नारी विमर्श की अवधारणा नई नहीं है। इसका स्वर चाहे आज की भांति भास्वर भी रहा हो किन्तु विद्यमान अवश्य था। सृष्टि के आदि पुरुष आदम  के साथ ईवा तो पुरुष के साथ प्रकृति के रुप मे नारी हमेशा विद्यमान रही है। लैंगिक विभेद और प्रजनन शक्ति से युक्त स्त्री के संसर्ग ने पुरुष में परिवार की भावना उत्पन्न की। वेदों, पुराणों , आदि ग्रंथों में उल्लिखित नारी संभवतः इतनी बेचारी  नहीं थीं कि उनपर विमर्श आयोजित किए जाते। शास्त्रार्थ में अपनी सुविज्ञता का लोहा मनवाने वाली विदुला, आलोपा, घोषा, मैत्रेयी, गार्गी और अपने तपोबल और आदर्श पातिव्रत्य से युक्त ऋषि पत्नियां युद्ध में अपने शौर्य पराक्रम, अश्व शस्त्र संचालन से चमत्कृत करनेवाली वीरांगनाओं का जीवन आज भी कथा रुप में आध्यात्मिक दस्तावेजों में सुरक्षित है। स्त्रियों की स्वावलंबिता बढ़ते प्रभाव को पुरुष का अहम् स्वीकार नहीं कर सका और उसने उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर घर की चारदीवारी में कैद कर दिया और वे पति की आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति का साधन मात्र बन गई।  समाज और समाजिकों द्वारा अनुमोदित तथ्यों उनके अनुकूल आचरण ही धर्म कहलाने लगता है और प्रचलित मान्यताएं परम्पराएं एवं रुढियां प्रश्नों के दायरे से बाहर हो जाते हैं। इस समय ब्राह्मणों के प्रभुत्व के कारण वर्णव्यवस्था प्रचलित थी जिसमें शूद्रों दलितों के सदृश ही स्त्रियों के प्रति भी अनुदारता का भाव था। आक्रमणकारी यवनों की लोलुप दृष्टि भारत की धन दौलत पर तो थी ही उनकी कुत्सित मनोवृत्ति ने स्त्रियों की दशा को और शोचनीय कर दिया।
लड़की के जन्म लेते ही उसे बैरंग लौट आने की निर्मम प्रयासों को अपनाने में भी लोग संकुचित नहीं होते थे तम विश करने वाला तथ्य यह था कि इस दुष्ट कृत्य में जापा कराने वाली दवाइयों के साथी नवजात के अभिभावकों की भी सहमति होती थी जो उनकी व्यवस्था से जुड़ी होने के कारण सामाजिक स्वीकृति दीपाली की थी यदि सुंदर हुई तो उसके दुर्भाग्य का रंग और गहरा हो जाता है पुरुष समाज में उसे पढ़ने में छुपाए रखना बाल्यावस्था में ही गुड्डे गुड़ियों के संसार से बाहर निकाल किसी वृत्त के पल्ले बांध देना उसके भाभी संघर्ष की स्थिति का निर्मित करते थे । असमय अनचाहा वैधव्य, पिता की आयु वाले पतिपरमेश्वर के साथ चिता पर जीवित जलाए जाना या कठोर पारिवारिक नियंत्रण में रहते हुए पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य होना उनकी नियति थी। सामान्य ही नहीं राजा वर्ग में भी स्थिति असंतोषजनक थी। शत्रु की सुंदरी कन्या अथवा पत्नी की सूचना युद्ध का कारण बनती थी । पराजित राजा विजयी राजा से संधि करने के लिए बेटियों, रानियों तथा दासियों को दान में दे देते थे।  सुंदर स्त्रियों  का अपहरण कर उन्हें  रनिवास में डालने के उल्लेख भी मिलते हैं।
राजनीतिक ,आर्थिक स्थितियों में परिवर्तन आने के साथ ही भक्ति आंदोलन को गति मिली । नवीन ढंग से विकसित कृषिकर्म , शहरीकरण, औद्योगिकीकरण , यांत्रिक आविष्कारों तथा आयातित प्रविधियां से शिल्पी वर्ग  स्त्रियों की सृजन क्षमता और संपन्नता में वृद्धि हुई किंतु समाज और अध्यात्म के क्षेत्र में उनकी स्थिति पूर्ववत प्रतिबंधित रही। अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिए वे अनवरत संघर्ष करती रहीं।  इस समय निर्गुणोपासक   (संत सूफी) और सगुणोपासक ( राम कृष्ण) भक्त अपनी-अपनी तरह से समाजोद्धार के प्रयास में रत हुए।  राजनीतिक आर्थिक आंदोलन भी उनसे संबद्ध हो गए।  संत कवियों ने समाज में व्याप्त नानाविध प्रश्नों और दैनंदिन की समस्याओं का ठेठ भाषा में वर्णन किया।  