हिन्दी सिनेमा के निर्माताओं और निर्देशकों को यह समझना होगा कि किसी भी अच्छी फ़िल्म बनाने के लिये सबसे महत्वपूर्ण तत्व है एक अच्छी कहानी। उन्हें साहित्य जगत से रिश्ता बनाना चाहिये। ऐसी बहुत सी रचनाएं समय-समय प्रकाशित होती रहती हैं जो सिनेमा को नवीनता प्रदान कर सकती हैं। हिन्दी सिनेमा में सबसे कम महत्व लेखक को दिया जाता है। इस परम्परा को बदलना होगा। जो करोड़ों रुपये सितारों पर लुटाए जाते हैं उसे बन्द करना होगा। कोई भी सितारा किसी फ़िल्म की सफलता की गारंटी नहीं दे सकता। एक भी फ़िल्म स्टार ऐसा नहीं है जिसने फ़्लॉप फ़िल्में न दी हों। याद रहे कि बिना बड़े सितारों के भी अच्छी और बेहतर फ़िल्में बन सकती हैं। फ़िल्म का असली सितारा केवल अच्छी कहानी ही हो सकती है। 

कोविद-19 ने लगभग दो वर्षों तक ऐसा आतंक मचाया कि सिनेमा हॉल बंद हो गये और फ़िल्में केवल नेटफ़्लिक्स और अमेज़न प्राइम जैसे ओ.टी.टी. प्लैटफ़ार्म तक ही सीमित रह गईं। वर्ष 2022 में दर्शकों ने सोचा था कि अब अच्छी फ़िल्में सिनेमाघरों तक पहुंचेंगी और एक बार फिर सितारों की चमक-धमक से माहौल में जोश भर जाएगा।
यदि ध्यान दिया जाए तो जो फ़िल्म निर्माता 90 के दशक तक बेहतरीन मनोरंजक या शिक्षाप्रद फ़िल्में बना रहे थे, उनका बड़े पर्दे पर कहानी दिखाने का अंदाज़ जैसे चुक गया था। सुभाष घई, डेविड धवन, डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, आदित्य चोपड़ा, इंदर कुमार और करण जौहर जैसे फ़िल्म बनाने वाले निर्माता निर्देशक जैसे भूल गये हैं कि दर्शक सिनेमा में क्या देखना चाहता है। उनके सिर पर वही पुराना अंदाज़ चढ़ कर बोल रहा है। 
दो वर्षों में, जब सिनेमाघर बंद थे, दर्शकों ने ओ.टी.टी. प्लैटफ़ॉर्म पर कुछ बेहतरीन फ़िल्में या सीरियल देख लिये। जैसे अचानक दर्शकों के मुंह अच्छी फ़िल्मों का ख़ून लग गया हो। अब वे घटिया कहानी और बड़े सितारों की फ़िल्में देखने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे। इसलिये एक के बाद एक फ़िल्म मुंह के बल गिरती दिखाई दी।
मगर मज़ेदार बात यह भी है कि बे-सिर पैर की कहानी वाली दक्षिण की डब की गयी फ़िल्में ज़बरदस्त सफलता पाती चली गयीं। कुछ फ़िल्में तो ऐसी थीं जिन्हें मैं दस मिनट से अधिक देख नहीं पाया मगर बॉक्स ऑफ़िस की खिड़की पर सिक्कों की झनकार सुनाई देती रही। 
आम तौर पर यह परम्परा रही है कि वर्ष के अंत में सफल फ़िल्मों का लेखा-जोखा किया जाता है। मगर मुझे लगा कि यह ज़रूरी है कि इस बार मुंबई के हिन्दी सिनेमा की उन फ़िल्मों का ज़िक्र किया जाए जिनमें बड़े निर्माता, करोड़ों रुपये और बड़े सितारे जुटे थे मगर नतीजा ठन-ठन गोपाल निकला। 
अक्षय कुमार, आमिर ख़ान, अजय देवगण, ऋतिक रौशन, शाहिद कपूर जैसे दिग्गज सितारे भी अपनी फ़िल्मों को बचा नहीं पाए। क्योंकि आमतौर पर हिन्दी सिनेमा को पुरुष सितारे अपने कंधों पर चलाते हैं इसलिये अभी तक सभी नाम नायकों के लिखे हैं। मगर इनमें एक नाम नायिका का भी जोड़ना होगा – कंगना रनौत। वे भी अपनी फ़िल्म को डूबने से बचा नहीं सकीं। 
