगड़ती है त्यों- त्यों साथी की नज़र कमजोर पड़ती है ।इसलिए उसे वह वैसी वैसा ही दिखती दिखता रहता है। वह पता नहीं क्या -क्या काल्पनिक दिल पर लिखती लिखता रहता है । कोई और कारण हो तो बताना ।जिन जिन को ये भयानक रोग नहीं है वे अपने दिल पर बहम मत लाना।कोरोना की तरह इस बीमारी के मरीज बिना सिम्टम्स के भी होते हैं।क्वारन्टीन और सोशल डिस्टेंसिंह से काफी हद तक ठीक भी होते हैं।कुछ ऊपर भी जा सकते हैं ।क्योंकि अभी पूर्ण रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसके वायरस लौट कर भी आ सकते हैं ।कुछ मालूम नहीं ये वायरस कैसे कब कहाँ पैदा हुआ और कब तक इसके रहने की उम्मीद है।बस एक ही उपचार पीड़ित घर में रहें, घर मे रहें, घर में रहें।अगर साथी को ये बीमारी उसे क्वारन्टीन कर सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन करके रहे।
पुष्प लता जी को सुंदर सचबयानी करते सटीक व्यंग लेख के लिए हादिक बधाई।