मैं जंगल की एक कनेरी, तुम शाही उपवन के फूल
बोलो दोनों इक माला में, बिंधकर कैसे हों अनुकूल………
पग-पग काँटे बिछे हुए हैं, पथ में सघन कुहासा है
पल-पल की चिंता है मन में, कल की भी जिज्ञासा है
तुम पुष्पों से सजी राह पर, नित चलने के आदी हो
तम से क्या लेना-देना है, धवल नवल सी वादी हो
तुम पतझड़ में इक पलाश,मैं पतझड़ में उड़ती धूल
बोलो दोनों इक माला में,बिंधकर कैसे हों अनुकूल …!
झड़बेरी का नख-शिख गहना भी मैंने स्वीकार किया
कनक,मणिक की नहीं लालसा,नागफनी श्रृंगार किया
तुम चंदा-तारों से जगमग,मखमल के वस्त्रों से सज्जित
मुखमंडल की आभा ऐसी,धवल सौर मंडल भी लज़्ज़ित
भावहीन मैं, अर्थहीन मैं, तुम नौ रस के हो माकूल
बोलो दोनो एक माला में,बिंधकर कैसे हों अनुकूल…!
इतना सबकुछ जान गये तो यह भी अब संज्ञान में लो
अना है मेरी पर्वत जैसी,तरल न होगी ध्यान में लो
मज़बूरी, शर्तों के आगे कभी न ओढ़ी लाचारी
प्रीत झुकाये झुक जाऊँगी, नहीं झुकेगी ख़ुद्दारी
अगर प्यार से बोलोगे ,तो सौ सौ बात होगी क़बूल
बोलो दोनों इक माला में, बिंधकर कैसे हों अनुकूल..!

3 टिप्पणी

  1. नंदनी जी उत्तम रचना”मैं पीड़ा का राजकुँवर ,तुम शहजादी
    रूप नगर की तर्ज पर ।

  2. बहुत ही सुन्दर गीत है नंदिनी जी. जीवन और रिश्तों को लेकर आपके attitude का परिचायक है. अंतिम बंद तो लाजवाब है.

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.