वैसे तो दि कश्मीर फ़ाइल्स, भूल-भुलैया-2, दृश्यम-2 जैसी कुछ फ़िल्में सुपर हिट रहीं। मगर हम उन दस-बारह फ़िल्मों का ज़िक्र करने जा रहे हैं जिनमें सब-कुछ था मगर कुछ भी नहीं था। क्या बिना अच्छी कहानी के कोई फ़िल्म दर्शकों का प्यार पा सकती है? वैसे तो कोई ऐसा फ़ॉरमूला नहीं है जो किसी भी फ़िल्म की सफलता की गारंटी दे सके। एक ही समय में ‘शोले’  भी हिट हो जाती है और ‘जय संतोषी माँ’ भी… ‘संगम’ भी हिट हो जाती है और ‘दोस्ती’ भी। 
जिन फ़िल्मों के बारे में मैं ज़िक्र करने जा रहा हूं, उनमें से कुछ तो पूरी तरह से बेकार हैं; कुछ में एक्टिंग बढ़िया है मगर कहानी लचर है; कुछ के बारे में सवाल पूछा जा सकता है कि आख़िर उन्हें बनाने की ज़रूरत क्या थी! यह भी सोचना पड़ेगा कि निर्देशक को यदि अपनी फ़िल्म में विश्वास न हो तो फ़िल्म कैसे स्तरीय बन सकती है।
अक्षय कुमार की एक फ़िल्म आई थी ‘सिंग इज़ दि किंग’। मगर अब लगता है कि वर्ष 2022 में उनकी फ़्लॉप फ़िल्मों की संख्या जैसे चिल्ला-चिल्ला कर घोषित कर रही हो कि अक्षय कुमार फ़्लॉप फ़िल्मों का किंग है। अक्षय कुमार की तमाम फ़िल्में इस वर्ष बॉक्स ऑफ़िस पर लुड़क गयीं।
वर्ष 2022 में अक्षय की चार फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर रिलीज़ हुईं और एक फ़िल्म ‘कटपुतली’ (कठपुतली को अंग्रेज़ी में ऐसे ही लिखा गया है – Cuttputlli)  ओ.टी.टी. प्लैटफ़ॉर्म पर रिलीज़ हुई। बड़े पर्दे पर रिलीज़ होने वाली चार फ़िल्मों को चार-चार कंधे भी नसीब नहीं हुए। बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षा बंधन, राम सेतु कब आईं और कब चली गयीं… कुछ पता ही नहीं चला। ‘रक्षा बंधन’ तो ‘लाल सिंह चड्ढा’  के मुकाबले में रिलीज़ हुई थी। मगर दोनों का बंटाधार हो गया। अभिषेक शर्मा निर्देशित फ़िल्म ‘राम सेतु’ भी समुद्र में डूब गयी… तैरने का मौक़ा ही नहीं मिला।  
बच्चन पांडेय और सम्राट पृथ्वीराज दो एकदम अलग किस्म की फ़िल्में थीं। मगर दोनों का नतीजा एक ही था – फ़्लॉप! साजिद नदियादवाला की बच्चन पांडे में अक्षय कुमार के साथ कृति सैनन, जैक्वलिन फ़र्नांडिस, अरशद वारसी और पंकज त्रिपाठी भी मौजूद थे। निर्देशक थे फ़रहाद सैमजी। न तो कहानी में कुछ नयापन, न निर्देशन में पैनापन। कलाकार भी बस अपने संवाद बोल कर चलते बने। फ़िल्म बनाने पर सौ करोड़ रुपये लगे थे जबकि कमाई केवल पचास करोड़ तक सीमित रही। ठीक इसी तरह सम्राट पृथ्वीराज में डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी के टच जैसी कोई बात दिखाई नहीं देती। अक्षय कुमार दूर-दूर तक पृथ्वीराज चौहान लगते ही नहीं। हां उसका कैरीकेचर अवश्य लगते हैं। आदित्य चोपड़ा ने भी फ़िल्म में कोई रुचि नहीं ली सब निर्देशक और अक्षय कुमार पर छोड़ दिया। संजय दत्त और सोनू सूद भी एवरेज रहे। मानुषी छिल्लर की पहली फ़िल्म डिज़ास्टर साबित हुई। 175 करोड़ में बनी फ़िल्म केवल 70 करोड़ ही कमा पाई।
