Saturday, July 27, 2024
होमअपनी बातसंपादकीय - शरीर को पेड़ बनना होगा

संपादकीय – शरीर को पेड़ बनना होगा

हर आदमी अमरत्व की आकांक्षा करता है। मगर सब जानते हैं कि दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं है। जन्म और मरण का चक्र तो चलता ही रहना है। तो क्यों न हम मरने के बाद पेड़ के रूप में जीवित रहें। हम पहले से तय कर सकते हैं कि मरने के बाद कौन से पेड़ के रूप में जीवित रहना चाहेंगे। हमारे बच्चे और वंशज उस पेड़ के रूप में हमें याद कर सकते हैं और वो पेड़ ही हमारी पहचान बन जाएगा। फिर वो दिन भी आएगा जब कवि इन पेड़ों पर कविताएं लिखेंगे और कहानीकारों को मिलेंगी कहानियां।

मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो पैदा होने के बाद से प्रकृति का विनाश करना शुरू करता है तो मरने के बाद भी रुकता नहीं है। उसे दफ़नाने या जलाने में भी प्रकृति का नुक़्सान होता ही है। हम अपने आप को कितना भी आधुनिक क्यों न प्रदर्शित करें, अंतिम संस्कार के मामले में तमाम मज़हबी रिवाज पूरे किये जाते हैं। 
अंतिम संस्कार एक ऐसा प्रतिष्ठान होता है, जिसमें इंसान आख़िरी बार प्रकृति से कुछ लेता है। दफ़न होने के लिए दो गज़ ज़मीन, लकड़ी का ताबूत, कफ़न के लिए कपड़ा या जलाने के लिए लकड़ी या कोई दूसरा ईंधन। लोग अपने धर्म या इलाक़े की परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार करते हैं। सच तो यह है कि ब्रिटेन जैसे देशों में महसूस किया जाने लगा है कि लाशें दफ़नाने के लिये ज़मीन कम पड़ने वाली है। 
अमरीका की समस्या तो और भी विकट है। यहां किसी ताबूत को दफ़न करने से पहले कंक्रीट की क़ब्र बनाई जाती है। अमरीका में लोगों को दफ़नाने में हर साल 16 लाख टन कंक्रीट और 14 हज़ार टन स्टील का इस्तेमाल होता है। ज़ाहिर है कि यह पर्यावरण के लिये काफ़ी नुक्सानदेह है। 
पारसी समुदाय में लाश को ‘टावर ऑफ़ साइलेंस’ में खुला छोड़ दिया जाता है ताकि उसे गिद्ध या अन्य जानवर खा कर अपनी भूख मिटा सकें।
मीडिया में प्रकाशित समाचारों के अनुसार तिब्बत में बौद्ध धर्म के लोगों के अंतिम संस्कार की बात करें तो आकाश में अंतिम संस्कार किया जाता है। अंतिम संस्कार की प्रक्रिया या रीति-रिवाज के इस क्रम में शव को किसी पहाड़ की चोटी पर ले जाया जाता है… वहां अंतिम संस्कार के लिए पहले से ही जगह मौजूद होती है। अंतिम संस्कार स्थल पर वहां पहले से ही कुछ लामा या बौद्ध भिक्षु मौजूद रहते हैं। वे सबसे पहले तो शव की विधि-विधान से पूजा करते हैं… उसके बाद वहां मौजूद रोग्यापस (विशेष कर्मचारी) शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है। उसके बाद दूसरा कर्मचारी उन टुकड़ों को जौ के आटे के घोल में डुबोता है, जिन्हें बाद में गिद्ध और चीलों के हवाले कर दिया जाता है। उसके बाद बची हुई अस्थियों (हड्डियों) को फिर से चूरा बनाकर जौ के आटे के घोल में डुबोकर चील-कौवों के हवाले कर दिया जाता है… यह परंपरा बहुत पुरानी है।
ब्रिटेन के अंग्रेज़ी समाचार पत्र डेली मेल के एक समाचार के अनुसार इस परंपरा के पीछे कुछ विशेष कारण हैं। सबसे पहला… तिब्बत बेहद ऊंचाई पर है। यहां पेड़ आसानी से नहीं पाए जाते हैं। शायद इसी लिये शव जलाने के लिए लकड़ियों को जुटा पाना बेहद मुश्किल कार्य है। दूसरे यहां की जमीन पथरीली है… शव दफनाने के लिए कब्र (गढ्ढा) खोद पाना भी टेढ़ा काम है और इन सब के अलावा बौद्ध धर्म की मान्यता है कि मृत शरीर खाली बर्तन सा है… उसे सजाकर रखने की आवश्यकता नहीं है। दफनाने से भी लाश को कीड़े-मकोड़े ही खाते हैं… बेहतर है कि शव को पक्षियों के हवाले करके उनका निवाला बनवा दिया जाए। इसे बौद्ध धर्म में “आत्म बलिदान” भी कहा जाता है। 

