रू… हां यही तो नाम दिया था उसने। सोचते ही सुरभि के माथे पर पसीने की कुछ बूंदे उभर आई वह अतीत के पन्नों में खोती चली गई आज अचानक यू रमेश की तस्वीर देख मन कुछ अनमना सा हो गया वही आकर्षण उसे फिर अतीत में महसूस किए रूहानी प्रेम को महसूस करने पर आमदा हो गया था
प्रेम का संबंध जिस्म से नहीं है इसे करने वाला ताउम्र एक साधना करता है जिसमें साधक का संबंध सिर्फ और सिर्फ साधना पर केंद्रित रहता है …शारीरिक प्रेम एक कमजोरी हो सकती है पर क्या वह कभी उस रूहानी प्रेम की जगह ले सकता है जिसे मीरा ने महसूस किया और अपने शरीर को कृष्णमय कर दिया ।प्रेम यकीनन एक साधना ही तो है जिसे अब सुरभि भी महसूस कर रही थी।
सुरभि निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से थी बचपन में ही पिता का साया नहीं रहा परिवार में मां थी ,जो हमेशा गृहस्थी और नौकरी के पाटे में ही पिसी रहती और बड़ी बहन रिया ।सुरभि मां और बहन दोनों की ही बड़ी लाडली थी घर में सभी सुरभि को सरू बुलाते और सुरभि अपने चुलबुले पर तीखे नैन नक्श और भोले स्वभाव से सबका मन मोह लेती ।छोटी जितनी चुलबुली तो बड़ी रिया उतनी ही शांत सहज और गंभीर ।मां के जॉब करने के कारण शायद समय से पूर्व ही उसने गंभीरता और समझदारी का दामन पकड़ लिया था। घर में कब क्या किस तरह होना है रिया से बेहतर कोई नहीं जानता था। साथ वाला घर शर्मा जी का था ।शर्मा जी के लड़की ना होने की कमी भी रिया और सुरभि ही पूरी करती ।शर्मा जी बैंक में कार्यरत थे तथा तीन लड़कों और बीवी के साथ जिंदगी की नइया आराम से काट रहे थे।
तीनों ही लड़के काबिल निकले रमाकांत और उमाकांत इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे कि छोटा रमेश एमबीए ।रमेश का रिया और सुरभि से मेलजोल भी अच्छा था।ख़ासकर रिया से दोनों ही हम उम्र थे और काफी बातें करते थे ।दोनों मिलकर सुरभि को बहुत चिढ़ाते। रिया बोलती यह सरू नहीं सड़ु है सडु ..और फिर प्यार से रमेश सुरभि को समझाता नहीं रिया यह तो सरु है डु नहीं रू । रमेश सरू के लिए तो जैसे अलादीन का जिन्न था सरू ने कुछ कहा नहीं कि जिन्न हाज़िर ।रमेश रिया और सुरभि के साथ लक्ष्मी जी का भी पूरा ख्याल रखता ।समय बीतता गया धीरे-धीरे रमेश एमबीए करने दिल्ली चला गया और रिया और सुरभि की भी शादी हो गई
सुरभि की शादी कबीर से हुई तिवारी जी ने सुरभि को कॉलेज के फंक्शन में देखा जहां तिवारी जी की चीफ़ गेस्ट बन कर आई थे।तिवारी जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के वी सी के पद से रिटायर हुए थे विलक्षण बुद्धि और बेजोड़ व्यक्तित्व तिवारी जी के रुतबे को और भी सवारता था सुरभि ने मंच पर महिषासुरमर्दिनि नाटक में हिस्सा लिया था और लग रहा था जैसे साक्षात दुर्गा ही प्रकट हो गई है तिवारी जी भी उस भुवन मोहिनी के तिलिस्म से बच ना पाए और वही से उसे अपनी पुत्रवधू बनाने का निश्चय कर चुके थे ।तिवारी जी के वैभव के सामने लक्ष्मी के ना की कोई सूरत थी ही नहीं ।रिया की शादी और दोनों पुत्रियों की पढ़ाई से संचित आय शेष हो चुकी थी ।कबीर सामान्य कद काठी और साँवला होने के साथ व्यवहार कुशल था ।इंजीनियरिंग करके अच्छी फॉर्म में नौकरी कर रहा था घर में कोई कमी थी ही नहीं तो ना करने की गुंजाइश रह ही नहीं गयी थी ।शादी के जोड़े में सजी सरू अपने नए जीवन के शुरू होने की सपने सजा रही थी कि कमरे में आहट हूंयी ।
रमेश …सरू रमेश को देखकर पलटी और फिर अपने नए जोड़े और श्रृंगार को इतराते हुए दिखाते हुए बोली
“कैसी लग रही हूं मैं…”.