अजय देवगण की भी दो फ़िल्में औंधे मुंह गिरीं। हालांकि वे बेहतर महसूस कर सकते हैं कि उनकी दृश्यम-2 ने दर्शकों और आलोचकों दोनों को ख़ासा प्रभावित किया। अजय देवगन, अमिताभ बच्चन, बोमन ईरानी और रकुल प्रीत सिंह की मौजूदगी के बावजूद फ़िल्म रनवे-34 की लैंडिंग बहुत रफ़ रही। मैं एअर इंडिया में 21 वर्ष काम कर चुका हूं। मेरा वास्ता हमेशा विमान के पायलट से होता रहता था। मगर इस फ़िल्म में सब कुछ इतना नकली लगा कि मुझे सिर छिपाने की इच्छा हो रही थी। वहीं पुराने चावल इंदर कुमार ने टी-सीरीज़ के साथ मिल कर एक फ़िल्म बनाई थैंक गॉड जिसमें अजय के साथ सिद्धार्थ मल्होत्रा, रकुल प्रीत सिंह और नोरा फ़तेही भी शामिल थे। चूं-चूं का मुरब्बा बना कर दर्शकों के सामने पेश कर दिया। अजय देवगण भला ऐसी लचर फ़िल्म को बचाते भी तो कैसे।
जैकी श्रॉफ़ के पुत्र टाइगर श्रॉफ़ की फ़िल्म हीरोपंती चल निकली थी। बॉलीवुड में एक परम्परा बन गयी है कि पहली फ़िल्म यदि सफल हो जाए तो उसका सीक्वल बनाया जाए। वही यहां भी किया गया है। टाइगर श्रॉफ़ के साथ नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, अमृता सिंह और तारा सुतारिया को लेकर निर्देशक अहमद ख़ान ने हीरोपंती-2 में पुरानी शराब नई बोतल में डाल के पेश कर डाली है। टाइगर श्रॉफ़ को समझना होगा कि केवल बॉडी बिल्डिंग करना और डाँस करना ही एक्टिंग नहीं है। उसे थोड़ी बहुत एक्टिंग भी सीखनी चाहिये और फ़िल्म बनाने वालों को सीखना चाहिये कि फ़िल्म दोबारा बनाना कोई अच्छी कला नहीं है।
टाइगर श्रॉफ़ के विपरीत आयुष्मान खुराना को गंभीर अभिनेता माना जाता है। मगर 2022 ने उसके साथ भी कोई रियायत नहीं बरती। उनकी दो फ़िल्में ‘डॉक्टर जी’ और ‘एन एक्शन हीरो’ बॉक्स ऑफ़िस पर पानी मांगतीं नज़र आईं। एन एक्शन हीरो के लिये तो उन्होंने हाथ में तमंचा भी उठाया मगर गोली चली ही नहीं… बस फुस्स हो कर रह गयी। 
ऋतिक रौशन भी विक्रम वेधा जैसी फ़िल्म को फ़्लॉप होने से बचा नहीं सके। उनका साथ सैफ़ अली ख़ान भी दे रहे थे मगर साउथ की फ़िल्म का री-मेक दर्शकों तक पहुंचने में असफल रहा। लगता है कि बॉलीवुड को री-मेक की बीमारी हो गयी है। यह रीमेक अंग्रेज़ी फिल्मों का हो सकता है, दक्षिण की फ़िल्मों का हो सकता है, हिन्दी फ़िल्मों का हो सकता है या फिर अपनी ही फ़िल्म का सीक्वल हो सकता है। दर्शक के हाथ कुछ नहीं आता।
आमिर ख़ान की फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा एक ऐसी फ़िल्म है जिसके साथ आमिर 14 साल तक जुड़े रहे। आमिर टॉम हैंक्स के फॉरेस्ट गम्प के चरित्र से बहुत प्रभावित हुए थे। और उनके यह महसूस होता था कि उनसे अच्छा यह किरदार और कोई नहीं निभा सकता। फ़ॉरेस्ट गम्प इसी नाम के 1986 के उपन्यास पर आधारित थी। यह उपन्यास एक तरह से अमरीकी सच्चाई पर आधारित था। यह बारीक़ बात आमिर नहीं समझ पाए कि इस चरित्र को भारतीय परिवेश में केवल नाम बदलने से नहीं जोड़ा जा सकता। दरअसल जब अमरीका विएटनाम