उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की गणना उन राजनीतिज्ञों में होती है, जिन्होंने अपनी संवेदनशीलता और शुचिता के साथ-साथ जमीनी स्तर पर कार्य करते हुए अपना विशेष स्थान बनाया है। केन्द्र सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री के रूप में वे अपनी विशिष्ट पहचान को मजबूत बना रहे हैं।
‘नवांकुर’ में, ‘निशंक’ जी की प्रारंभिक रचनाओं का संग्रह है। इसका प्रकाशन 1984 में हुआ था। युवावस्था में रचित उनकी इन रचनाओं में आजादी के बाद के विकासशील भारत के सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों का चित्र स्पष्ट उभरता है। कविताओं में, ‘आदर्श भारत’ के निर्माण की छटपटाहट तथा सामाजिक यथार्थ की छाप भी दिखाई देती है। इनमें एक युवा हृदय की बेचैनी के साथ-साथ वास्तविकता की अनुभूति है। इनमें उन संघर्षों की स्मृतियां हैं, जो युवा कवि को विचलित करने से अधिक दृढ़-प्रतिज्ञ बनाती रही हैं-
‘याद मुझे उस कंटक वन की जिससे आगे निकला हूँ।
विपदानल की ज्वालाओं में सदा मोम सा पिघला हूँ।’
जीवन की कठोर सच्चाइयां, युवा कवि की तीक्ष्ण दृष्टि से ओझल नहीं हैं। महात्मा बुद्ध कहते थे कि इस संसार में दुख ही दुख हैं। सभी दुखी हैं, चाहे महलों में रहने वाले हों या कुटिया में रहने वाले। उस परम दार्शनिक भाव तथा यथार्थ को निशंक जी ने कितनी खूबसूरती से सामने रखा है-
कुटिया महल में न कोई सुखी है।
देखो जिधर सब दुखी ही दुखी हैं।
अन्दर से रोते हैं बाहर से हँसते
सब जा रहे हैं दलदल में फंसते।।
‘निशंक’ जी का जीवन पहाड़ों पर बीता है। पहाड़ी जीवन की कठोरताओं ने, कंटकाकीर्ण पगडंडियों और बड़ों की शिक्षाप्रद झिड़कियों को उन्होंने अपने पथ का पाथेय बना लिया। गीतकार कुंवर बेचैन कहते हैं – दुनिया ने मुझपे फेंके थे पत्थर जो बेहिसाब, मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए। यहां एक युवा कवि के भाव-जगत की गहराई इन पंक्तियों में देखिए-
कंकरीला ये मार्ग ग़ज़ब का, गिरा तो थामा काँटों ने।
बाध्य किया बढ़ते रहने को, मिलती क्षण-क्षण डांटों ने।
भारत माता को आज़ाद कराने की लड़ाई में युवाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था और आज़ादी प्राप्त हो जाने के बाद भी युवाओं का दायित्व अभी पूरा नहीं हुआ है, यह भाव बहुत गहराई से कवि के मन पर अंकित है। वे यह मानते हैं कि युवाओं को अभी बहुत काम करने हैं। अभी तो इस उजड़े, विखंडित देश को अपने पैरों पर खड़ा करना है, मजबूत बनाना है। इसलिए, युवाओं का आह्वान करते हुए कवि की ये पंक्तियां देखें-
तरूणो उठो, सुनो अरे, शंख गूंजता आ रहा है।
देश के दुःख दूर करने, यह जगाता आ रहा है।।
‘निशंक’ जी की कविताओं में आरंभ से ही राष्ट्र प्रेम की प्रखर भावना मुखरित होती रही है। उनके लिए जन-सेवा तथा राष्ट्र सेवा ही सर्वोपरि है। स्वामी विवेकानंद के ‘नर-सेवा नारायण सेवा’ के संदेश को अपने जीवन में उतारते हुए देश-सेवा में, लोगों की सेवा में अपनी तरुणाई, अपने यौवन का ही दान कर देने का संकल्प कितना प्रेरक है-
रोते नहीं हँसते हुए ही पूर्ण यौवन दान दें।
प्रौढ़ता परिपूर्ण जीवन त्याग का परिधान लें।
प्रकृति के कोमल आंचल की छांव में पले-बढ़े और ऋषि-मुनियों की अमर वाणी ‘संगच्छध्वं, संवदध्वं, सं वो मनांसि जानताम्’ की भावना को अपना जीवन-दर्शन मानने वाले ‘निशंक’ जी के इन शब्दों में उनका ‘कर्मयोगी’ रूप कितने सुंदर ढंग से निखरकर सामने आया है, देखें-
जिसको बुलाया, वह भी आया और संग चलता रहा।
कर्म की धारा में मेरे साथ वह बहता रहा।।
कवि स्वयं अपने लिए कर्तव्य-निर्धारण करता है। वह इस धरती के कण-कण को अपना मानता है। उसे, इन अपनों के लिए कुछ करना है, अब रुके नहीं रहना है, उठना है। उठकर चलना है-
ये सब तेरे तू सबका है,
इन्हें कण्ठ लगा उठ प्यार कर।
सोया क्यों उठ जा तू भी
उठते गीत गा चमत्कार कर।।
गहन अनुभूतियों को सहज अभिव्यक्ति देना, डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कविताओं की विशेषता है। ‘नवांकुर’ में उनकी अनुभूतियों को सहज अभिव्यक्ति मिली है। ये कविताएं उनके रचना संसार की एक बानगी भर हैं। वटवृक्ष बने उनके कवित्व के नव-अंकुर हैं। इन नवीन अंकुरों की कोपलों का सौष्ठव देखें, ठवन देखें, भंगिमा देखें और देखें इनकी ताज़गी।