दुनिया भर में रोज़ाना क़रीब डेढ़ लाख लोग मरते हैं. इन्हें दफ़नाने, या जलाने या किसी और तरीक़े से अंतिम संस्कार की ज़रूरत होती है। 2021 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया की आबादी क़रीब 7.88 अरब है। ज़ाहिर है कि अब वो बढ़ कर आठ अरब के करीब तो हो चुकी होगी। इक्कीसवीं सदी के अंत तक इंसानों की आबादी 11 अरब होने की उम्मीद है। यानी लोगों के मरने की तादाद भी बढ़ेगी और उनके अंतिम संस्कार की ज़रूरत भी। 
अंतिम संस्कार विश्व के पर्यावरण पर भारी बोझ बनते जा रहे हैं। नीदरलैंड की रिसर्चर एलिज़ाबेथ कीज़र ने इस बारे में दो शोध किए हैं। इनकी रिपोर्ट वर्ष 2011 और 2014 में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने दफ़न करने और जलाकर अंतिम संस्कार से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को 18 पैमानों पर कसकर देखा।
एलिज़ाबेथ के अनुसार दफ़न करने से पर्यावरण को ज़्यादा और गहरा नुक़सान होता है। उनका कहना है कि अपने जीवनकाल में एक इंसान औसतन क़ुदरत पर जितना बोझ डालता है, अंतिम संस्कार तो उसका महज़ हज़ारवां हिस्सा है। लेकिन अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया क़ुदरत पर बहुत भारी पड़ती है। प्रत्यक्ष कारणों के अतिरिक्त लोग फूल तोड़कर ले जाते हैं… सफर करते हैं, जिसमें ईंधन जलता है और पर्यावरण को नुक़सान होता है।
पुराना ज़माना धर्म और मज़हब का था तो आज का विश्व विज्ञान से चलता है। विज्ञान हमारे जीने के लिये साइकिल, स्कूटर, कार, विमान, एअरकंडीशनर, रेफ़रिजिरेटर, कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन बनाता है तो भला हमारी मृत्यु के प्रति उदासीन कैसे रह सकता है। इसलिये अब विज्ञान हमें अंतिम संस्कार में भी बदलाव लाने के लिये प्रेरित कर रहा है। विज्ञान हमारे दिमाग़ में एक सवाल भी खड़ा कर रहा है कि क्या हम अपनी अंतिम यात्रा के समय प्रकृति के साथ होने वाले खिलवाड़ को रोक सकते हैं।
अमरीका और ब्रिटेन में इन दिनों एक ‘ईको-फ़्रेण्डली या ‘ग्रीन फ़्यूनरल’ चर्चा में है। करीब सात वर्ष पहले एक ऐसी मशीन का आविष्कार किया गया जिसकी सहायता से अंतिम संस्कार की पूरी सोच में ही परिवर्तन आ जाएगा। ज़ाहिर है कि धर्मगुरू, मौलवी, पादरी, पंडे इस नई सोच का खुल कर विरोध करेंगे और यह डर दिखाया जाएगा कि यदि पारंपरिक तरीकों से अंतिम संस्कार नहीं किया गया तो आत्मा भटकती रहेगी या फिर जहन्नम की आग में जलेगी। 
एक ऐसी मशीन का आविष्कार किया गया है, जो देखने में किसी बैंक के लॉकर जैसी दिखती है। इसमें रखकर शव को पानी और केमिकल की मदद से गलाया जाता है। इस प्रक्रिया को ‘अल्कलाइन हाइड्रोलिसिस’ कहते हैं। अंतिम संस्कार की इस प्रक्रिया के बाद सिर्फ़ हड्डियां बच जाती हैं। जैसन ब्रैडशॉ नामक व्यक्ति ने एक ग्रीन फ़्यूनरल होम भी खोला है जिससे कि आम आदमी को नये किस्म का अंतिम संस्कार उपलब्ध करवाया जा सके जिससे कि पर्यावरण पर बोझ पड़ना इतना कम हो जाए कि प्रकृति के साथ अंतिम संस्कार वाला प्रदूषण समाप्त किया जा सके। 
