होम लेख प्रो. रूचिरा ढींगरा का लेख – नासिरा जी की कहानियां: अभिव्यक्ति और... लेखफीचर प्रो. रूचिरा ढींगरा का लेख – नासिरा जी की कहानियां: अभिव्यक्ति और शिल्प का अभूतपूर्व पैटर्न द्वारा डॉ. रुचिरा ढींगरा - June 5, 2022 218 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet (‘एक दूसरा ताजमहल’ और ‘बुतखाना’ कहानी संग्रह) ‘एक दूसरा ताजमहल‘ कहानी का प्रेरणा स्त्रोत नासिरा जी के मन में घुमड़ती शाहजहां और मुमताज महल की प्रेम कहानी है । सम्राट ने अपना प्रेम और समर्पण शिल्पियों के माध्यम से शिला खंडों में उड़ेल दिया और जीवन के अवसान तक टकटकी लगाकर उस ओर इस आशा से देखते रहे कि शायद उनकी प्रिया आ कर उनकी ओर देखेगी। यही कथा लेखिका से ‘एक दूसरा ताजमहल ‘ लिखवा गई। इस संग्रह की सभी कहानियां भावना , इंद्रिय संवेदना , अभिव्यक्ति और शिल्प के अभूतपूर्व पैटर्न से युक्त है । ‘एक और ताजमहल ‘ की कथा नायिका नैना इंटीरियर डेकोरेटर है जो छोटे –छोटे ताजमहल बनाने वाले वास्तुविद की भावपूर्ण छवि पर आकृष्ट होती है । अपने डॉक्टर पति द्वारा जूनियर डॉक्टर से संबंध बना लेने पर उसका जीवन रिक्त हो जाता है , पर वह हताश नहीं होती और अपने बेटों के पालन पोषण का दायित्व उठाने के साथ अपना छोटा इंटीरियर डेकोरेटर का काम शुरू करती है । स्पर्श की चाहत और जीवन की रिक्तता को दूर करने के लिए वह रवि भूषण का सानिध्य ढूंढती है जिसका जीवन उसी के समान रिक्त था । उसका प्रेम रोमांटिक वासना नहीं था। वह अपने नए रिश्ते के बारे में अपने बच्चों की राय जानना चाहती है । अपने प्रेम की सफलता –असफलता, रवि भूषण की विश्वसनीयता –अविश्वसनीयता पर भी गंभीरता से विचार करती है । उसे रवि भूषण के परिवार के विषय में सब कुछ पता है , किंतु रिसेप्शनिस्ट द्वारा रवि के विचित्र व्यवहार और विभिन्न संबंधों को जानकर उसके स्वप्नों का शीश महल चूर–चूर हो जाता है । वह टूटन की कगार पर पहुंच जाती है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि रवि भूषण द्वारा दर्शाया गया सारा प्यार छलावा था । कहानी की पीड़ा को पाठक पूरी तरह झेलता है । सारी कल्पना और वंचना कहानी के समाप्त होने के बाद समझ में आती है । किस्सागोई शैली का सुंदर उपयोग लेखिका ने किया है । ‘तुम डाल- डाल हम पात- पात ‘ कहानी मे कमाऊ मित्र के बल पर मौज मस्ती करनेवाले लड़कों , शाहगंज थाने के थानेदार त्रिपाठी की रिश्वतखोरी , शादियों में दलाली लेने और मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दशा के विविध प्रसंग हैं। अजीबोगरीब हरकतें करने वाला ज़हीर कारखाने में काम करता है। चाहे दूसरे उसकी आलोचना करें किंतु उसकी मां सिपतुल उसका पक्ष लेती है क्योंकि वह उसके भविष्य को समझती है । थाना पुलिस के रोब अपनी चिर–परिचित घिनौनी शक्ल में विद्यमान हैं। नागरिकों का प्रतिकार और मुस्लिम