उन्होंने आंखों देखी एवं अपने जीवनानुभवों को अपने साहित्य का विषय बनाया । अधिकांश संत समाज  के निम्न  वर्ग- जुलाहा, मोची इत्यादि से संबद्ध थे अतः उस वर्ग के जीवन का यथार्थ लिपिबद्ध कर सके। दलित वर्ग को उसमें अपना जीवन प्रतिबिंबित मिला । उस में प्रयुक्त  सहज भाषा ने उन्हें भी शिक्षा प्राप्त कर आत्मनिर्भर बनने की  ललक से भर दिया । स्त्रियों  को अब भी समाज में अपेक्षित सम्मानीय स्थान प्राप्त नहीं था किंतु आर्थिक क्षेत्र में शिल्प कार्य में अपने सहयोग और श्रमदान के कारण वे पूर्णतः  उपेक्षित नहीं रहीं।
निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी संत कवियों में कबीर अग्रणी थे।  अपने सामयिक  समाज में व्याप्त जाति, वर्ण , लिंग तथा निर्धनता के मध्य होने वाले भेदभाव को वे अस्वस्थकर  तथा अहितकर  मानते थे । उन्होंने हिंदुओं मुसलमानों दोनों का उनकी संकुचित सांप्रदायिक दृष्टि और रूढ़ियों- परंपराओं के अंधानुगमन के लिए  विरोध किया तथा एक ईश्वर का नाम लेने के लिए प्रेरित किया किन्तु वे लिंग भेद के विरोधी होकर भी नारी के प्रति अनुदार रहे।  उन्होंने नारी को भक्ति- मुक्ति और ज्ञान को नष्ट करने वाली सिद्ध करते हुए उससे दूर रहने का प्रबोध किया –
“नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥” (1) 
कबीर की नारी विषयक अवधारणा उनके जीवनानुभवों तथा तदयुगीन पितृसत्तात्मक  सामाजिक संरचना से प्रभावित थी।  वे स्त्री जीवन के उस वैषम्य से अपरिचित थे जो स्त्री विमर्श के लिए पूर्व पीठिका बनी। ब्राह्मणों-सामंतों  द्वारा स्त्री के लिए परिवार, पारिवारिक जनों की आज्ञाकारिता ,  पातिव्रत धर्म का अनुकूल प्रतिकूल हर परिस्थिति में निर्वाह,  सार्वजनिकता से अलग पर्दा परंपरा का अनुगमन ही मुख्य माना जाता था । स्त्री वाद,  नारी मुक्ति और राजनीतिक- सार्वजनिक पदों पर नारी की नियुक्ति अकल्पनीय थी।वह रुढ़िग्रस्त,  पारंपरिक जकड़न में जी  रही थी।  पति का सामीप्य  भी उसे पति इच्छा से ही प्राप्त होता था । कबीरदास ने भी नारी के पातिव्रत धर्म के पालन की अनिवार्यता पर बल दिया है।  उनके अनुसार
“पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥” (2) 
यद्यपि कबीर काल में नारी विमर्श की कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं मिलती तथापि उनकी रचनाओं में नारी विषयक विरोधाभासी विचार भी मिलते हैं। विशेष रूप से जब वे स्वयं को स्त्री रुप में रुपांतरित कर अपने समस्त सुखदुःख , विरह मिलन को उससे साझा करते हैं और उलाहना देते हैं। प्रिय मिलन की कामना उन्हें गहरे अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त कर देती है-
“ बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहे तुम्हारी नारी, मोकों लागत लाज रे।
दिल से नहीं दिल लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिव सों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥“(3)
सती और पतिव्रता स्त्रियां उनकी दृष्टि में पूज्य थीं इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनकी तदविषयक दृष्टि पूर्वाग्रह ग्रसित नहीं थी। एक यायावर संत के रुप में उन्होंने घर गृहस्थी से संबंध समाप्त कर लिया था अतः उनके प्रति निर्लिप्तता का भाव स्वाभाविक ही है। संत कवियों ने लोकधर्म की अवहेलना करते हुए स्वतंत्र सजग प्रकृति की नारी की विगर्हणा की है। कबीर सदृश दादू ने भी पातिव्रत धर्म की संस्तुति की है। उल्लेखनीय है कि संत सम्प्रदाय में कुछ स्त्रियां ने पारिवारिक प्रतिबंधनों को अस्वीकार कर अपने आचरण से स्त्रियों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। इनका सामान्यतः इतिहासकारों ने उल्लेख कुछ पंक्तियों