शवों को गलाने वाली इस मशीन को ब्रिटेन की कंपनी रेज़ोमेशन लिमिटेड ने बनाया है। रेज़ोमेशन कंपनी की स्थापना सैंडी सुलिवन ने की थी। अमरीका ने अंतिम संस्कार के इस तरीक़े को देर से अपनाया. मगर आज वहां भी जलाकर अंतिम संस्कार ज़्यादा होता है। लोग अपने क़रीबियों को दफ़न करने का विकल्प कम चुनते हैं।
सैंडी कहते हैं आज अल्कलाइन हाइड्रोलिसिसयानी शवों को गलाकर अंतिम संस्कार को लेकर यही हालात हैं. सैंडी चाहते हैं कि सरकार इस बारे में क़ानून बना दे. ताकि वो क़ानून के दायरे में रहकर कारोबार कर सकें। कहा जाता है कि अंतिम संस्कार का यह तरीका पारंपरिका तरीकों के मुकाबले 35 प्रतिशत सस्ता भी है। 
आपको जानकर हैरानी होगी कि इन्सान के शव को एक पेड़ के रूप में जीवित रख पाना भी संभव है। इटली की  केप्स्यूला मुंडी नामक कंपनी ने मृत व्यक्तियों के शरीर को एक ख़ास तरह के पॉड में डाल कर उसे पेड़ों में बदलने की योजना लोगों के सामने रखी है।
इस ख़ास पॉड को ऑर्गैनिक बरीयल पॉड कहा जा रहा है। यह एक अंडाकार कैप्सूल है जो कार्बोनिक है। इसी में मृत शरीर को ठीक उसी तरह रखा जाएगा जैसे किसी महिला के गर्भ में भ्रूण।  
केप्स्यूला मुंडी लैटिन भाषा का शब्द है जिसका मतलब है शरीर का प्रकृति के तीन तत्वों में बंट जाना। ये तीन तत्व हैं खनिज, वनस्पति और जीव। इटली के एन्ना सिटेली और राउल ब्रेजेल नाम के दो डिजाइनर्स ने केप्स्यूला मुंडी नाम से प्रोजेक्ट बनाया है। 
कैप्सुला मुंडी का यह ऑर्गैनिक बरीयल कैप्सूल स्टार्च प्लास्टिक से बना है जो ज़मीन में शत-प्रतिशत गल जाएगा। इस पॉड के गलने के साथ ही मृत शरीर भी गल जाएगा। इस तरह शरीर पूरी तरह से ज़मीन में मिल जाएगा। ऑर्गेनिक ताबूत आपको मरने के बाद पेड़ में तब्दील कर देंगे. जैसे मरने के बाद शरीरको ताबूत यानि कॉफिन में रखकर दफनाया जाता है, वैसे ही आर्गेनिक ताबूत में मृत शरीर को रखकर उसमें पेड़ उगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। शरीर के गलने से जो तत्व निकलेंगे, वे पौधे को बढ़ने में सहायता करेंगे। अंदाज़ा लगाइये एक नये किस्म का क़ब्रिस्तान जिसमें क़ब्रों के स्थान पर पेड़ ही पेड़ दिखाई दें। बच्चे जाकर उन पेड़ों से लिपट कर ऐसा महसूस करें जैसे अपने माता-पिता या दादा-दादी, नाना-नानी से लिपट रहे हैं। 
हर आदमी अमरत्व की आकांक्षा करता है। मगर सब जानते हैं कि दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं है। जन्म और मरण का चक्र तो चलता ही रहना है। तो क्यों न हम मरने के बाद पेड़ के रूप में जीवित रहें। हम पहले से तय कर सकते हैं कि मरने के बाद कौन से पेड़ के रूप में जीवित रहना चाहेंगे। हमारे बच्चे और वंशज उस पेड़ के रूप में हमें याद कर सकते हैं और वो पेड़ ही हमारी पहचान बन जाएगा। फिर वो दिन भी आएगा जब कवि इन पेड़ों पर कविताएं लिखेंगे और कहानीकारों को मिलेंगी कहानियां।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
RELATED ARTICLES