परिवारों की दयनीय अवस्थाओं और स्त्रियों का संघर्ष कहानी मे अंकित हैं। सिपतुल खंडर हो चुकी हवेली की बहू है । वह अपनी वृद्ध सास की [जो अमीर घराने की सुंदर बेटी और हवेली की नाक वाली बहू है ] सेवा करती है । वह स्वयं सारे अभाव झेलकर भी सास की प्रसन्नता का पूरा ध्यान रखती है । दोनों विधवा हैं और उनकी अपनी– अपनी सीमाएं हैं । पहली सास बहू की , दूसरी सास के बड़े घर की स्त्री होने की और बहू के सामान्य घर की सामान्य स्त्री होने की , तीसरी क्रियाशीलता की और चौथी जिजीविषा की सीमा । इन सबके बावजूद उनमें संबंधों का पूर्ण निर्वाह मिलता है क्योंकि सिपतुल अपनी आशंका और पीड़ा व दु:ख को अपनी सास से नहीं कहती । उसमें काम करने, व्यंग सहने , प्रबंध करने की अद्भुत क्षमता है । उसे अपनी नियति से कोई शिकायत नहीं है । भूख लगने पर भी वह सूई से छिदी उंगलियों पर पट्टी बांध, टाट के टुकड़े पर जाजिम बिछा लिहाफ़ ताकती रहती है । कहानी में इलाहाबाद शहर अपनी विख्यात गलियों –गलियारों सहित जीवंत है । छोटे- बड़े बाजार और उसमें चलता कार्य–व्यापार , छोटे–छोटे आत्मीय प्रसंग पूरी ईमानदारी से चित्रित हैं। कथा का अंत सिपतुल की एक कोणीय कथा से होता है । बहू, मुरली, नाज़ो, जमादारिन, आदि की वार्ता और बूढी दादी तथा सिपतुल के कार्य व्यवहार मे विभिन्न बोली–बानी का प्रयोग हुआ है । मुहावरों का यथास्थान सार्थक प्रयोग हुआ है। ‘और गोमती देखती रही‘ कहानी एक रेखाकीय, अति इंद्रिय कथा है । सरला एक शिक्षित,बोल्ड स्त्री है जो विवाह इच्छुक लड़कों को अपनी शर्तों पर खरा नहीं उतरने से मना कर देती है । सुधीर उसे पसंद आता है अतः वह उसके साथ शराब सिगरेट पीती और गज़लें सुनती है। सुधीर उसे डिनर पर आमंत्रित कर , खाना खाकर,उसे गोमती किनारे की शमशान भूमि में यह कह कर ले जाता है कि वह उसे अपने दिवंगत माता–पिता से मिलाने लाया है। वहां निरंतर आती और जलती चिताओं के बीच सरला को चुंबन देता है ।उसे बताता है कि वह उसके माता पिता को पसंद है ।उसका यह व्यवहार कथा पर अति इंद्रियता की सृष्टि करता है । सरला भी अपनी स्वीकृति दे देती है। सरला के बहाने लेखिका यह कहना चाहती हैं कि कुरूपता का भी एक यथार्थ व्यक्तित्व और इतिहास होता है , असुंदर का निषेध ना कर उसे स्वीकारना चाहिए। कहानी मनोवैज्ञानिक तथ्यों से युक्त है । लेखिका ने जीवन के विविध क्षेत्रों –कला, विज्ञान , फिल्म डेकोरेशन , चिकित्सा , शिक्षा आदि सभी से पात्रों का चयन किया है । ‘प्रोफेशनल वाइफ‘ एक त्रिकोणीय कहानी है । फिल्म निर्देशक विजय और स्क्रिप्ट लेखिका सुधा और बनी आपस मे सहयोगी हैं । उन के माध्यम से लेखिका इस तथ्य को व्यक्त करती हैं कि भावनात्मक संबंधों की अपेक्षा व्यवहारिक संबंध अधिक गहरे और टिकाऊ होते हैं । बनी विजय का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए उसे शैशव में ही घरेलू नौकर तथा चचेरे भाई द्वारा अपने साथ किए बलात्कार की मनगढ़ंत कहानी सुनाती है और स्वयं को मानसिक रूप से अस्वस्थ बताती है । तनाव को कम करने के लिए विजय द्वारा किए गए प्रयासों को प्रेम समझ , वह सुधा को उससे दूर करने के लिए सुधा के सामने विजय कोक कामुक पुरुष के रुप में प्रस्तुत करती है ।