में युद्ध कर रहा था, उसके पास सैनिकों की कमी हो रही थी। उस समय के अमरीकी डिफ़ेंस सेक्रेटेरी रॉबर्ट मैक्नामारा ने लगभग एक लाख कमज़ोर दिमाग़ वाले युवकों को बंदूकें थमा कर विएटनाम के युद्ध में भोंक दिया था। उन्हें ‘मैक्नामारा के मोरोन’ कह कर पुकारा जाता था। इस मूल बात को नज़रअंदाज़ करते हुए आमिर ख़ान ने लाल सिंह चड्ढा को भारतीय फ़ोरेस्ट गम्प बनाने का असफल प्रयास किया। यह शायद आमिर ख़ान की पहली फ़िल्म हैं जिसमें चरित्र कलाकारों का अभिनय नायक आमिर ख़ान और नायिका करीना कपूर से बेहतर था। फ़िल्म का एक भी गीत होंठों पर नहीं चढ़ता। 
रणवीर सिंह की इस वर्ष की दोनों फ़िल्में ‘जयेश भाई जोरदार’  और रोहित शेट्टी द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘सरकस’ डिज़ास्टर फ़िल्मों की श्रेणी में चुपके से खड़ी हो गयीं। रणवीर सिंह को समझना होगा कि हर फ़िल्म अलग होती है और हर चरित्र अलग होता है। बार-बार एक ही तरह की अदाकारी आपको सफल नहीं बना सकती। 2021 के सितम्बर में रिलीज़ हुई उनकी फ़िल्म ‘83’ के लिये उन्हें पुरस्कार तो मिल गया मगर फ़िल्म वो भी फिसड्डी ही साबित हुई थी। ऊपर तले तीन-तीन फ़्लॉप फ़िल्में देकर शायद रणवीर सिंह भी सोच रहे होंगे कि अब क्या होगा। 
सौ करोड़ से अधिक की बजट वाली रणबीर कपूर, संजय दत्त और वाणी कपूर स्टारर फिल्म शमशेरा को भी दर्शकों ने कुछ ख़ास पसंद नहीं किया। फिल्म कब आई और कब चली गई किसी को पता भी नहीं चला। 150 करोड़ रुपये की यह फिल्म सिर्फ 43 करोड़ रुपये ही कमा सकी।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गान्धी के बारे में कहा जाता था कि तमाम राजनीतिज्ञों में यदि कोई मर्द है तो इंदिरा गान्धी हैं। कुछ ऐसा ही कंगना रनौत के बार में कहा जाता है। इसलिये जब उनकी कोई फ़िल्म रिलीज़ होती है तो उम्मीद बंधती है कि लोग सिनेमाघर जा कर उन्हें देखेंगे। फिल्म धाकड़ में कंगना रनौत एक सीक्रेट एजेंट के रूप में नजर आती हैं और फिल्म में दमदार एक्शन करती नजर आईं हैं। दुख की बात यह है कि 85 करोड़ रुपये की यह फिल्म सिर्फ ढाई करोड़ रुपये ही कमा सकी।
हिन्दी सिनेमा के निर्माताओं और निर्देशकों को यह समझना होगा कि किसी भी अच्छी फ़िल्म बनाने के लिये सबसे महत्वपूर्ण तत्व है एक अच्छी कहानी। उन्हें साहित्य जगत से रिश्ता बनाना चाहिये। ऐसी बहुत सी रचनाएं समय-समय प्रकाशित होती रहती हैं जो सिनेमा को नवीनता प्रदान कर सकती हैं। हिन्दी सिनेमा में सबसे कम महत्व लेखक को दिया जाता है। इस परम्परा को बदलना होगा। जो करोड़ों रुपये सितारों पर लुटाए जाते हैं उसे बन्द करना होगा। कोई भी सितारा किसी फ़िल्म की सफलता की गारंटी नहीं दे सकता। एक भी फ़िल्म स्टार ऐसा नहीं है जिसने फ़्लॉप फ़िल्में न दी हों। याद रहे कि बिना बड़े सितारों के भी अच्छी और बेहतर फ़िल्में बन सकती हैं। फ़िल्म का असली सितारा केवल अच्छी कहानी ही हो सकती है। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