73 टिप्पणी

  1. मरने के बाद इंसान की कद्र ज्यादा बढ़ जाती है इसलिए अंतिम क्रिया और महंगी पड़ती है । हर बार की तरह बहुत ही अच्छा और अलग विषय चुना आपने संपादकीय का ।

    • अर्चना आप पुरवाई का प्रत्येक संपादकीय पढ़ती हैं। हमारे लिये यह महत्वपूर्ण है। आभार।

  2. नमस्कार
    सम्पादकीय पढ़कर मृत्यु की हक़ीक़त से सामना हो गया । अंतिम संस्कार के तौर तरीकों पर विषद और वैज्ञानिक व्याख्या की है ।
    हे प्रभु जीते जी आत्मा को कष्ट और बाद मरने के शरीर की दुर्गति ।ॐ शांति ॐ । अगले जनम मोहे पेड़ ही कीजो
    Dr Prabha mishra

    • प्रभा जी भारत की अर्धरात्रि को संपादकीय पर पहली टिप्पणी आप ही की तरफ़ से आई… यदि हम सब अपने मृत शरीर को पेड़ में परिवर्तित करने का प्रण ले लें तो प्रकृति की जितनी दुर्गति हमने अपने जीवन में की है उसकी कुछ भरपाई तो हो पाएगी।

  3. आपके संपादकीय में सदैव एक महत्वपूर्ण संदेश व शिक्षा होती है। कदाचित हिंदु धर्म की परम्परा के अनुसार मृत्यु पश्चात् पंचतत्व में लीन हो जाना ही परम सत्य है… शव को जलाया जाना एवं प्रकृतिक तत्व में मिलाया जाना ही अधिक युक्तियुक्त है… तार्किक भी है। परंतु शव को पेड़ में परिवर्तन कराना एक अत्यंत प्रभावशाली एवं यथार्थ प्रक्रिया है। नूतन धारणा एवं चिंतन को जन्म देता यह आलेख पूर्णतः आपके विचार को व्यक्त किया है। ज्ञानवर्धक विषय… सर

    • अनिमा इतनी रात आपने संपादकीय पढ़ा और उस पर इतनी सारगर्भित टिप्पणी की… हार्दिक आभार।

  4. मृत्यु सर्वदा एक कौतूहल का विषय है। मृतदेह का सत्कार पारंपरिक रूप से हो ये उसके परिजनों की इच्छा होती है। समस्त पद्धति में हिंदू दाह संस्कार को सर्वाधिक श्रेष्ठ माना जाता है। अब तो पारसी समुदाय के लोग भी टावर ऑफ़ साइलेंस की तुलना में दहन प्रक्रिया को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिसका एक मुख्य कारण है गिद्धों का महानगरों या बड़े शहरों से लुप्तप्राय होना। पहले धनी लोग समाधि बनाते थे लेकिन पेड़ बनना मृतक और परिजनों, दोनों के लिए आत्मतृप्ति का विषय होगा।

    • रिंकू आपकी सार्थक एवं सकारात्मक टिप्पणी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। हार्दिक आभार।

  5. इतना सारगर्भित, सामयिक, सार्थक चिंतन।
    पर्यावरण की चिंता आज बहुआयामी होनी चाहिए, निराकरण की कोशिशें भी।
    आपने विस्तारपूर्वक जानकारी दी है।
    अमरीका के कब्रों से पूरी जमीन ही खराब हो जाएगी। गनीमत है, समय रहते, वे चेत गए या चेत रहे हैं।
    इस बार के ज्वलंत विषय पर सभी को विचार करने की जरूरत है। अन्यथा पृथ्वी किसी के रहने लायक नहीं बचेगी, पंडितों, मुल्लाओं,पादरियों के लिए भी।
    बस, एक शंका उठी थी – केमिकल की अधिकता जमीन के लिए हानिकारक न हो।
    उसका भी निराकरण – पेड़ उगेंगे… स्वाभाविक है, खराब होने पर नहीं उग सकते।
    विस्तृत जानकारी के लिए साधुवाद!