परिणामत: सुधा विजय के साथ काम करने से मना कर देती है पर भ्रम दूर होने पर वे फिर साथ- साथ काम करने लगते हैं । वस्तुत: विजय एक स्वार्थी और कामुक व्यक्ति है जिसे किसी से प्रेम नहीं है । बनी और सुधा यह नहीं समझ पाती कि दृश्य मीडिया की दुनिया में पुरुष की एक पत्नी घर पर , दूसरी प्रेमिका और तीसरी प्रोफेशनल वाइफ होती है ।नासिरा शर्मा में नारीवादी मनोविश्लेषण की पकड़ चित्रा मुद्गल और मृदुला गर्ग से अधिक है ।नई भाषा शैली द्वारा वे मानवीय संबंधों की अंतर जटिलताओं से युक्त मनोवैज्ञानिकता को उठाने में अधिक सफल रही हैं। ‘पंच नगीना वाले‘ कहानी पात्रों की वैचारिक उन्मुक्त तथा परंपरा और आधुनिकता की टकराहट तथा ज्योतिषियों की स्वार्थी –लोभी वृत्ति को आकर्षक रोचक संवादों द्वारा उद्घाटित करती है। पंच नगीना वाले ज्योतिष राम संस्कारवान होने के कारण अपने पुत्र एवं पुत्री के विवाह के निर्णय से हतप्रभ हो जाते हैं। वे पांच नगीनो वाली अंगूठी लेकर पंडित ब्रह्मदेव के पास उनकी राय लेने के लिए जाते हैं । पंडित ब्रह्मदेव एक अंगूठी और पाने के लालच से अपनी दो पुत्रियों की चर्चा करते हैं जिसे भांपकर ज्योतिष राम दूसरे पंडित के पास जाते हैं जो ऐसे विवाह को धर्म की दृष्टि से मान्य किंतु परंपरा की दृष्टि से अमान्य कहकर निर्णय उन्हीं पर छोड़ देता है। साढ़ेसाती की दशा में विवाह असंभव और दंपति के 3 पुत्र और पुत्री होने की भविष्यवाणी भी करता है अतः ज्योतिष राम बच्चों का विवाह करा देते हैं । वे बहू को समझ।ते हैं -“भूल जाओ जड़ मान्यताओं को ,फलने–फूलने दो अपने पैदा किए हुए बच्चों को। इसी में हमारा सुख है । यही हमारा सच है । ” कहानी के अंत में ज्योतिष राम और उनकी पत्नी दादा–दादी बन निर्णय पर खुश होते हैं । ‘गली घूम गई‘ कहानी में नारी जीवन की विसंगतियों , अंतर्विरोधों , टूटती आकांक्षाओं , एकाकी जीवन में स्वीकार–अस्वीकार की मनोदशा और परिवार में घटती स्वभाविक –अस्वभाविक घटनाओं को विषय रूप में अपनाया गया है । मिनी , रितु , राकेश के पिता बड़े–बड़े बच्चों के होते हुए भी दूसरा विवाह कर लेते हैं । उनकी स्वाभिमानी मां सिलाई करके बच्चों को पढ़ाती है । रितु के विवाह में पति द्वारा लाए कपड़े और गहने भी लौटा देती है । यहां कहानी का केंद्र मिनी हो जाती है ।