रविवार की शाम देर से घर लौटने पर रात के दो बजे, पंकज बिस्तर में जाने की तैयारी कर रहा था। जींस उतार कर शॉर्ट्स पहनने लगा इतने में फ़ोन की घंटी बजी।
बैंगलुरू से माँ का फ़ोन था। इस समय…?
उन्हें तो ठीक से मालूम है दोनों देशों में बारह घण्टों का अंतर, सब ठीक तो हैं सोचते हुए उसने फ़ोन का हरा बटन दबाया। फ़ोन पर माँ की आवाज़ घबराई हुई थी, ‘रात को वॉशरूम जाने के समय पापा संतुलन खो बैठे और बाथरूम की दहलीज़ पर गिरने से सिर में चोट आई, काफी खून निकला। पापा को पूरी तरह से होश नहीं था। घबराकर पासवाले मकान के लक्ष्मण भाई को फ़ोन किया, उसने आकर उन्हें उठाकर बिस्तर में लेटाने में सहायता की। पर ख़ून निकलना रुक नहीं रहा था और होश भी खोते जारहे थे। वह जल्दी से गाड़ी निकाल कर लाया और किसी तरह से उन्हें पीछे की सीट में लिटाकर अस्पताल ले गए।’
माँ अस्पताल से ही फ़ोन कर रही थीं। एम आर आई की रिपोर्ट के अनुसार ब्रेन हैमरेज हुआ है, यह कहते–कहते माँ के धीरज का बांध – जो अब तक किसी तरह से काबू में किया हुआ था – टूट गया। सिसकियों के बीच बताया कि रक्तस्राव बहुत ज़्यादा हो चुका है, पापा को होश नहीं है। डॉक्टर ब्रेन के प्रेशर को कम करने के लिए ऑपरेशन करने की बात कर रहे हैं, पर ख़ून इतना ज़्यादा निकला है कि ऑपरेशन संभव न हो पाएगा। अमित को समझ में नहीं आरहा था कि माँ को क्या कहकर दिलासा दे। बस इतना भर कह सका तुम फ़ोन रखो मैं अपने टिकट की व्यवस्था करता हूँ।
बॉस्टन में सुबह के पाँच बज चुके थे। बैंगलुरू के टिकट की पूछताछ करने से पहले बॉस्टन में बहन को फोन किया। पूजा के पति सप्ताह के पाँच दिन न्यूयॉर्क में काम करके सप्ताहांत में परिवार के साथ बिताते हैं। वे सुबह के समय तैयार होकर न्यूयॉर्क के लिए निकलने वाले थे। पंकज का फ़ोन मिलते ही पूजा भी बैंगलुरू जाने को तत्पर होगई। न्यूयॉर्क जाना स्थगित कर उसके बदले पति पूजा को लोगन एयरर्पोर्ट ले जाने की तैयारी करने लगे। एक अटैची में कुछ कपड़े और ज़रूरी दवाएँ पैक कर दोनों बच्चों को पति के पास छोड़कर पूजा पहली फ्लाइट से बैंगलुरू के लिए रवाना हुई।
पंकज साराटोवा से टैक्सी लेकर सैनफ्रांसिस्को और वहाँ से दिल्ली की फ्लाइट में बैठा था। रात को माँ से फ़ोन पर बात करने के बाद से अभी तक यंत्रवत यात्रा का इंतज़ाम करने के बाद जब प्लेन ने उड़ान भरी तब उसको वास्तविकता का भान हुआ। पूजा को फ़ोन करने और अपने एक कमरे के फ्लैट की चाभी अपने दोस्त को सौंप कर रवाना होने में इस कदर व्यस्त था कि पापा की तबीयत का ख़याल दिमाग से स्थगित कर पाया था।
विमान के उड़ान भरते ही एक–एक करके बचपन से लेकर अबतक के जीवन की यादें उसको झकझोरने लगीं। परिवार का बड़ा बेटा, माँ और पापा का दुलारा, पढ़ने में शुरू से ही तेज़ रहा, उसमें भी पापा का ही हाथ था। शाम को ऑफिस से लौट कर वे उसके साथ बैठकर होमवर्क करवाते और परीक्षा से पहले उसके साथ पाठ दोहराते। कक्षा के सभी बच्चों से अव्वल नम्बर लेकर जब वह घर लौटता तो वे गर्व और आत्मसंतोष से फूले नहीं समाते थे।
हायर सैकेंडरी में प्रथम श्रेणी से पास होने पर राँची बी.आई.टी. में इंजीनियरिंग में दाखिला मिलने पर एक तरफ़ पापा को गर्व और उनके सहकर्मियों को जहाँ ईर्ष्या होरही थी, वहीं माँ छिपछिप कर अपने आँसू पोछ रही थी। माँ को दोहरी चिंता परेशान कर रही थी। इंजीनियरिंग कॉलेज और होस्टल की तगड़ी फ़ीस का इंतज़ाम कैसे होगा और फिर बैंगलुरू से राँची का कोई सीधा सा रूट तक नहीं इतना लम्बा सफर और होस्टल का खानपान!