    • अनिता एक ज़िम्मेदार पत्रिका का उत्तरदायित्व है कि वह समाज को कुछ नया सोचने के लिये प्रेरित करे। हमारा यही प्रयास भी रहता है। टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।

  6. वाह कहें या आह परंतु बेहद संवेदनशील और अनूठा विषय है ,इस संपादकीय आलेख का।
    पुरवाई के पाठक इस तरह के संपादकीय अंक दर अंक भाग्यशाली हैं।पुरवाई संपादक मंडल का आभार।
    सांकृतिक वैज्ञानिक और जनहित परिपेक्ष्य में यह संपादकीय बेहद उपयोगी और राजनैतिक नेतृत्व को सोचने समझने और नीति बनाने पर उनका ध्यान खींचने में सफल है।
    हमारे भारत वर्ष में महर्षि दधीचि का देहदान तो एक सजीव और प्रेरणात्मक दृष्टांत और समाधान दोनों ही है। जनसंख्या बहुल और गरीब देशों को तो इसे समझ कर सही और समय के अनुसार कदम उठाने ही होंगें,क्योंकि अब व्यक्तिवाद का ज़माना है।
    सादर

    • भाई सूर्य कांत जी आपकी टिप्पणी पढ़ कर पुरवाई का संपादक मंडल संतोष अनुभव कर रहा है। इस वैज्ञानिक युग में विज्ञान यदि हमारे जीवन में काम आ रही है तो कम से कम मरने के बाद भी तो इसका योगदान होना चाहिये।

  7. Your Editorial of today takes me to a statement of Thomas Mann :
    “A man’s dying is more an affair of his survivors than his own”.
    You have mentioned various ways,means n rituals that the survivors perform on the death of a person. Great information indeed.
    Also thought- provoking
    Warm regards
    Deepak Sharma

  8. आपका सम्पादकIय पढ़कर उस राजा की कहानी याद आई जिस ने अपनी प्रजा को हुकम दिया कि रात के समय हर व्यक्ति महल के बाहर तालाब में एक कटोरा दूध का डालेगा। सुबह उठकर राजा ने देखा कि सारा तालाब तो पानी से भरा हुआ था। हुआ यह कि प्रजा के हर व्यक्ति ने सोचा कि बाकी के सब लोग तो दूध डाल रहे होँगे तो मेरे एक लोटे पानी से क्या फ़र्क पड़ेगा। यही सोच शब के जलाने या दफ़नाने वालों की होती है। उनका मानना है कि उनके मज़हबी रिवाज सब से अच्छे हैं और उन से पर्यावरण तो कोई नुक्सान नहीं होग। वो भूल रहे हैं कि बूंद बूंद करके तालाब भर जाता है। यदि सब धर्मों की यही सोच रही तो फिर जो समस्या सामने खड़ी है उसका तो कोई इलाज ढूञ्डने की बजाये उसको तो और अधिक बढ़ावा मिल गया।
    समय आगया है कि इस विषय पर अपने आने वाली नसल का तो कुछ ख़्याल रखना होगा। सब की अपनी अपनी सोच है लेकिन हालात को देखते हुये organic burial को अपनाना ठीक लगता है। आपने सही लिखा है कि अपने बुज़ुर्गों को पेड़ों की शकल में देख कर कवि कविता लिखेंगे और कहानीकार कहानियाँ लिखेंगे।
    जितेन्द्र भाई, इस जानकारी के लिये बहुत बहुत साधुवाद।

    • विजय भाई आधुनिक विज्ञान क्योंकि पश्चिमी देशों की देन है, इसीलिये शायद शव को पेड़ों में बदलने का आइडिया भी इटली से ही आया है। टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार। मुझे बहुत ख़ुशी होती है कि आप हर सप्ताह पुरवाई के संपादकीय की प्रतीक्षा करते हैं।

  9. “विद्युत शवदाह गृह” भी एक विकल्प के रुप में इस्तेमाल हो हो रहे हैं भारत में। बनारस में गंगा किनारे मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट मैने पर विद्युत शवदाह गृह देखे हैं।
    सच्चाई तो यही है शरीर की मृत्यु होने के बाद वह एक खाली खोल या बर्तन रह जाता है। यह तो मृत्यु की सार्वभौमिक सच्चाई है कि जीव यानी आत्मा उसे छोड़कर निकल जाती है।तभी तो वह मृत होता है। उसके बाद उसे जलाने से पंचतत्व अपने अपने स्रोतों में विलीन हो जाते हैं। और हड्डियाँ राख बनकर जमीन में मिल जाती हैं। निस्संदेह इससे प्रकृति के तत्व नाइट्रोजन फास्फोरस आदि मिट्टी और वायुमंडल में मिल जाते हैं।
    किन्तु धातु के ताबूत में भरकर दफनाने से अधिक अच्छी विधियाँ सीधे जमीन में उसे अपघटकों के हवाले कर देना ,या पक्षियों का आहार बना देना या जला कर उसे भस्म‌कर देना इत्यादि हैं। जलाने‌ में लकड़ियों की खपत और पेड़ों के विनाश के कारण विद्युत शवदाह गृहों का भी आविष्कार हुआ है। प्राचीन काल में गृहस्थ लोग वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण करने के बाद मरने के समय जंगलो मे जाकर जंगली जीवों का आहार बनना पसंद करते थे। गरुड़ पुराण आदि में इसका जिक्र मिलता है कि जीवन भर दूसरों को लूटने और कष्ट देने जैसे पाप कर्म करने वालों के मृत शरीर को जंगली पशु सियार बाघ आदि और पक्षी चील कौवे गिद्ध आदि भी नही छूते। यह दुष्कर्म से भय के द्वारा विरत करने की एक कोशिश थी। किन्तु जंगली पशुओ का आहार बनना एक विकल्प के रुप में था।
    किन्तु आ प के संपादकीय में अन्तिम विकल्प के रुप में पेड़ बन जाना सबसे बेहतरीन उपाय के रुप में प्रतीत हो रहा है। क्योंकि इस बहाने वृक्ष लगाने का एक अतिआवश्यक कार्य भी हो जायेगा। यह पर्यावरण को दोहरा लाभ देने वाली विधि है।