बहन के विवाह में आया एक व्यक्ति उसे प्रसन्द करता है किंतु बाद में अन्यत्र विवाह कर लेता है । उसका प्रेमी रोहित भी उसे छोड़ कर चला जाता है। मिनी चिढ़चिढ़ी हो जाती है पर शीघ्र ही संयमित हो अपने अपूर्ण शोध कार्य को पूर्ण कर कॉलेज में पढ़ाने लगती है। राजेश कंप्यूटर की डिग्री लेकर वही नौकरी करने लगता है तथा प्रेमविवाह कर वहीं बस जाता है । रितु , मिनी के चिड़चिड़ेपन का कारण जानकर उसका संपर्क रोहित से कराती है ,जो सब के समझाने से विवाह करने के लिए म।न जाता है । लेखिका ने अपने जीवन में हताशा, निराशा और बेहाली नहीं देखी थी अतः अपनी नायिकाओं को भी उन्होंने जीवट और जीजिविषा से युक्त चित्रित किया है । मिनी को उसकी बहन और भाई संघर्ष की प्रेरणा देते हैं ।विवाह प्रस्ताव आने पर रितु कहती है –“प्रेम का अर्थ केवल एक साथ जीना नहीं बल्कि दूर रहकर भी साथ- साथ जीना होता है । तू तो भावना का फलक पहचानती है ,सरोकारों की पारखी है , फिर झिझक क्यूं ? जीवन में जो मिले उसे साहसपूर्वक जीओ, भोगो , चाहे वह अमृत हो या जहर ।” एक संघर्ष शील परिवार के सुखमय अंत के साथ कहानी का भी अंत हो जाता है। ‘ संदूकची‘कहानी संयुक्त परिवारों में सामान्यतः प्राप्त ईर्ष्या, कलह, बतकही , षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति और अपनत्व बोध को निरूपित करने वाली प्रथम पुरुष की शैली में रचित रचना है। पति की मृत्यु के बाद सुमन की मां अपनी संदूकची का सारा ज़ेवर एक –एक कर बेचकर बच्चों की शिक्षा और विवाह में लगा देती है। बेटे के विदेश में बस जाने के पश्चात प्यार से लिवाने आई बेटी के साथ रहने चली जाती है । वह उससे अपने कमरे की अलमारी में एक लॉकर बनवा देने के लिए कहती है ।वह उसे प्रतिदिन खोलकर अपनी संदूकची को सहलाती है । । उसका यह आचरण घर के सदस्यों के मध्य संशय का कारण बनता है। सुमन की चाची सास ,उसकी भावनाओं को ना समझ उन्हें आहत करती रहती हैं जिससे वे बीमार रहने लगती हैं और फिर उनका निधन हो जाता है । कहानी का अंत अत्यंत मर्मस्पर्शी है । सुमन कहती है –“मैं किसी को नहीं बता पायी मां उस खाली दराज में क्या रखकर ताला लगाती थी। ” प्रसंगानुरूप वृतांत विवेचन , आत्मालाप , पूर्व दीप्ति , तथा मनोविज्ञान आदि शैलियों का सफल प्रयोग किया गया है । ‘ बुतखाना ‘ कहानी संग्रह मे नासिरा जी की 1976- 2001 के कालखंड में रचित यथार्थ , कल्पना और सामाजिकता से युक्त ऐसी रचनाएं हैं जो उनकी सामाजिक चेतना , मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का जीता जागता दस्तावेज है । इसके अतिरिक्त यह विगत ढाई दशकों में घटित घटनाओं, समाजिक परिवर्तनो तथा उन में स्त्रियों की भागीदारी को स्पष्ट करती हैं । नासिरा जी की पहली कहानी ‘बुतखाना‘ है । इसके कथ्य और शिल्प में अपेक्षित प्रौढ़ता नहीं मिलती । यह कहानी दिल्ली की आपाधापी भरी जिंदगी को रेखांकित करती है जिसे लेखिका ने मानव जंगल की संज्ञा दी है । उन्होंने पात्रों के व्यक्तिगत जीवन के कैनवास पर अपने अनुभवों से सामाजिक सरोकारों के विविध वर्णन चित्र