या अनुच्छेद में करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी। यथा बाबरी साहिबा निर्गुणोपासक संत कवयित्री व बाबरी सम्प्रदाय की प्रवर्तिका थीं। सम्प्रदाय का संचालन, अनुयायियों के मार्ग दर्शन से असाधारण व्यक्तित्व प्राप्त बावरी  साहिबा का उल्लेख केवल आचार्य  हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया। यह गुरु मायानंद की शिष्या थीं व संत दादूदयाल की समकालीन थी। इनके जन्म और रचनाओं के विषय में कुछ ज्ञात नहीं होता तथापि उस समय की मान्यताओं के विरुद्घ गृहत्याग कर साधुसंगति को अपनाना ही पर्याप्त दुस्साहस करना था जिसमें आधुनिक नारी सशक्तिकरण की प्रेरणा छिपी मिलती है।
कबीर पुत्री कमाली भी संतयुगीन कवयित्री थीं तथा उनके कुछ पद लोकप्रिय भी हुए हैं-
“दस दरवाजे बंद कर सोई
न जानूं कोई खिड़की खुली थी
श्याम निकस गये,
कहत कमाली कबीर की बेटी
इस ब्याही से तो कुंवारी भली थी।”(4) 
कमाली अपने पिता और भाई कमाल सदृश सामाजिक रुढ़ मान्यताओं की विरोधी थीं।
प्रेममार्गी सूफी संत कवियों का काव्य प्रतीकात्मक था।उसमें नारी का अंकन प्रेमपात्री रुप में किया गया जिसके सौन्दर्य की चर्चा से आकर्षित नायक विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, प्राकृतिक व्यवधानों को झेलता हुआ अन्ततः उसे प्राप्त करता है। नारी विमर्श की कोई पृथक अवधारणा यहां नहीं मिलती।
भक्ति कालीन  सगुणोपासक कवियों ने विष्णु के अवतारी राम और कृष्ण को इष्ट माना। तुलसीदास के मर्यादा पुरुषोत्तम इष्ट के अनुरूप ही उनकी सृष्टि का अनुमान एवं उनके सर्वस्व समर्पित दास तुलसी भी मर्यादित है । वर्णाश्रम धर्म की निर्धारित मर्यादा तथा सदियों की व्यवस्था की सुदृढ़ स्थापना उनका अभिप्रेत है । स्त्री संबंधी उनकी दृष्टि की परंपरा और वर्णाश्रम धर्म विषय सामाजिक मान्यताओं से प्रभावित थी । सावित्री चंद्रभान ने तुलसीदास की स्त्री विषयक अवधारणा का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-” तुलसीदास -जिन्हें  इस काल का प्रतिनिधि कवि भी मान सकते हैं-  की राय  स्त्रियों के प्रति दो तत्वों के संयोग  से बनी है।  एक तरफ वे स्त्रियों के प्रति  परंपरागत विचार से प्रभावित है जैसा कि हम एक रूढि विरोधी चिंतक कबीर के लेखन में भी देखते हैं,  दूसरी तरफ तुलसीदास समाज की दशा- दिशा पर भी विचार करते हैं और सामाजिक स्थिरता के प्रति उनकी गहरी चिंता स्त्रियों के प्रति उनके रुख को बहुत गहरे तौर पर प्रभावित करती है।” (5)  वे अपने सभी पात्रों व स्वयं को कभी मर्यादा की अर्गला से मुक्त नहीं करते। वे कबीर की भांति कभी राम की बहुरिया बनने की बात सोच भी नहीं पाते।’मानस’ में लंका विजयोपरांत राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा लेना और सीता का निर्विरोध उसे स्वीकार कर लेना दोनों की नियति थी। मानस मे आई उक्ति ‘ढोल , गवार, पशु , शूद्र , नारी ये सब है ताडन के अधिकारी’ को बहुधा तुलसी के नारी के प्रति पूर्वाग्रह मान लिया जाता है जो सर्वथा भ्रामक है। वे ना तो नारी की विगर्हणा करते थे और ना उसके लिए कठोर अनुशासकीय  विधानों के निर्धारण के ही पक्षधर  थे । कौशल्या वन गमन के लिए राम को सिंहासनारोहण से एक दिन पूर्व प्रस्थान करने के लिए तत्पर देखकर तथा लक्ष्मण और सीता को उनका अनुगमन करते देख चाहें उनका मातृ ह्रदय आंतरिक आकुलता से भर उठा हो किंतु धैर्य रखते हुए उन्हें नीति युक्त शिक्षा ही देती हैं।  आसन्न वैधव्य से विचलित  होने पर भी मरनासन्न  दशरथ को धैर्य बंधाती हैं। इसी प्रकार मंदोदरी और तारा भी नीतिगत बातों में अपने पति को परामर्श देती हैं। कैकयी को भी तुलसी ने पश्चाताप कराकर उनकी चारित्रिक मलिनता का परिहार किया है। सुमित्रा, लक्ष्मण  पत्नी उर्मिला का अतुलनीय त्याग तुलसी के नारी विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। भरत के साथ राम मिलन हेतु गई माताओं से सीता का व्यवहार अत्यंत मर्यादित है। वे ब्राहमणोंनुमोदित स्त्री धर्म का उल्लंघन करते हुए अपनी माता के पास रात्रि में नहीं रुकती जिसकी आधुनिक नारी से अपेक्षा नहीं की जा सकती। तुलसीदास स्त्री पीड़ा से अनभिज्ञ नहीं थे। 