    • भाई आपकी गंभीर और सारगर्भित टिप्पणी के लिये आपका हार्दिक आभार। हमारा प्रयास होना चाहिये कि इस सोच को समाज में अधिक से अधिक फैलाने का प्रयास करें।

  10. शरीर पेड़ बन जाए तो मनुष्य अमर हो जाए। लेख के माध्यम से अमेरिका और भारत मे मरणोपरांत की स्थिति को बहुत अच्छी तरह बताया है।

  11. आपने बहुत अच्छा विषय लिया तेजेंद्रजी।
    विस्तृत जानकारी।
    सच तो यह है कि विकल्पों की उपलब्धता होने पर ही हम अपनी मृत्य संबंधित वसीयत लिख सकते हैं। मेरा सोचना है कि क्या मेरी मृत्यु तक आर्गेनिक ताबूत का कॉन्सेप्ट भारत में प्रचलित होगा?
    फिलहाल तो मुझे इलेक्टिक क्रीमेशन का विकल्प ही सूझता है। वह भी सब जगह उपलब्ध नहीं है।

    • प्रगति जी, एक लेखक के तौर पर हमारा दायित्व है कि हम समाज में ऐसे विचारों का प्रचार-प्रसार करें। आपकी टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।

  12. आदरणीय
    जन्म मरण को कोई रोक नहीं सकते। परंतु वह मरण इतिहास बन जाय तो क्या कहना। आपका संपादकीय आलेख इस दृष्टिकोण से यथार्थ का पोल खोल दिया है। नई जानकारियां प्राप्त हुई है। कल्पना करने लगी यह पढ़कर कि मरणोपरांत हमारे रिश्तों के बीच पेड़ बनकर रह सकते हैं। इस आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद

  13. आपका संपादकीय “मृत्योर्मा अमृतं गम्य” इस सनातन विचारधारा को वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए व्यवहार में उतारने का संकेत है। साधुवाद ! परंतु सनातन धर्म की अग्नि संस्कार परंपरा बहुत सी वैज्ञानिकता एवं भावनात्मकता को समेटे है।
    उत्कृष्ट लेखन शैली हेतु साधुवाद ।

    • सुषमा जी मेरा प्रयास रहा कि मैं हर प्रकार की अंत्येष्ठि से जुड़े हर उस पहलू के बारे में जान लूं जो कि प्रकृति को नुक्सान पहुंचाते हैं। उसके तहत मैंने सनातन धर्म के अग्नि संस्कार का भी अध्ययन किया। सनातन की सोच उस समय क्रांतिकारी रही होगी। आज की सोच पेड़ और प्रकृति से जुड़ी है।

  14. बहुत बहुत महत्वपूर्ण विषय है तेजेन्द्र जी। जीवन की वास्तविकता से रूबरू करवाता। कई वर्ष पूर्व मैंने देह दान के बारे में बच्चों से बात कर ली थी। यह महत्वपूर्ण लेख पढ़कर एक तो नई बातों से रूबरू हुई, तुरत ही यह विचार भी आया कि जब डिसेक्शन के बाद जो बचेगा उसकी उपयोगिता क्या होगी?
    अत्यंत साधुवाद तेजेन्द्र जी