18 टिप्पणी

  1. A very interesting n exhaustive analysis of the flops n successes of Bollywood n South Indian films.
    Very well written in a lighthearted manner carrying a distinctive banter too.
    Delightful n informative.
    Regards
    Deepak Sharma

  2. तजेंद्र शर्मा जी नमस्कार
    आज की संपादकीय के माध्यम से फिल्म जगत की आंखों पर जो पर्दा पड़ा था उसको हटाने का प्रयत्न किया गया है।
    आपने बहुत अच्छा कहा कि इनको साहित्य के साथ जोड़ना होगा तभी अच्छी फिल्में बनकर सामने आ सकती हैं।
    ज्ञानवर्धक संपादकीय।

  3. धन्यवाद सर। बदलते दौर में नयेपन की मांग आज की प्राथमिकता है चाहे वो साहित्य हो या फ़िल्म। तेजेन्द्र शर्मा सर द्वारा किया गया बॉलीवुड के फिल्मों की समीक्षा उनकी बारीक और पारखी दृष्टिकोण को दर्शाता है। यहाँ पर कम शब्दों में गहरी बातें कही गयी है। बॉलीवुड को आगे बढ़ने के लिए साहित्य के नजदीक आना पड़ेगा। यह आज का यथार्थ है। बहुत बहुत बधाई सर

  4. ओ.टी.टी. प्लैटफ़ॉर्म पर रिलीज़ हुई। बड़े पर्दे पर रिलीज़ होने वाली चार फ़िल्मों को चार-चार कंधे भी नसीब नहीं हुए। बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षा बंधन, राम सेतु कब आईं और कब चली गयीं… कुछ पता ही नहीं चला। ‘रक्षा बंधन’ तो ‘लाल सिंह चड्ढा’ के मुकाबले में रिलीज़ हुई थी। मगर दोनों का बंटाधार हो गया। अभिषेक शर्मा निर्देशित फ़िल्म ‘राम सेतु’ भी समुद्र में डूब गयी… तैरने का मौक़ा ही नहीं मिला।

    Hahahahaha गजब धोया आज तो आपने सर

  5. आपने अपने संपादकीय में सही कहा है कि नायक नायिका नहीं वरन अच्छी कहानी का चयन ही सफलता का मूलमंत्र है। इसके साथ ही फ़िल्म लाल सिंह चड्डा के बारे में दी गई जानकारी रोचक है ।
    आपका हर संपादकीय गहरी जाँच पड़ताल के बाद लिखा जाता है जो पाठकों पढ़ने के लिए विवश कर देता है।बधाई आपको।