रमेश बस सुरभि को देखे जा रहा था उस समय रमेश की आंखों में अजीब सी कशिश थी दुख था और पता नहीं क्या था जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता जिसे देखते ही सुरभि ने पूछा
“क्या हुआ रमेश तबीयत सही नहीं लग रही “सुरभि के आवाज से रमेश चौंका और बोला
“हां कुछ अच्छा नहीं लग रहा” फिर सरू एकदम इतराते हुए बोली
“देखो कितनी अच्छी लग रही हूँ “
“आज के बाद तुम और रिया दीदी मुझे सडु सडु नहीं कहोगे।”
रमेश की आंखों के कोनों में आंसू की बूंद तैर आयी और उसने धीरे से बुदबुदाया
“कोई रू भी नहीं कहेगा “।
सुरभि शायद उन शब्दों को ढंग से सुन भी नहीं पाई थी इतने में बाहर से शोर आया की बारात आ गई है लाल जोड़े और सुनहरे सपनों को सजा सुरभि कबीर के घर आ गयी।धीरे धीरे समय पंख लगा के उड़ गया ।ना सुरभि ने रमेश के बारे में जाने की कोशिश की और ना रमेश ने मिलने की ।एक दिन अचानक सुरभि को फ़ोन आया की मां को हार्ट अटैक आया है सुरभि और रिया आनन-फानन में घर पहुँची पर तब तक देर हो चुकी थी माँ तब तक नहीं रही थी ।
माँ की यू अचानक जाने से रिया और सुरभि पत्थर हो गई माँ के अलावा मायके में था ही क्या ….।इस समय पर सभी मिलने जुलने वालों ने सलाह कर घर को बेचने का प्रस्ताव रखा जो सभी को सही लगा ।माँ का तीजा और तेरहवी के बाद घर ख़ाली करना था ।वो घर जहाँ पग पग पर यादें बिखरीं पड़ी थी ।सुरभि फिर सरू बनकर उन यादों में खोना चाहती थी वही रूठने मनाने का दौर दोबारा जीना चाहती थी उस समय उसकी हालत ऐसी हो रही थी जैसे किसी ने कलेजा निकालकर हाथ में रख दिया हो।माँ की यादों से दिमाग़ सुन होता जा रहा था ।तभी रिया दीदी की आवाज़ से उसकी चेतना लौटी रिया दीदी बोल रही थी …
“चल सरू माँ की अलमारी और संदुक ख़ाली कर ले।”
माँ की अलमारी खोली तो ऐसा लगा की माँ की साड़ियों में माँ का स्पर्श ज़िंदा हो गया हो। माँ की बनायी जन्माष्टमी की पंजीरी ,आटे के लड्डू ,बेसन की बर्फ़ी सभी का स्वाद फिर ताज़ा हो गया आँखों से आँसू की बरसात और तेज़ हो गई तभी टन से अलमारी से एक लकड़ी का बक्सा नीचे गिरा ।सुरभि ने डिब्बा खोला तो उसमें कुछ ख़त मिले सुरभि जैसे जैसे ख़त पढती जा रही थी वैसे वैसे उसका दिमाग़ सुन होता जा रहा था ।सभी ख़त रमेश ने उसके लिए लिखे थे जो माँ ने उसे कभी दिए ही नहीं ख़त का एक एक शब्द हज़ार, हज़ार जज़्बातों के हीरों से जड़ा था।
सारे ख़त रमेश ने अपनी प्यारी रु को लिखे थे।ख़त पढ़ कर सरू को लगा दिमाग़ की नसें फट जाएगी ।यह सच तो वह कभी जानती ही नहीं थी ।रमेश ने कभी कुछ जताया ही नहीं या वो ही कभी देख नहीं पाई ।
सुरभि ने सभी खत संभाल के अपने सामान के साथ रख लिये ।शर्मा जी भी पड़ोस का घर बेचकर जा चुकी थे अब वो बेटों के पास ही रहते थे ।पड़ोसियों से बस ये पता चला की बड़े दोनों बेटे दिल्ली में उच्च पदों पर आसीन है और छोटा बेटा फ़ॉरेन में सेटल हो गया है उस समय सुरू की हालत कुछ अजीब हो रही थी रमेश के ख़तों ने सुरभि के मन में उस अनजानी प्यार की बेल को खाद दे दिया था जिसका अंकुर शायद किशोरावस्था में फूट चुका था पर उस बेल को खाद और पानी कभी मिला ही नहीं अत: वो अंकुर पेड़ बन ही नहीं पाया।सुरभी एक बार कैसे भी रमेश से मिलना चाहती थी उससे पूछना चाहती थी कि आख़िर क्यों वो उससे बात नहीं कर पाया यह ख़त माँ तक कैसे पहुँचे ..क्यों उसने उसे कबीर के साथ जाने दिया क्यों उसने उससे रु को छीना और मार दिया..पर इन सवालों के जवाब मिलना मुश्किल था।