  15. विभिन्न समाज की अंतिम यात्रा की विभिन्न पदयतियों का उल्लेख करते हुए एक नवीन अवधारना…
    ऑर्गैनिक बरीयल कैप्सूल के द्वारा शरीर का पेड़ के रुप में बदल जाना बहुत ही अच्छा विचार है। इससे पर्यावरण का भी नुकसान नहीं होगा और मृत व्यक्ति भी उस पेड़ के रुप में सदा व्यक्ति के साथ रहेगा।

    आपका हर आलेख, विश्लेषणात्मक एवं मन -मस्तिष्क को खोलने वाला होता है।

    जानकारी से भरपूर आलेख के लिए आभार आपका।

    • सुधा जी आपको पुरवाई के संपादकीय पसंद आते हैं, इसके लिये आपका हार्दिक आभार। हमारा प्रयास रहता है कि हर बार कुछ नया कहा जाए।

  16. आपने बहुत अच्छा विषय लिया तेजेंद्रजी।
    विस्तृत जानकारी।
    सच तो यह है कि विकल्पों की उपलब्धता होने पर ही हम अपनी मृत्य संबंधित वसीयत लिख सकते हैं। मेरा सोचना है कि क्या मेरी मृत्यु तक आर्गेनिक ताबूत का कॉन्सेप्ट भारत में प्रचलित होगा?
    फिलहाल तो मुझे इलेक्टिक क्रीमेशन का विकल्प ही सूझता है। वह भी सब जगह उपलब्ध नहीं है।

  17. कवि, कहानीकार जब लिखेंगे तब लिखेंगे लेकिन आप संपादकीय लिख चुके हैं, बधाई और नयी जानकारी के लिये आभार। अच्छा लगता है कि जब आप इच्छा मृत्यु या अन्त्येष्टि के बारे में लिखते हैं। क्योंकि समाज में इस परम सत्य पर सबसे कम बात होती है इसे एक टैबू बना दिया गया है।
    शरीर को पंचतत्वों में विलीन होना ही है, उसे प्राकृति को नुक्सान पहुँचा कर करें या फ़ायदा करके।
    मृत या मृतप्राय शरीर का एक और उपयोग है, जिससे कुछ हिस्सा अधिक देर में क्रिमेट करना पड़ेगा।वो है अंग दान और दधीचि दान।
    यदि व्यक्ति अपने जीवन काल में अपने अंग दान की प्रतिज्ञा कर ले और उसके आश्रित उसके शरीर को चिकित्सीय कामों के लिए दधीचि दान कर दें, तो धरती, जीवित मनुष्यों और मेडिकल रिसर्च आदि का भला हो सकेगा।
    एक विचार ये भी आता कि लोग सिकोइयाडेंड्रोन,हुओन देवदार, ब्रिसलकोन पाइन,पंडो और वट वृक्ष बनने का अगर चुनाव कर लेंगे तो फिर धरती पर पेड़ लगाने की जगह भी नहीं बचेगी। कुछ वर्ष ही जीवित रहने वाला पेड़ बनना होगा।
    विद्युत शवदाह अच्छा विकल्प है लेकिन पेड़ बनने का विकल्प सबसे अच्छा है लगा, इसका स्वागत होना चाहिए।

  18. बहुत ही सार्थक जानकारी दी है सर आपने।
    मृत्यु जीवन का सत्य है ये जानते हुए भी मृत्यु का भय हर व्यक्ति के दिल में होता है उस विषय पर इतना विस्तार से लिखना बड़ी बात है। अंतेष्टि की जो पुरानी पद्धतियां चली आ रही हैं उससे पर्यावरण को हानि पहुंचती है ये सही है।
    ऑर्गैनिक बरीयल कैप्सूल के द्वारा शरीर का पेड़ के रुप में बदल जाना बहुत ही अच्छा विचार है। जिसके द्वारा पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है और मृत व्यक्ति पेड़ के रुप में सदा जीवित रह सकता है।उसके प्रियजन जब चाहें उसे पेड़ के रूप में स्पर्श कर सकते हैं। हमने अपने बड़े,बुजर्गों से सुना है कि मरने के बाद व्यक्ति तारा बन जाता है।हम तारों को देख अंदाजा ही लगा सकते हैं पर पेड़ों को हम छूकर सहलाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर अपने प्रियजनों को करीब महसूस कर सकते हैं।

    • राधा आपको एक बार फिर सक्रिय देख कर बहुत अच्छा लग रहा है। आपको पेड़ वाली सोच पसंद आई। हार्दिक आभार।