            तुलसी दास की पत्नी रत्नावली ने व्याकरण, छंद, पिंगल शास्त्र व धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया था। वे मौलिक काव्य रचना भी करती थीं किन्तु उनके वैविध्य पूर्ण, निर्दोष, नीतिपरक काव्य को उनके युग में अपेक्षित स्वीकृति नहीं मिली। अपने नीतिपरक दोहों के माध्यम से उन्होंने जीवन को सार्थक बनाने की दिशा निर्देशित की।उनका वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं था। अपनी निजानुभूति को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है-
  ” हाय बदरिया वन भई हों वामा विष बेलि।
  रत्नावलि हों ना की रसहि दियो बिस मेलि।
  दीनबंधु कर घर पत्नी, दीनबंधु कर छांह।
  त ऊ भाई हौं दीन अति,पति त्यागी मों बांह।
  सनक सनातन सुकुल कुल,गेह भयो पिय स्याम।
  रत्नावलि अभागई ,तुम बिन बन सम गाम।”(6) 
  सगुणोपासक सूर के इष्ट अहीर समुदाय के लीला पुरुष कृष्ण थे। उनकी भक्ति माधुर्य भाव की थी।उनकी विवाहित अविवाहित गोपियाँ कृष्ण प्रेम में उन्मत्त हो अर्धरात्रि में रास रचाने यमुना तट पर पहुंच जाती हैं। सूर का वृन्दावन पितृसत्तात्मक विधानों से युक्त था। आर्थिक दृष्टि से परिवार में इनकी स्थिति अनुपेक्षणीय थी।प्रेम की सामन्ती नैतिकता उन्हें वैवाहिक प्रेम में बांध नहीं पाती। कृष्ण के पतिसेवा द्वारा मोक्ष प्राप्ति का उपदेश उन्हें ग्राह्य नहीं होता। सूर की गोपियाँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं। गौ पालन, दूध,मक्खन घी के विक्रय में सक्रिय हैं अतः बेबाक हैं। विधिवत शास्त्राध्ययन न करने पर भी अपनी तर्कणा शक्ति से वे निर्गुणोपासना का उपदेश देने आए उद्धव को निरुत्तर ही नहीं कर देतीं अपितु अपने ही रंग में रंग देती हैं। उनके प्रश्न ‘निर्गुन कौन देस को बासी’ का समुचित उत्तर देने में असमर्थ उद्धव सकपका जाते हैं। सूरदास की गोपियाँ ज्ञान पर पुरुषों के एकाधिकार की मान्यता को एक सिरे से नकार देती हैं। सूर काव्य में उपलब्ध स्त्री विमर्श आधुनिक सामाजिक मान्यताओं को भी बहुत पीछे छोड़ जाता है।  कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई का नाम भी अविस्मरणीय है। मेवाड़ के राजकुल से संबद्ध होने के कारण उनके अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण भी राजसी  मर्यादानुमोदित  होता था । उनके व्यक्तिगत- सामाजिक अधिकारों , व्यक्तिगत इच्छाओं- आकांक्षाओं और कार्य- व्यवहार को कोई महत्व नहीं दिया जाता था । मीरा का जन्म पुरुष वर्चस्व वाले ऐसे समाज में हुआ था जिसमें परिवार, परंपरा, पातिव्रत्य ,पर्दा और आज्ञाकारिता  नारी जीवन को प्रभावित करने वाले कारक थे। उन्हीं के आधार पर उसकी श्रेष्ठा का निर्धारण किया जाता था। मीरा ने इन सब को अस्वीकार करते हुए  अपनी निजता को स्थापित किया। अपनी इच्छाओं -आकांक्षाओं, तन -मन पर परिवार और समाज के प्रतिबंधों को अस्वीकार कर अपने सभी निर्णय स्वयं लेने पर बल दिया। पुत्री, भगिनी , माता आदि की भूमिकाएं  उनकी दृष्टि में महत्वहीन थीं। उन्हें केवल प्रेमिका रूप अपने अनुकूल लगा। 
        “म्हारां री गिरधर गोपाल दूसरां णा कूयां ।
       दूसरां णां कूयां साधां सफल लोक जूयां ।