वापस ससुराल लौटकर सुरभी कुछ अनमनी सी हो गयी। उसका किसी भी जगह मन नहीं लगता घर के सभी काम यंत्रवत करती जाती पर मन बहुत उदास रहने लगा था घर में सभी ये सोच के मौन थे कि माँ के जाने के बाद झटका लगा है वक़्त के साथ सब सही हो जाएगा।
समय पंख लगाकर उड़ा जा रहा था सुरभी का बेटा अब दसवी में आ चुका था सुरभि ज़्यादातर घर के कामों में बिज़ी रहती एक दिन सुबह रिया का फ़ोन आया जिसमें रिया ने बताया कि फ़ेसबुक पर रमेश की वाइफ़ का लिंक फ्रेंड सजेशन में दिखा है सुरभि बहुत बार फ़ेसबुक पर रमेश को ढूँढने की नाकाम कोशिश कर चुकी थी रिया का फ़ोन रखते ही सुरभि ने फटाफट फ़ेसबुक पर रमेश की वाइफ़ को सर्च किया ।रूपाली शर्मा …हाँ यही तो नाम बताया था दीदी ने।
सुरभि जैसे ही फ़ोटो गैलरी में गयी।रमेश की फ़ोटो देखते ही एक टीस सी उठी ।आज भी रमेश में कोई अंतर नहीं आया था । वही चोड़े कंधे ,गोरा रंग ,ऊँचा माथा। वक़्त भी शायद कामदेव की छटा को कमजोर नहीं कर पाए थे ।साथ खड़ी थी रूपाली और दो बच्चे ।रूपाली को देखते ही एक बेहद गहरी टीस के साथ एक चुप वाली सिसकी होंठों पर ठहर गयी…पर साथ ही मुँह से ढेरों दुआयें भी निकल उठी।जहाँ रहो ख़ुश रहो रमेश तुम… तुम्हें तो तुम्हारी रू मिल हे गयी ना । आँखों में सावन भादो के बादलों ने झड़ी लगा दी थी।सुरभि अब रोज़ ही फ़ेसबुक पर जाकर रमेश और रूपाली के फ़ोटो देखती।
प्रेम के कई रूप हो सकते है ..प्रेम तो वो एहसास है जो दो व्यक्तियों की रूह को छूता है और फिर ये अहसास उतना ही महतवपूर्ण बन जाता है। जितना संसार की अन्य वस्तुये।प्रेम जिस्मानी नहीं होता … किसी से दूर रहकर उसको चाहना भी प्रेम है । प्रेम तो एक सधना है । जिसमें साधक बस अपने इष्ट का दीवाना है वो उसे पाना नहीं चाहता वो तो बस उसमें खोना चाहता है। रमेश ने भी तो वही प्रेम किया था सुरभि से .. और अब सुरभि भी उसी प्रेम को महसूस कर रही थी।
Amazing piece of work. Itni khubsurti se tumne is ehsaas ko buna h wo sirf ek lekhak hi kar sakta h!! Would love to read more of your work. Keep it up and Congratulations! !
Bhout sunder:)
Nice story Richa ji very touching
Very ❤touching yaar…m to ruh m hi kho gyi thi…bhurt sundar….gud luck my daring Richa …
Thanks to all
आप सभी की प्रतिक्रिया से प्रोत्साहन मिला है
Bahot khoobsurati se pyaar ko lafzo me buna hai.. Man kho jata hai tumhari kahani me.. beautiful ..keep it up my dear friend. Waiting for many more.
Nice story
आभार
साधना शीर्षक इस कहानी में हर पंक्ति में ध्वनित होता है! सुरभि जहाँ लम्बे समय तक जान ही नही पाती कि रमेश उससे प्यार करता है, जिस दिन पता लगता है तब तक देरी हो चुकी है , रमेश की बहुत अच्छी लडकी से शादी हो चुकी है ,अब सुरभिं साधना शुरू क्र देती है , प्रेम साधना ! ऋचा एक सम्भावना शील लेखिका हैं …उन्हें बधाई !