  6. फ़िल्मों से बहुत गहरा नाता तो नहीं है। लेकिन अच्छी फ़िल्म की तलाश रहती है और देखती भी हूँ। इस लिये ज़्यादा अनुभव नहीं है, पर बॉलीवुड में मौलिकता रही है कभी, ऐसा याद नहीं आता। कुछ धार्मिक और ऐतिहासिक फ़िल्मों को छोड़ कर (मजबूरी है कि इसे किसी और से छाप नहीं सकते)। राज कपूर, गुरुदत्त, हृषीकेश मुखर्जी और सत्यजित रे आदि ने कुछ भारतीय साहित्य पर आधारित मौलिक फ़िल्में बनायीं हैं। अन्यथा कमर्शियल सिनेमा की मौलिकता से ज्याद जान पहचान रही नहीं।
    भारत की ग़रीब जनता को सपने बेंच कर मुंबइया फ़िल्में चल रही थी। जनता के पास विश्व की अच्छी फ़िल्में देखने का साधन नहीं था। मनोरंजन के साधन भी सीमित थे, तो बॉलीवुड ने राज कर लिया, बहुत से औसत कलाकारों ने सुपरस्टारडम का आनंद ले लिया। अब जनता उतनी ग़रीब नहीं रही जो शराब की तरह सिनेमा भी ग़म भुलाने के लिए देखती थी और राजकुमार, शत्रुघ्न सिन्हा के भारी- भारी डायलॉग पर, हेलेन के डांस और मंहगी गाड़ियों की चेज़ पर पैसा वसूल महसूस करती थी।
    अब दर्शक कुछ अच्छी कहानी देखने जाता है, तो निराशा ही हाथ लगती है। शिक्ष स्तर बदला, भारत बदला, संचार साधन बदले पर बॉलीवुड नहीं बदला, तो ऐसा ही होना था। काफ़ी मज़ेदार ढंग से लिखे सम्पादकीय से जानकारी भी मिली मनोरंजन भी। कुल मिलाकर वर्तमान हिन्दी फ़िल्म से अधिक आनंद आया, बहुत-बहुत धन्यवाद सम्पादक जी, नए वर्ष की मनोरंजक शुरूआत करने के लिए।

  7. आदरणीय तेजेन्द्र जी ,
    एक और रोचक संपादकीय के लिए धन्यवाद और बधाइया। आपके संपादकीय के विषय इतने रोचक और विस्तृत होते हैं कि आप की पहली नजर की दाद देनी पड़ती है ।वर्ष का आरंभ एक अत्यंत रोचक विषय से करने के लिए आपको एक बार फिर बधाइयां ।
    इस संपादकीय से मुझे ऐसी कई फिल्मों के नाम मालूम हुए हैं जिन पर यदि नजर पड़े भी तो मैं उस पर अपने दो ढाई घंटे ना व्यर्थ करूं, इस सूचना के लिए ह्रदय से आभार