       भाया छांणयां, बन्धा छांड्यां सगां भूयां ।
       साधां ढिग बैठ बैठ, लोक लाज खूंयां ।” (7) 
  उनकी निजता ने ही उन्हें अपने समाज से टकराने का साहस प्रदान किया । परिवार द्वारा निश्चित किए गए वैवाहिक संबंध को भी उन्होंने नहीं माना।  उन्होंने तो कृष्ण से अपना वैवाहिक संबंध स्वीकार किया है-
“माई म्हाणो सुपणा मां परण्यां वीनानाथ।
छप्पण कोटां जणां पधारयां दूल्हो सिरी व्रजनाथ।
सुपणा मां तोरण बेंध्यारी सुपणामां गह्या हाथ।
सुपणां मां म्हारे परण गया पायां अचल सुहाग।
मीरां रो गिरधर मिल्यारी, पुरब जणम रो भाग।”(8 )
ऐसे दैवी अलौकिक परिणति की प्राप्ति दुर्लभ है । ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक नारी के सदृश वे पारिवारिक, धार्मिक रीति-रिवाजों और सामाजिक  परंपराओं के अनुपालन में  विश्वास नहीं करती थीं। पिता तथा ससुर दोनों के घरों की मान्यताएं और प्रतिबंध उनके स्वच्छंद मन को जकड़ने  में असमर्थ रहे । उन्होंने अपने परिवारों में मान्य ‘एक लिंग’ की आराधना के स्थान पर गिरधर नागर को अपना सर्वस्व माना ।
“मीरां लागो रंग हरी औरन रंग अटक परी।।टेक।।
चूडो म्हारे तिलक अरू माला, सील बरत सिणगारो।
और सिंगार म्हारे दाय न आवे, यों गुर ग्यान हमारो।
कोई निन्दो कोई बिन्दो म्हें तो गुण गोविन्द का गास्यां।
जिण मारग म्हांरा पधारै, उस मारग म्हे जास्यां।
चोरी न करस्यां जिव न सतास्यां, कांई करसी म्हांरो कोई।
गज से उतर के खर नहिं चढस्यां, ये तो बात न होई।।” (9) 
सामंती समाज द्वारा स्त्री को सार्वजनिकता  से वंचित रखने के प्रयास को भी उन्होंने निष्फल कर दिया और ना केवल सार्वजनिक जीवन से बल्कि साधुओं की संगति अपनायी जिसे उस समय अनुचित माना जाता था । उन्होंने अपने जीवन के अंतर्विरोधों, दुख- पीड़ा को भी सार्वजनिक अभिव्यक्ति दी है। वे सास के लड़ने, ननंद के चिढ़ने तथा पति के क्रोधित होने से अप्रभावित रहते हुए गिरधर नागर से अपनी स्थिति को यथावत बनाए रखती हैं । उनका यह विरोधी तेवर सामयिक युग के लिए उचित नहीं था ।  राजघरानों की स्त्रियों को ‘असूर्य पश्या’ कहा गया है।  पर्दे में रहने के कारण  सूर्य की किरण भी उन्हें छू नहीं पाती थी। ऐसे में मीरा का मंदिर के प्रांगण में साधु-संतों के साथ सत्संग व नृत्य करना परिवार और समाज को मर्यादा हीन लगा। तदयुगीन समाज में  छूतछात तथा ऊंच-नीच का भेदभाव भी था। मीरा का संत  रैदास को गुरु भाव से आदरपूर्वक सम्मान  देना भी किसी को पसंद नहीं आया। वैधव्य मध्ययुगीन नारी के लिए अभिशाप था । बाल विवाह , अनमेल विवाह ,विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियां प्रचलित थीं।  पुरुष विधुर होने पर विवाह कर सकता था किंतु स्त्री के लिए सती होने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था । मीरा ने इसे अस्वीकार कर अपने निजी निर्णय  को प्राथमिकता दी।  चौकी , पहरा , विष का प्याला भी गिरधर नागर के प्रति उनके प्रेम और साधु संगति में जीवन व्यतीत करने के निर्णय से डिगा नहीं पाया।
“सती न होस्यां भजन करस्यां”(10) 
डॉ परशुराम चतुर्वेदी की दृष्टि में अल्प आयु में ही मीरा के ह्रदय में उत्पन्न वैराग्य की भावना ने उनकी मानसिकता को प्रभावित किया है । “अपनी तेईस  वर्ष की अवस्था के भीतर ही अपनी माता, पितामह, पति, पिता तथा ससुर के स्वर्ग वासी हो जाने के कारण,मीराबाई के हृदय में विरक्ति का भाव क्रमशः  जागृत होता गया और साथ ही अपने पितामह परम वैष्णव राव दूदा जी  के संसर्ग द्वारा आरोपित भक्तिभाव का बीज धीरे-धीरे अंकुरित , पल्लवित तथा परिवर्धित होता हुआ अनुदित जड़ पकड़ता गया।”(11) अपने गिरधर गोपाल के साथ रहते हुए वे उनके प्रति पूर्ण रुप से समर्पित हो जाती हैं।यह उनके पातिव्रत्य का ही प्रमाण है।
