मन चाहता है वापस उन्हीं स्मृतियों के गलियारे में लौट जाएं,, जहां स्वतंत्रता दिवस सचमुच हमारे लिए वंदनीय था,, एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय त्योहार था, जिसका स्वागत और आदर हम दिल से करते थे।
स्वतंत्रता दिवस मेरे बचपन के प्रिय त्योहारो में से एक रहा है, एक सुनहला सपना देखने के बाद होने वाली सुखद भोर की कल्पना आज भी मन को छू लेती है,,, स्वतंत्रता सेनानी दादाजी ने हमें हमेशा इन पर्वों का आदर करना सिखाया था,,, देशभक्तों की अनगिनत कहानियां सुनाई थी,, और हम कभी गांधी जी की मृत्यु तो कभी भगतसिंह की फांसी पर ऱो पड़ते थे,,उस समय हम बच्चों के लिए रात काटनी मुश्किल हो जाती थी,, सुबह उठते ही ढेरों काम, तैयारियां,,रात भर जागकर रंगीन कागज की बनी झंडियां यहाँ-वहां पूरे घर आंगन में फैला कर कागज चिपकाया करते थे,,सफेद लकदक कपड़े, तिरंगे झंडे, सब देखभाल कर तैयार करते तब कहीं जाकर रात बारह बजे तक सो पाते थे, जब दादाजी जीवित थे,तब तो सारा मुहल्ला जुट जाता था, दादाजी एक लंबे से बांस में तिरंगा झंडा फहराते, फिर जन-गण-मन गाया जाता,, और पड़ोसी बाबूनदन की दुकान से खरीद कर लड्डू बांटे जातें थे।
हमारे मकान मालिक साह जी यह सारी व्यवस्था करते थे, लेकिन अब दादाजी नहीं रहे और मेरे पिताजी का स्थानांतरण नैनीताल हो गया तो सब कुछ छूटता जान पड़ा था। कुछ दिनों तक बीती यादों का सफर बहुत कुछ याद दिलाता रहता, दादाजी की यादें। पर धीरे धीरे हम स्कूल के कार्यक्रमों में बढ चढकर भाग लेने लगे। सहगान,नृत्य, कविताएं सुनाकर सबकी तारीफ मिलती तो मन गर्व से भर जाता था,,उस समय हमारा बचपन सामाजिक राजनीतिक छल छंदों, और दांव-पेंच की बातों को नहीं समझ पाता था,,बस यह हमारा देश है,,,गांधी, नेहरू सुभाष भगतसिंह सभी अपने हैं,,उनका आदर सम्मान भी था मन में,,, परंतु वर्षों बीत गए, उम्र के अनेक पड़ावों से गुजर कर, उच्च शिक्षा के गलियारों को पार करते हुए भी फिर कभी बचपन जैसे स्वतंत्रता दिवस नहीं मना पाए हम,,सब कुछ यादों में कैद,,,
एक नई सुबह-जागृति की, विश्वास की,एकता व् गर्व-बोध से भरे गणतंत्र की,–हाथों में तिरंगे झंडे उठाये हजारों बच्चों की एक सम्मिलित आवाज —”भारत माता की जय !,-पद्रह अगस्त अमर रहे !”–युवा उमंग और जोश भरे स्वर —”आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की,इस मिट्टी से तिलक ,करो,ये धरती है बलिदान की ”–बचपन में राष्ट्रीय उत्सव की यह तस्वीर मेरे सपनो में कैद है —पर समय के बदलते परिदृश्य में यह तस्वीर धीरे धीरे बदल रही है,–अपने प्रिय कवि नीरज जो पंक्तियाँ मुझे अतयंत प्रिय थीं –””सागर चरण पखारे -गंगा शीश चढ़ाये नीर, मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर -तुझको या तेरे नदीश गिरी-वन को नमन करूँ,-किसको नमन करूँ मैं भारत किसको नमन करूँ -पंक्तियों को कभी शान से गुनगुनाते गर्व का अनुभव होता था पर अब उमंग उत्साह की हिलोरें पहले जैसी नहीं रही युवा मन में -देशभक्ति व् देश के प्रति समर्पण बोध आज भी है,भारत माँ आज भी वंदनीया है, परन्तु आज जन-मन की भावनाएं कहीं आहत हो गईं हैं, आज बहुत याद करतीं हूं वह बचपन की पवित्र भावना,जब हम पूरे मन से, भारत माता अमर रहे।
हिन्दुस्तान जिंदाबाद*के नारे लगाया करते थे,,आज तो हम सबके लिए स्वतत्रता दिवस मात्र एक छुट्टी का दिन है,पूरे दिन आराम करना है, मनपसंद चीजें खाने का दिन है,, बहुत हुआ तो टीवी पर प्रधानमंत्री जी को झंडा फहराते देख लेते हैं,, जन-गण-मन गीत खड़े होकर गा लेते हैं,बस यही भावना शेष रह गई है आज की पीढ़ी,परिवैश में,, ईश्वर से प्रार्थना है,, और मेरा मन आज भी यही चाहता है ** कि कब वो दिन आए जब हम अपने राष्ट्रीय त्योहारो को भी उतनी ही धूमधाम से मनाते, जैसे होली या दीवाली,,, देशभक्ति के गीत फिर फिजाओं में गूंजते,,काश, ऐसे ही हो,जय हिन्द जय भारत वंदेमातरम!!