उकेरे हैं जिनमें समय के साथ नष्ट होते जीवन मूल्यों और संवेदना , दुश्चिंताओं के अभाव , टूटन , विद्रूपताओं , वेदना और जीवन की कटुताएं निहित हैं । छोटे शहर से महानगर में आया कथा नायक वहां के स्वार्थी और आत्म केंद्रित व्यक्तियों को देखकर हतप्रभ होता है क्योंकि वह अपने परिवार और मित्रों से भावनात्मक लगाव रखता है । बस में चढ़ने की आपाधापी में गिरी वृद्धा से वहां उपस्थित व्यक्ति अप्रभावित रहते हैं किंतु नायक विचलित हो जाता है । धीरे- धीरे इसी वातावरण में रहते हुए वह भी एक बुत या पत्थर बन जाता है । बहनोई के मित्र की दुर्घटना में हुई मृत्यु पर वह वहां जुटी असंवेदनशील भीड़ का एक हिस्सा बन कर रह जाता है । एक संवेदनशील व्यक्ति के परिवेश के कारण बुत बनने की विवशता और द्वन्द को चित्रित करने में नासिरा जी सफल रही हैं । कहानी अपनी मार्मिकता से पाठक बांध लेती है । भाषा की बेजोड़ पकड़ से घटनाएं पाठक को अपने समीप घटती लगती हैं । ‘नमक दान‘ कहानी में घटते जीवन मूल्यों के कारण घटित घटनाओं से पीड़ित मध्यवर्गीय पात्रों के माध्यम से पुरातन और नवीन के द्वन्द तथा ईमानदारी का प्रश्न उठाया गया है । बालिका के नमक जमीन पर डाल पाउडर की तरह रगड़ने पर अन्ना बुआ उसे नमक का महत्व और नमक का कर्ज चुकाने जैसे गंभीर विषयों को इस प्रकार समझाती हैं कि वह उसके अंदर संस्कार रूप में घर कर जाते हैं । विवाह के उपरांत पति जमाल को उस घर की अपेक्षा (जहां का नमक उसने वर्षों खाया था ) मित्र के साथ गुजारे दिनों को महत्व देते देख वह गंभीर हो जाती है । वह उसे नमक का महत्व समझाती है । ‘अपनी कोख‘ कहानी परिवारों में सामान्यत: प्राप्त पुत्र मोह को और उसके कारण होने वाली भ्रूण हत्या की समस्या को विवेचित करती है । कथा नायिका सरिता दो पुत्रियों को जन्म देने के पश्चात पुनः गर्भ धारण करती है ।उस पर परीक्षण कराने और पुत्र ना होने पर गर्भपात कराने का दबाव डाला जाता है । विदुषी सरिता चिकित्सक को विश्वास में लेकर परीक्षण में पुत्र होने पर भी गर्भपात करा देती है । लेखिका के अनुसार नारी की कोख पर उसी का अधिकार होना चाहिए । इसके लिए उसे साहसपूर्वक आगे आना होगा तभी वह अपनी अस्मिता की रक्षा करने के अतिरिक्त पुरुष के पुरुषत्व को झकझोर सकेगी। ‘ खिड़की‘ कहानी विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में फैले भ्रष्टाचार, सिफारिश , भाई–भतीजावाद , आरक्षण , प्रेम–प्रसंगों के आधार पर अंक और नौकरी देने पर प्रकाश डालती है। इसके शिकार प्रतिभाशाली छात्र और छात्राएं निराश और हताश हो जाते हैं। उनके मन में घुमड़ते आक्रोश को उन्हीं के माध्यम से अभिव्यक्त कराया गया है -“फिर नंबरों में खुली धांधली है । हम सेकंड क्लास लेकर क्या यूनिवर्सिटी में जॉब ले सकते हैं ? हम से खराब पढ़ने वाले क्यों अच्छे नंबर लेते हैं ? पेपर्स मिलाइए, डिस्कशन रखिये, फिर देखिए असलियत क्या है ? हम पढ़ने जाते हैं ।