“मैं तो गिरधर के घर जाऊं
गिरधर म्यांरों सांचों प्रीतम देखत रुप लुभाऊं
रैण पड़े तब ही उठि जाऊं, भोर गये उठि आऊं
रैण दिना वाके संग खेलूं, ज्यूं त्यूं वाहि लुभाऊं।
जो पहिरावै सोई पीहरुं,जो दे सोई खाऊं।
मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण विण पल न रहाऊं।
जहं बैठावे तितही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊं।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर,बार बार बलि जाऊं।।(12) 
वे स्त्री वादी या  समाज सुधारक ना होकर अपने निजत्व के संरक्षण हेतु ही नारी विरोधी सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह करती हैं । साधु संगति के साथ ही परतंत्रता का  प्रतीक घूंघट इत्यादि स्वयं हट गया । पिता पति के प्रति पारंपरिक आज्ञाकारिता का भाव भी उनके बढ़ते कदमों को रोक ना सका । राणा की अकूत संपत्ति और पारिवारिक मर्यादा तथा लोक लाज की दुहाई देती व्यवस्था भी उनके लिए महत्वहीन थी।  सिंदूर , बिंदी, चूड़ी , बिछुआ आदि सुहाग चिन्हों को उन्होंने स्वेच्छा से त्याग दिया क्योंकि वे उन्हें उनकी निजता से वंचित करने वाले उपकरण थे। पाप पुण्य की परंपरागत अवधारणा उन्हें मान्य नहीं थी।  जीव मात्र के उत्पीड़न को ही वे पाप  और इष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण और सत्संगति को पुण्य मानती थीं। डॉ. मैनेजर पांडे  के शब्दों में -” मीरा का जीवन संघर्ष, उनके प्रेम का विद्रोही स्वभाव और उनकी कविता में स्त्री स्वर  की सामाजिक  सजगता भक्ति आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि है , जिसकी ओर हिंदी आलोचना में कम ही ध्यान दिया गया है।” (13) 
           मीराबाई के अतिरिक्त सहजोबाई, दया बाई , सुंदर कुंवरि बाई आदि अन्य संत रचनाकार हुईं जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में स्वयं प्रवेश कर स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता की दिशा निर्देश की । इनकी रचनाओं का अपेक्षित मूल्यांकन आलोचकों के एक पक्षीय दृष्टिकोण तथा पुरुषवादी सामंती विचारधारा के कारण नहीं हुआ । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सहजो बाई , दयाबाई , मीरा आदि की गुरुभक्ति, भगवद् प्रेमभाव, भावविह्वलता , आत्मसमर्पण का उल्लेख अत्यंत संक्षिप्त रुप में किया है किंतु मध्यकालीन पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के प्रति उनके विद्रोह की कोई चर्चा नहीं की है । यही स्थिति  मिश्र बंधुओं के ‘मिश्रबन्धु विनोद’ प्रथम खंड के पूर्व  माध्यमिक हिंदी तथा पौढ़ माध्यमिक हिंदी में मिलती है।  इनमें कल्याणी, गंगा, जमुना ,नवल आदि संतो के समय और ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय तो दिया गया है किन्तु मीरा के विद्रोही तेवर को रेखांकित नहीं किया गया । डॉ रामकुमार वर्मा ने ‘ हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में संत चरणदास की शिष्याओं के रूप में सहजोबाई तथा दयाबाई  तथा गृहस्थ आश्रम में उनके विश्वास का उल्लेख किया है। आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ में राबिया और रामानंद की शिष्याओं सुरसरि और पद्मावती का तथा डॉक्टर सावित्री सिन्हा ने ‘मध्यकालीन संत कवयित्रियों में उमा और पार्वती का उल्लेख मात्र किया है। स्त्रियों की  रचनात्मकता पुरुष वर्चस्व तथा सामन्ती विचारधारा  के विरुद्ध थी अतः पुरुष समाज द्वारा उसकी उपेक्षा स्वभाविक थी।  डा. जगदीश चतुर्वेदी का अभिमत है-“साहित्य की मुख्य धारा ने स्त्री की अस्मिता, आकांक्षाओं इच्छाओं, जरूरतों, अनुभवों एवं मनः स्थिति की कुल मिलाकर उपेक्षा की।  मुख्यधारा में स्त्री साहित्य को शामिल नहीं किया गया ।” (14) सावित्री सिन्हा जी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उमा को राम के मर्यादित जीवन में रूढ़ियों और परंपराओं से मुक्ति की कोई संभावना नहीं दिखी अतः उन्होंने कृष्ण को ही उनके निर्गुण रूप में अपना लिया । उन्हें पुरुषवादी व्यवस्था स्वीकार नहीं थी।