मगर पापा ने पहले से ही सबकुछ सोच रखा था। प्रॉविडेंड फण्ड से अग्रिम राशि निकालने का आवेदन वे राँची से दाख़िला मिलने के स्वीकृति–पत्र आते ही कर चुके थे। माँ की चिंताओं का बोझ कम करते हुए बोले कि इसी दिन के लिए तो उन्होंने जी तोड़ मेहनत की थी और बी आई टी में प्रवेश मिलना सबके बस की बात नहीं कि इस अवसर को जाने दें। फिर उनको दिलासा देने के लिए बोले, ‘लम्बी छुट्टियों में वह घर आजाया करेगा और बीच–बीच में दो तीन दिनों के लिए नानानानी के पास कोलकाता चला जाएगा।’
जब इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा करने के बीच ही उसको टाटा कंपनी से सिलिकोन वैली में ट्रेनिंग का कॉंट्रैक्ट मिल गया तो इसबार माँ की आँखों में गर्व के आँसू थे। अमेरिका में अठारह महीनों की ट्रेनिंग पूरी करने पर कंपनी ने उसको वहीं पर जॉब ऑफर किया। जॉब शुरू करने से पहले अपने बचाए हुए पैसों से माँ,के लिए वीडियो रेकॉर्डर, पापा के लिए कैमरा और बहन के लिए सीको घड़ी लेकर जब वह घर जा रहा था उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे और माँ, पापा और पूजा के लिए तो उसके लौटने की प्रतीक्षा का समय जैसी एक जगह आकर रुक गया था।
माँ ने नारियल की मलाई वाली बर्फ़ी और आलू के पराठे बना रखे थे, पापा उसको अपने स्कूटर के पीछे बैठाकर कॉलोनी में सबसे मिलाने ले गए थे। छुट्टी के दिन पलकों में बीत गए और लौटने का दिन आ खड़ा हुआ। पापा, जो कभी किसी चीज़ की फरमाइश नहीं करते थे चलते समय उससे बोले,’तुम्हारा काम जम जाए तो एकबार अमेरिका घूमने की बहुत इच्छा है।‘ पंकज मन ही मन मनसूबे बाँधने लगा, जैसे ही कुछ पैसे बचेंगे वह दो कमरों का एक फ्लैट भाड़े पर लेकर माँ, बहन और पापा के लिए टिकट भेजेगा। एयर हॉस्टेज की ट्रॉली की खड़खड़ और वेजिटेरियन और नॉन-वेजिटेरियन सवाल से उसकी यादों के तार टूट गए।
ख़ाना ख़तम करके एयर हॉस्टेज प्लेन की सभी खिड़कियाँ बंद करके अपने केबिन में चली गईं। प्लेन के अंदर यात्रियों की हलचल कम हो चली थी। कुछ लोग अपने सामने की स्क्रीन पर आँखे गड़ाए हुए थे और कुछ बैठे–बैठे सो रहे थे। पास वाली सीट पर बैठी महिला ने अपने साथ की सीट का हैंडिल ऊचाँ करके बगल में बैठे बच्चे को अपनी गोद में आड़ा करके अधलेटा कर लिया और ख़ुद कुशन को सीट के पीछे रख उसका तकिया बना कर टीवी देखने में मशगूल हो गई। पंकज की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। उसने अपनी सीट के सामने वाली टीवी की स्क्रीन को खोला तक नहीं उसके मन के भीतर यादों की दूसरी रील खुल रही थी।