मापदंड पढ़ाई होना चाहिए, ना की खुशामद। “() (गायत्री शुक्ला का लेख ; बुतखाना: रेगिस्तानी जिंदगियों का शिलालेख, नासिरा शर्मा : शब्द और संवेदना की मनोभूमि , संपादक ललित शुक्ला, मे संकलित, पृष्ठ 247 ) लड़कों की अपेक्षा लड़कियां अपना पक्ष अधिक बेबाकी से प्रस्तुत ही नहीं करती अपितु दंड विधान को भी चुनौती दे देती हैं -“अभी हम यहां लड़ रहे हैं। जहां जाएंगे लड़ेंगे । लड़ते–लड़ते दम तोड़ देंगे । हो सकता है हमारी मांगों की जगह हमें रेस्टीकेट भी कर दिया जाए । हमने सब कुछ सोच लिया है ।” अपने अनिर्णीत भविष्य के कारण वे संघर्ष के लिए कटिबद्ध है । ‘गुमशुदा लड़की‘कहानी परंपरावादी दुल्हन की खोज पर आधारित रचना है । लेखिका ने संस्कारों के महत्व को प्रतिपादित किया है । आदाब दुपट्टा सेंटर के मालिक तक्कन मियाँ अपने ग्राहकों की रुचि का पूरा ध्यान रखते हैं । तीज त्योहार पर उनकी दुकान पर बहुत भीड़ हो जाती है। तक्कन मियाँ विवाह हो जाने के बाद दुकान पर आई लड़कियों की भीड़ में से भारतीय रस्मो–रिवाज में लिपटी लड़की को ढूंढते हैं जो पाश्चात्य लिबास में कहीं खो गई है ।भाषा का तेवर कहानी को रोचक बनाता है । ‘ठंडा बस्ता‘कहानी मे नासिरा जी ने सत्य, ईमानदारी , साहस का स्थान लेती अमानवीयता का अंकन किया है ।ज़रीना और उसका पति दोनों भ्रष्ट है । वे अपनी मान मर्यादा को ताक पर रखकर विचित्र रीति से शान–शौकत ,.संपत्ति ज्यादा जुटाने में लगे रहते हैं। ईमानदार पुलिस उनके चंगुल में ना फंस कर उन्हें बार– बार सुधर जाने की हिदायत देते हैं । ज़रीना की हत्या होने पर उसके द्वारा रिश्वत खाने वाले अफसर , हत्यारे का पता लग जाने पर भी निष्क्रिय रहते हुए केस को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं ।केस की तह में जाने के लिए प्रतिबध्द सत्यवादी और साहसी एस एच.ओ का तबादला कर दिया जाता है और उसके स्थान पर रिश्वतखोर अफसर नियुक्त कर दिया जाता है । अनिर्णयात्मक अंत वाली यह कहानी पाठकों के सामने अनेक प्रश्न उपस्थित कर देती है । ‘बिलाव‘ कहानी में दो छोटे- छोटे प्रसंगों के माध्यम से परिस्थितियों की शिकार नारी की विवशता का अंकन किया गया है । पति द्वारा अपनी ही 11 वर्षीय पुत्री मैना से बलात्कार करने से क्रोध में भरी सोनामाटी उसे पुलिस में दे देती है किंतु जब उसका मुंह बोला भाई ,उसकी बीमार पुत्री से बलात्कार करता है तो वह चुप हो जाती है ।घर के लोगों के ही बिलाव बन जाने की स्थिति में चुप रहना ही उसे एक मात्र विकल्प लगता है ।दूसरा प्रसंग फुलवा की दुर्दशा की कहानी कहता है ।पति के बाढ़ में बह कर मर जाने पर विधवा फुलवा अपने छोटे से बेटे के साथ शहर जाती है। एक आदमी उसे संरक्षण देने के नाम पर उसकी इज्जत लूटता है।