“ऐसे फाग खेले राम राम।
सुरत सुआगण सम्मुख आय।।
संत तत को बन्यो है बाग।
जामें सामंत सहेली रमत फाग।।
जहां राम झरोखे बैठ आय।
प्रेम पसारी प्यारी लगाय।।
जहां सब जनन को बन्यो है।
ज्ञान गुलाल किया हानि केसर मारो जाय।। “(15)
पार्वती ने तो अपने गुरु को भी सशर्त स्वीकारा जो उनके चेतस व्यक्तित्व का परिचायक है।
” धन जीवन की फटे न आस।
चित्त न राखें कामिनी पास।।
नाद बिंदू जाके घट जरै।
ताकी सेवा पारबती करै।”(16) 
उन्होंने स्त्रियों के लिए ज्ञान और विचार के क्षेत्र को वर्जित नहीं माना । मीरा की भांति इन्होंने भी अपने अनुभवों को सार्वजनिक किया। वे अपने समय की सामाजिक व्यवस्था से पूर्ण परिचय थी तथा उसमें प्रचलित अमान्य विचारों का विरोध करती थी। इस समय विट्ठल बाई गिरधरन के नाम से ‘गंगा बाई’ के पद की रचयिता गंगाबाई ने स्त्रियों में व्याप्त हीन भावना को दूर करने का यथासंभव प्रयास किया । वे स्वयं भी कभी समय और समाज के दबाव में नहीं रहीं । ललित किशोरी के इष्ट भी गिरधर गोपाल हैं । मीरा के सदृश उन्होंने अपने आचरण को दी गई हर चुनौती को पूरे साहस और निर्भीकता से ललकारा है –
” लोक लाज कुल कानि तजी सब,जामें तुव रुचि चीनी।
धरम करम व्रत नेम सबै सो तोई रंग रस भीनी।।
तुव कारन यह भेष बनायो प्रगत उधारि करि नाचि।
नाउं कुनाउं धरौ किन कोऊ हैं नाहिन मति कांची।।
होनी होय सो होय भले ही तनमन लगन लगी है।
ललित किशोरी लाल तिहारे,मति अनुराग पगी है।।”(17)
रसिक बिहारी बनीठनी जी  समस्त सामाजिक वर्जनाओं से निर्लिप्त रहते हुए श्री नागरी दास के साथ रहीं। उन्होंने कृष्ण के शैशव और राधा कृष्ण की रति चेष्टाओं को अपनी रचनाओं का विषय बनाया । जगदीश्वर चतुर्वेदी के मतानुसार-”  शारीरिक वासना और उसकी संवेदात्मक अनुभूतियों के सघन रुपों को उन्होंने कविता में व्यक्त किया है । ‘वैराग्य’ के बावजूद उनकी रचनाओं में प्रेम की आतुरता, नागरी दास के साथ रहन-सहन , परकीया  की तीव्र अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति, प्रेम के आवेग में संसार से लोहा लेने की इच्छा शक्ति इतनी प्रबल है कि समस्त तर्क, विवेक, बौद्धिकता आदि बेमानी हो जाते हैं। वैयक्तिक संतोष पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया है ।”(18)  भारतीय वर्णाश्रम धर्म पूर्व संचित कर्मों का फल मिलने के अनिवार्यता बताकर स्त्रियों को भयभीत कर अन्या बना देता था । सहजोबाई ने पिता, पति, पुत्र द्वारा शास्त्रानुमोदित प्रतिबंधों को स्वार्थ प्रेरित बताकर अस्वीकार कर दिया है–
“सहजो स्वारथ सब लगे,दारा, सुत औ बीरः
जीवत जोतै बैल ज्यों, मुए चढ़ावै सीर।।
कोई किसी के संग ना, रोग मरन दुख बंध।
इतने पर अपनी कहैं, सहजो ये नर अंध।।”(19) 
राजकुल की मीरा के लिए अपने निर्णय लेना जितना सहज था दूसरे कुल की सनातन धर्मी परिवार की सहजो बाई के लिए उससे मुक्ति पाना उतना ही कठिन था । अपने गुरु चरणदास के साथ रहने के कारण उन्हें लोकापवाद भी झेलना पड़ा। उन्होंने मीरा की भांति जाति और कुल की मर्यादा को तिलांजलि देकर कहा है-
“चरनदास सतगुरू दियो, प्रेम पिलाया छान।
सहजो मतवारे भये,तुरिया तत गलतान।।
प्रेम दिवाने जो भये,जाति वरन गइ छूट।
सहजो जग बौरा कहै, लोग गये सब फूट।।”(20) 