सच में वह समय बहुत अच्छा था।
हमारे भी पिताजी और ससुर जी दोनों ही फ्रीडम फाइटर रहे। और उन्होंने भी देश भक्ति के बदले में सरकार से कुछ नहीं लिया।
15 अगस्त से पहले हमारे यहाँ 9 अगस्त को शहीद दिवस मनाया जाता था। उठते तो रोज सुबह ही जल्दी थे 5:00 उठने की घंटी बज ही जाती थी। वार्डन राउंड पर आ जाती थीं। वनस्थली के पास ही एक गाँव में बहुत बड़ा सा तालाब था वहाँ 9th to 11th की लड़कियाँ जाती थीं कतारबद्ध। शायद 7:00 बजे के आसपास। कुछ लड़कियाँ और एक दो टीचर नाव में बैठकर पुष्प वगैरह लेकर तालाब के बीच में जाते थे और वहाँ पुष्प समर्पित करते थे। उसके बाद यहाँ किनारे पर म्यूजिक वाली लड़कियाँ शहीद गीत गाती थीं, बाकी सब तालाब के किनारे खड़े रहते थे। हमें आज भी याद है दो गीत होते थे और वहाँ पर। म्यूजिशियन लड़कियांँ भी रहती थीं।
अब नहीं पता कौन से गीत होते हैं लेकिन हमारे समय के दो गीत थे-
1–तुमको प्रणाम है ,जिसका कि ज्ञात या अथवा अज्ञात नाम है।
2-दिया है शहीदों ने लहू
जिस दिए में
उसे प्राण की लौ दे जलाए तुम रखना।
आज भी याद है।
गाने को सुनकर ही रोमांच हो जाता था और आँखों से आँसू भी बहने लगते थे।
बाद में तो सुनने में आया था कि लड़कियों ने श्रमदान से वनस्थली की सीमा में ही एक अच्छा सा बड़ा सा तालाब खोद लिया था। श्रमदान करने वाली हमारी जूनियर बहनों ने बताया।
वनस्थली का ध्वजा रोहण एक ही जगह होता था परेड ग्राउंड में। वहाँ पर एनसीसी की जूनियर और सीनियर ग्रेड की परेड व सलामी होती। वनस्थली का खुद का परेड ग्राउंड था। अच्छा बड़ा सा। बहुत सारे खेल होते, व्यायाम होते,योगा और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते थे। हमें याद नहीं है कि वहाँ लड्डू वगैरह जैसी कोई चीज मिलती थी। लेकिन जब एनसीसी ली 9th में तो रिफ्रेशमेंट जरूर मिलता था एनसीसी की तरफ से स्वतंत्रता दिवस और 26 जनवरी के दिन।
छुट्टियाँ तो वहाँ बहुत ही कम होती थीं। रक्षाबंधन, होली, दिवाली जन्माष्टमी शिवरात्रि 15 अगस्त 26 जनवरी सबकी एक-एक दिन की छुट्टी बस। पर इनके अलावा भी बहुत कुछ मनाया जाता था। युद्ध का प्रभाव भी वनस्थली में नजर आया। सन 65 में युद्ध के समय ट्रकों से ऊन आया और पढ़ाई छोड़कर हम लोगों ने हफ्ते में एक के हिसाब से बहुत स्वेटर बुने। स्कूल में भी फ्री पीरियड खेल के पीरियड में और फ्री टाइम पर वही होता रहा। एक जुनून था। उस समय आज की तरह मशीनों से स्वेटर नहीं बना करते थे।
हालांकि ठीक से याद नहीं है कि वह कौन सा समय था लेकिन एक बार कभी भी ऐसा हुआ था जब वनस्थली से एनसीसी की लड़कियों को युद्ध में जाने की भी बात हुई थी। सुनकर ही उत्साह आ गया था लेकिन फिर मना हो गया। कारण जो भी रहा हो।
देश के लिए तो कुछ भी करने के लिए हर पल तैयार रहना चाहिए सबको।देशभक्ति भी एक नशे की तरह है। इसके नशे के सामने, इसके प्रेम के सामने हर प्रेम बहुत छोटा नजर आता है। राष्ट्रभक्ति के सामने ईश्वर भक्ति भी नमन करती है। इन बेहतरीन स्मृतियों के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई पद्मा जी।