साराटोवा में नौकरी करते हुए देखते–देखते दो साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला। इस बीच छुट्टियों में भारत लौटने पर माँ ने उसके लिए लड़की पसंद की हुई थी। कॉलोनी के लोगों से अमेरिका जाकर अमेरिकन लड़कियों के जाल में फसने वाले होनहार लड़कों के किस्से सुनकर उन्होंने मन ही मन ठान लिया था कि इस बार बेटे को अकेले नहीं भेजना है।
अख़बार के विज्ञापन के जवाब में कई लड़कियों में से उन्हें पानीपत की आई टी ग्रैजुएट और उसके परिवार का बैकग्राउण्ड अच्छा लगा। बस उसके लौटने भर की देर थी. तीन सप्ताह के भीतर कविता से शादी करके उसको अपने साथ साराटोवा ले जाना एक सपना ही लगता है। कविता को अपने साथ लेकर लौटते समय पापा की अमेरिका घूमने की तमन्ना को मन ही मन यह सोच कर तसल्ली दी कि एक बार कविता के साथ ठीक से सैटिल होकर ही पापा और माँ को अपने पास बुला लेगा।
सेनफ्रांसिसको एयरपोर्ट पर उसके स्वागत के लिए आए रवि और उसकी पत्नी के पास एक अजनबी को देखकर वह समझा कि वह किसी और को लेने आया होगा और इत्तिफाक से उनके पास खड़ा है। पर जब वह कविता से लगभग गले मिलने के लिए उसकी ओर बढ़ा तो कविता ने ‘यह अजय है, मेरा कॉलेज का दोस्त’ कहकर उसका परिचय दिया।
बैंगलुरु में शादी के बाद के बिताए दिन सबसे मिलने-मिलाने में बीत गए थे। शादी के बाद तो कविता उसके साथ ही जारही है इसलिए जब उसने जाने से पहले के दिन अपनी माँ के पास बिताने की इच्छा ज़ाहिर की तो पंकज को इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं लगी। पर, साराटोवा लौटने के बाद भी उसका अनमनापन, उसके पास आने के हर प्रयत्न को किसी न किसी कारण से टाल देना उसकी सहनशीलता और समझ से परे होने लगा। साथ ही यह एहसास कि जल्दीबाजी में शादी करना एक भूल तो नहीं थी।
कविता का अनमनापन, अलगाव और उसको जानने की कोशिश तक न करना देखकर उसे लगने लगा कि शादी करने के पीछे पति-पत्नी के मकसद कहीं अलग–अलग तो नहीं थे। पंकज के मन में शादी एक सुखी घर बनाने की ख़्वाहिश थी पर कविता के लिए पानीपत की चारदीवारी से निकल कर अमेरिका पहुँचने के पासपोर्ट से अधिक कुछ नहीं थी। उसके अपने सपने थे। वह हर वह चीज करना चाहती थी जो पानीपत में परम्परावादी माँ और साधारण नौकरीपेशा पापा उसके लिए नहीं उपलब्ध करा सके। एम बी ए में दाख़िला लेना, तैरना और टेनिस खेलना सीखना बाहर घूमना, रेस्त्रॉ जाना इन सबके बीच उसने पंकज क्या चाहता है यह जानने की कभी कोशिश तक नहीं की। पारिवारिक सुख के उसके सपनों के लिए उसके व्यस्त जीवन में कोई जगह नहीं थी।