उन्होंने ना तो गुरु को पति रूप में अपनाया और ना अपनी कल्पना पतिव्रता रूप में की है। उन्होंने पुरुष केन्द्रित  समाज में स्त्री-पुरुष संबंध की विडंबना पूर्ण स्थिति पर प्रहार किया और परिवार में स्त्री पुरुष के मध्य असमान श्रम विभाजन का विरोध किया है। उन्होंने स्त्री की रुढ़ छवि को तोड़ा और उस संतत्व को प्राप्त किया जो मध्यकालीन समाज में एक असंभव सी बात थी।  यह अधिकार केवल पुरुषों को प्राप्त था।  मोक्ष के परंपरागत मान्यता ( पति की सेवा ) से अलग उन्होंने स्वयं को समाज से पृथक व्यक्ति के रूप में स्थापित किया और यही स्त्री से व्यक्ति तक की यात्रा उनकी दृष्टि में मोक्ष यात्रा थी ।
समाहारतः मध्ययुगीन संतों का अपने समाज व परिवेश से संबंध कहीं दूसरे संतो से साम्य रखता था तो अन्यत्र भिन्न था । सबने अपनी -अपनी मान्यताओं के अनुरूप साहित्य साधना की अतः सबकी रचनाओं को एक ही निकष पर कसना  उचित नहीं कहा जा सकता । उनकी रचनाओं में व्यक्त नारी विमर्श को भी अलग-अलग परखा जाना समीचीन होगा।  आज के अनवरत  परिवर्तित होते परिवेश में नारी विमर्श को भक्ति कालीन नारी विमर्श के निकष  के रूप में स्वीकारा नहीं जा सकता।
सन्दर्भः 
21.कबीर समग्र ,  सम्पादक डॉ. युगेश्वर, प्रकाशन- हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी , प्रथम संस्करण 1994, पृष्ठ 286
  1. https://www.thedivineindia.com/hi patibarata-mailee-bhalee.html
  2. कबीर बानी,   राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. संस्करण : 2010 , पृष्ठ 54
  3. भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड , अंसारी रोड़, दरियागंज , प्रथम संस्करण 2014 , पृष्ठ 52 पर उद्धृत
  4. सोशल लाइफ एंड कॉन्सेप्ट इन मेडिएवल हिंदी भक्ति पोयट्री, सावित्री चंद शोभा, चन्द्रायन प्रकाशन,दिल्ली, 1983,पृष्ठ 25
  5. भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा, भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा,  पृष्ठ 71 पर उद्धृत
  6. http://sanatanjagruti.org/bhakti mere-to-girdhar-gopal
  7. http://www.aapanorajasthan.org/meera2.php
  8. https://hindi kavita.com/HindiPoetrySantMeeraBai6.php
  9. भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड , अंसारी रोड़, दरियागंज , प्रथम संस्करण 2014,  पृष्ठ 34 पर उद्धृत
  10. मध्यकालीन प्रेम साधना, परशुराम चतुर्वेदी, पृष्ठ 129
  11. भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा , अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड , अंसारी रोड़, दरियागंज , प्रथम संस्करण 2014,   पृष्ठ 35 पर उद्धृत
  12. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य डॉक्टर मैनेजर पांडे पृष्ठ 43
  13. स्त्री वादी साहित्य विमर्श , डा. जगदीश चतुर्वेदी , पृष्ठ 7
  14. स्त्री वादी साहित्य विमर्श, डा. जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृष्ठ 29
  15. स्त्री वादी साहित्य विमर्श, डा. जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृष्ठ 29
  16. भक्ति आंदोलन और स्त्री विमर्श, मेधा , , अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा. लिमिटेड , अंसारी रोड़, दरियागंज , प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ 73 पर उद्धृत
  17. स्त्री वादी साहित्य विमर्श, डा जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृष्ठ 60
  18. सहज प्रकाश, सहजोबाई, पृष्ठ 17
  19. सहज प्रकाश, सहजोबाई, पृष्ठ 36
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष.9911146968 ई.मेल-- ms.ruchira.gupta@gmail.com

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