  8. फिल्में एक बहुत दिलचस्प माध्यम है, जिसके द्वारा कोई भी मुद्दा ज़मीन से फलक तक पहुंच जाता है। लेकिन आजकल फिल्मों का हाल क्रिकेट जैसा कर दिया कि एक दो खिलाड़ियों पर पूरा दारोमदार, जैसे ही वो निपटे की सारी टीम फुस्स !
    फ़िल्म भी आजकल एक ही शख्स पर टिकी रहती है, कोई भी पारस मणि नहीं । हर पीली चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती ।
    जैसा आपने बताया फिल्म के लिए कहानी एक अहम हिस्सा है लेकिन फिल्म बनाना एक टीम वर्क होता है । फिल्म कलाकारी बपौती नहीं है कि हीरो का बेटा हीरो या डायरेक्टर का बेटा डायरेक्टर बनेगा, अगर उसमें एक भी कड़ी कमज़ोर हुई तो पूरी फिल्म धराशाई हो जाती है। अगर फिल्म हिट हो जाए तो उसका सेहरा हमेशा डायरेक्टर या हीरो के सिर बांध दिया जाता है, जो एक गलत प्रथा सी बन गई है। और अगर फ्लॉप हुई तो पर्दे के पिछे रेहने वालों के सर पर ठीकरा फोड़ दिया जाता है। पिछले कई बरसों से फिल्म को हिट या फ्लॉप बताना भी एक धंधा बन गया, काले धन को सफ़ेद करना या। टैक्स की चोरी करना । इसमें डिस्ट्रीब्यूटर सर्किल और फिल्म रिपोर्टर मीडिया का बहुत बड़ा योगदान रहा। कोई राजनीतिक तूल या धार्मिक विवादास्पद बना कर हिट हाईजैक कर लेना। सच मायने में फ़िल्म हिट जय संतोषी मां या दोस्ती जैसी होती हैं। आजकल तो गोदी मीडिया या मेकर माफिया के रहमो करम से फिल्म हिट या फ्लॉप होती है।

  9. यह सही है कि बॉलीवुड की लुटिया लचर कहानियों के चलते डूब रही है. और तथ्य यह भी है कि यह अभी और गहरे डूबती जाएगी, इसके उबरने की कोई सूरत तबतक नहीं बनेगी जबतक यह जेहादी माफियाओं, अपना एजेण्डा चलाने वालों के चंगुल से बाहर नहीं निकलती. इन सब ने बॉलीवुड को ऐसे जकड़ रखा है कि कोई भी अच्छा लेखक हो या कलाकार अगर वह इनके खाँचे में फिट नहीं तो वहां वह टिक नहीं सकता. वह बेरोजगार कर दिया जाएगा यदि फिर भी संघर्ष करता रहा तो मार दिया जाएगा. जब एजेंडा चलाने के लिए नकली कहानियां लिखी जाएंगी तो वह कभी भी दर्शकों को अपने साथ जोड़ नहीं पाएंगी. जो स्थिति वहां की है उसे देखते हुए ऐसी कोई संभावना निकट भविष्य में दिखती नहीं जिससे यह आशा की जा सके कि स्थितियां बदलेंगी. जिहादी माफियाओं, एजेंडा गैंग ने इतनी मजबूती से पैर जमा रखे हैं कि उन्हें अपने अजेय होने का भ्रम पैदा हो गया है. लेकिन यदि दर्शकों ने उनकी तरफ से कहीं ज्यादा मुंह मोड़ लिया तू यह भ्रम टूटेगा. उनके चंगुल से बॉलीवुड बाहर निकलेगा और उसकी डूबी हुई लुटिया बाहर आ जाएगी.2023 में दर्शक ऐसा कुछ करेंगे इसकी हमें आशा करनी चाहिए. आपने बॉलीवुड की वास्तविक स्थिति का सच सामने रखा इसके लिए आपको धन्यवाद.

  10. बहुत पैनी नज़र है आपकी, फिल्मी दुनिया और उनके सितारे गर्दिश में हैं। सच कहा आपने न कहानी न एक्टिंग… उसपर भी एक ही मनमाने ढर्रे पर चलते रहना।
    रवैया नहीं बदला यदि…
    जल्द ही हर रवायत बदल जाएगी,
    रंग ढंग बदलिए साहिब…
    अन्यथा ये रियासत ए सरहद बदल जायेंगी।

  11. बहुत सही कहा आपने तेजेन्द्र जी। फिल्म व साहित्य का जुड़ाव संभवतः कुछ बेहतर काम कर सकें।
    इनको अलग करके नहीं देखना चाहिए। मिलकर बेहतर प्रदर्शन किया जा सकता है।
    सही व सटीक विश्लेषण के लिए आपको साधुवाद।

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