कालांतर में एक का स्थान अनेक आदमियों के ले लेने पर वह वेश्या बन जाती है । मां की विवशता और दुर्दशा से अपरिचित उसका बेटा कॉलेज में सहयोगियों द्वारा वेश्या पुत्र कहकर उपहास उड़ाए जाने पर आत्मग्लानि और लज्जा के कारण रेल की पटरी पर कटकर जान दे देता है । कहानी सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करती है । ‘घुटन‘ कहानी में परिस्थितियों की शिकार मेहरू को हमदर्द तो नहीं मिलता पर दुनिया की शिकवे शिकायत और स्त्रियों की आलोचना उसे इतना तोड़ देती है कि वह इस निर्मम संसार को ही छोड़ जाती है । शिक्षा जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार स्वार्थी व्यक्तियों तथा पड़ोसियों के ऊपर उसकी मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वे उसके अंतिम संस्कार के प्रबंध से निर्लिप्त रहते हुए अपने कामों में लगे रहते हैं पर बाद में फोटो खिंचवाने के लिए लपकने लगते हैं ।कथानायक द्वारा नाटक के पास फाड़ने के साथ कहानी समाप्त हो जाती है । ‘दूसरा चेहरा‘ कहानी की नायिका नीलम और उसकी बेटी दोनों अवसरवादी लोगों की शिकार हैं ।उनका आपस में भी 36 का नाता है । वे एक दूसरे को अपमानित और प्रताड़ित करने में अपना समय नष्ट करती रहती हैं । मां स्वयं अपनी बेटी को कामुक पुरूषों के पास भेजती है–” तू काम सीखने गई है ,काम करने नहीं । वह कुछ सोच कर तुझे ढाई हजार देता है। इतनी अक्ल मुझ में भी है ।वह सुकट्टा क्या कर पाएगा , इसलिए डर मत। हाथ लगाने से कोई गंदा नहीं हो जाता।” वस्तुतः इनके माध्यम से लेखिका ने मां–बेटी के पवित्र संबंध को बदनाम करने वाली भ्रष्ट स्त्रियों का अंकन किया है । ‘फिर कभीकहानी अनाथ बच्चों के अभाव पूर्ण एवं श्रमसाध्य जीवन तथा भावी सपनों को साकार करने के लिए उनके लगातार जुटे रहने को व्यक्त करती है। इसके अतिरिक्त लेखिका ने यह भी बताया है कि समाज सुधारक ऐसे बच्चों को भी अपनी स्वार्थ सिद्ध का कारण बना लेते हैं। निष्ठुर, निर्दयी मीनाक्षी स्टेशन पर तो पुलिस के अत्याचारों से इन बच्चों को बचा लेती है पर स्वयं उनसे भीख तक मंगवाने से गुरेज नहीं करती । ‘गलियों के शहजादे ‘कहानी कूड़ा बीनने वाले लड़के और उसके मित्रों की कहानी है। कूड़ा बीनना उनकी आजीविका है , किंतु सौंदर्यीकरण की हवा चलने पर कूड़ा घरों को साफ कर उनके स्थान पर सुंदर कूड़ा दानो के रखे जाने से उनकी आजीविका छिन जाती है , जिससे उनकी रातों की नींद उड़ जाती है । लेखिका की यह कहानी व्यवस्था के मुंह पर मारा गया तमाचा है । ‘शर्त‘ और ‘मरियम‘ कहानियों का भाषाई तेवर ही उल्लेखनीय है अन्यथा ये कहानियां अत्यंत सामान्य कोटि की हैं । लू का झोंका; कल की तमन्ना; रुतबा ; खौफ ; गलत सवाल सही हल; नजरिया; जबरन ; आज का आदम ; निकास द्वार; पीछा ; उलझन ; अभ्यास ; तनहा ; पनाह आदि रचनाओं में जीवन के विविध अनुभव दर्ज़ है ।