ऐसे में वह माँ और पापा को यहाँ बुलाकर उनका दिल कैसे दुखाए? वे लोग तो दूर बैठे संतुष्ट हैं कि बेटे का घर बस गया है। अब काम से लौटने पर उसके लिए कविता खाना बना कर प्रतीक्षा करती मिलती होगी। वह उन्हें कैसे बताए कि वह अभी भी घर आकर खाली घर का ताला खोलता है। रात को बाहर से खापीकर लौटने पर बिस्तर के दूसरी तरफ़ मुँह करके सोते समय कविता को उससे बात करने तक में कोई रुचि नहीं होती है। जब एक दिन हर रोज़ की तरह ऑफिस से लौटने पर उसने दरवाज़े का ताला खोला तो डोरमैट पर एक लिफाफा मिला। लिफाफे के भीतर एक संक्षिप्त नोट था, ‘अब बस और नहीं जी सकती मै यह दोहरी जिंदगी, जा रही हूँ उसके पास जिसके लिए मै यहाँ आई थी।’ पंकज पता नहीं कितनी देर तक हाथ में ख़ाली लिफाफा पकड़े हुए स्तब्ध खड़ा रहा।
एयर हॉस्टेस की ट्रॉली की आवाज़ ने उसका ध्यान भंग किया। चाय और कॉफी के साथ प्री–पैक ब्रैडरोल खाने में उसको कतई रुचि नहीं थी। पर यादों के तार टूट चुके थे। एक झटके से वह वर्तमान में पहुँच गया था। पता नहीं पापा को होश आया है या नहीं! डॉक्टर ऑपरेशन करने वाले थे, शायद अब तक ऑपरेशन हो गया होगा या हो रहा होगा। मन ही मन भगवान से प्रार्थना की वे पापा को ठीक कर दें। प्लेन अब चेन्नई एयरपोर्ट उतरने की तैयारी कर रहा था। वहाँ पहुँचकर वह माँ को फोन कर सकेगा। तब तक का समय काटना मुश्किल हो रहा था। वहाँ से रेल का सात घंटों का रास्ता भी है। पता नहीं पूजा अभी कहाँ तक पहुँची होगी।
चेन्नई हवाई अड्डे से माँ को फोन किया, तो फोन मामा ने उठाया, पापा की तबीयत के बारे में कुछ पूछे उसके पहले मामाने रुआसी आवाज़ में चले आने को कहा तो उसके आगे कुछ सुनने की हिम्मत ही नहीं हुई। बैंगलुरू स्टेशन पर खड़ा अपने आप को नितांत अकेला अनुभव कर रहा था, जैसे समझ और सोच दोनों ही जड़ हो गए थे।
पापा के जाने के बारह दिन बाद उसको वापस अमेरिका तो लौटना ही था। जाने से पहले पंडित जी ने जब अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार या प्रयाग जाने की बात की तो जैसे वह एकाएक किसी सपने से बाहर आ खड़ा हुआ हो, “पंडित जी, पापा हमेशा अमेरिका घूमने जाना चाहते थे, यह कलश मैं अपने साथ अमेरिका ले जाऊँगा।”
बहुत संवेदनशील कहानी
देश में परिवार छोड़ कर गए लोगों के दुःखों का अच्छा चित्रण.
सुन्दर और संवेदनशील कहानी, अरुणा जी, बहुत बहुत बधाई, दिव्या
सभी प्रवासी भारतीयों के स्तिथियों को दर्शाती हुई कहानी।
यह कहानी नहीं बल्कि अनेक प्रवासी भारतीयों की आपबीती लगती है। दिल को झँझोड़ दिया आपने। बहुत अच्छी लघुकथा तो है ही साथ मार्मिक भी है। आपकी अगली कहानी का इंतजार रहेगा।