जीवन को जीने के क्रम में प्रेम , धोखा , खोखली जिंदगी , लाचारी और व्यवस्था से संघर्ष से होकर गुजरना पड़ता है किंतु लेखिका के पात्रों में ऐसी अविजित जिजीविषा एवं मनोबल है कि वह बेहतर जीवन के स्वप्न देखना बंद नहीं करते । औरत का मनोविज्ञान , औरत ही बेहतर ढंग से समझती है । नासिरा जी पात्रों के परिवेश से ही शब्दों का चयन कर उन्हें जीवंत बनाती हैं । उनकी हर रचना एक नवीन चमक दमक लिए होती है । समस्याएं और उन से जूझने वाला इंसान हमारा है पर उसे लहू देकर सींचने वाली लेखिका हैं। ।उनकी भाषा में अद्भुत प्रभाव है । ये रचनाएं समय के फलक पर उठ रहे आगत पीढ़ियों का मार्गदर्शन करने वाले शिलालेख हैं । लेखिका अपने चतुर्दिक समाज से ऐसे विषय चुनती हैं जो कटु यथार्थ से युक्त होने के कारण उपेक्षित नहीं किए जा सकते । सामान्य व्यक्तियों द्वारा अनदेखे प्रसंग को उनकी पैनी दृष्टि तुरंत पकड़ लेती है । उनका विचार मंथन कहानी का जन्म हो जाने के बाद ही शांत होता है । वे कहतीं हैं–” जब मुझे कुछ ऐसा दिखता है जिसको मैं स्वीकार नहीं कर पाती हूं उस समय बड़ी उलझन लगती है । दिल व दिमाग अनेक संवादों से घिर जाता है । अच्छे बुरे की तकरार शुरू हो जाती है और ऐसे मौके पर जब मैं कलम उठाती हूं तो खिड़की, मरियम , बुतखाना, सड़क के शहजादे आदि निकलती हैं । दो बेहद अहम कहानियां जो बदली औरत के मनोविज्ञान से संबंध रखती हैं । पहली ‘अपनी कोई ‘, दूसरी ‘गुमशुदा लड़की‘ ।मेरी सोच का वह अगला पड़ाव है जो जल्दी आने वाला है ।जो परिवेश में पलता रहता है , उसको सुनना और देखना बेहद जरुरी होता है ।” उनकी नारी पात्राएं– सपना , मीनाक्षी, राखी , शबाना, मुन्नी और साधना अपनी–अपनी तरह से आजादी का जीवन जीना चाहती हैं । नारी जीवन के अलावा शिक्षित समाज के अन्य पक्षों पर भी उन्होंने विचार किया है। स्त्री कथाकार या मुस्लिम कथाकार की संकीर्ण पहचान से मुक्त नासिरा जी ने ‘ एक दूसरा ताजमहल ‘ की कहानियों में एक संवेदनशील स्त्री की दृष्टि से समाज को देखने , समझने , पहचानने , उसके संघर्षों , तनावों , संशयों और त्रासदी को उद्घाटित किया है ।कारा में जीने और कारा को तोड़ने की दो अनुभूतियां उनकी कहानियों में एक साथ मिलती हैं जिनमें से उनकी पक्षधरता कारा तोडऩे वालों के साथ है । उनके सब पुरुष पात्र भी धूर्त और निर्दयी ना होकर हालत की मार खाए ,अत्यंत मासूम है । विपरीत परिस्थितियों में भी शांत रहते हैं । वे गड़े हुए या आरोपित ना होकर इसी पुरुष प्रधान समाज के अंग हैं जहां क्रूर, जलील पुरुषों का आधिक्य मिलता है। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं शैलेन्द्र चौहान का लेख – हिंदी की आलोचना परंपरा डॉ. अमित कुमार दीक्षित का लेख – स्वच्छंद सोशल मीडिया – खतरे, कारण व निदान वन्दना यादव का स्तंभ ‘मन के दस्तावेज़’ – अपने साथ इमानदार रहिये कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.