  19. मृत्यु के बाद भी हम प्रकृति का दोहन करते हैं परंपराओं की आड़ में इसका बहुत ही गहन और निष्पक्ष विश्लेषण संपादकीय में किया है और इसका निराकरण समाधान भी प्रस्तुत है….मृत्यु के पश्चात पेड़ बन जाना अद्भुत जानकारी है….।

  20. बड़े भैया हमें पेड़ बनने वाली बात ज्यादा उचित लगती है, वाकई बहुत अद्भुत है,वैज्ञानिक विचार-धारा को प्रचलन में लाना, किंतु अभी इस पर शत-प्रतिशत सहमति हेतु समय ज़रूर लगेगा।
    आपका संपादकीय कुछ हटकर होता है।

  21. बहुत बढ़िया सर। बचपन में सुनते थे कि मरने वाला हमारा प्रिय व्यक्ति आसमान में तारा बन जाता है। ऐसा अहसास मन को गुदगुदाता था कि चलो हमारा प्रिय व्यक्ति अच्छी गति को प्राप्त हुआ। पर वो ख्याल कोरी कल्पना थे। अब आपसे पहली बार पता चला कि मरने के बाद व्यक्ति पेड़ बन सकता है तो यह अहसास भी सुःखद है। लोग पेड़ों से और अधिक प्रेम करने लगेंगे क्योंकि वे हर पेड़ में अपने मर चुके प्रिय व्यक्ति की छवि देखेंगे। यह अहसास तारों से भी ज़्यादा रोमांचित करने वाला और सुकून देने वाला है क्योंकि यह विचार भविष्य में व्यावहारिक होने वाला है।

  22. आपने संपादकीय के माध्यम से बिल्कुल नया विषय उठाया l प्रकृति पर विजय पाने की धुन में मानव ने प्रकृति का विनाश ही किया है, जीते जी भी और मृत्यु के उपरांत भी l हालांकि हर तरीके में धारणा यही रही होगी कि प्रकृति का प्रकृति को ही समर्पित हो जाए पर उसमें स्थान और लकड़ी का इस्तेमाल प्रकृति के लिए बोझ ही बना l ऐसे में शरीर को पेड़ में बदलना एक वैज्ञानिक और मानवीय पहल है, जिसका आत्मिक लाभ भी परिवार को होगा क्योंकि उनके पास अपने प्रियजन के नाम पर एक पेड़ होगा l कल्पना ही सुखद लग रही है कि कब्रिस्तान या शमशान की भयावहता जगह एक जंगल, जहाँ जीवंतता होगी l मृत्यु सीधे जीवन में परिवर्तित होते हुए दिखेगी l एक सहज चक्र l मृत व्यक्ति के नेत्र दान या अंग दान की तरह मुझे ये बहुत सकारात्मक पहल लगी l और इसे बढ़ावा मिलना ही चाहिए l आपने ऐसे विषय से परिचित करवाया, उसकी गंभीर तथ्यपरक व्याख्या से समृद्ध किया, इसके लिए आपका बहुत -बहुत आभार सर

  23. ‘ मरने के बाद पेड़ के रुप में जीवित रहें ‘
    एक अनूठी सकारात्मक सोच जो मृत्यु के भय को
    किसी हद तक दूर करती है। आपने सम्पादकीय में
    अंतिम संस्कारों की विभिन्न विधियों से भी अवगत
    करवाया है। पर्यावरण पर इसके प्रतिकूल प्रभाव मानव जीवन के लिए निरतंर चुनौती उपस्थित कर रहे हैं। ज्ञानवर्धक लेख और नए बिंदुओं पर सोच की प्रक्रिया को मोड़ने के लिए धन्यवाद एवं शुभकामनाएं

    • डॉक्टर अतुला जी, हमारा प्रयास रहता है कि हर बार कुछ नया दिया जाए। हार्दिक आभार।

  24. बहुत सुन्दर जानकारी सभर संपादकीय लेख । उमदा सोच…।पेड़ के रूप में जीवित रहकर औरों को खुशियाँ बाँटी जा सकती हैं । बिल्कुल नयी सही सोच ।
    प्रसाद जी की कामायनी” की पक्तियाँ याद आ रही हैं-

    औरों को हँसते देखो मनु
    हँसो और सुख पाओ
    अपने सुख को विस्तृत कर लो
    सबको सुखी बनाओ।

  25. आदरणीय संपादक जी,
    अत्यंत आवश्यक, परन्तु उपेक्षित,साथ ही सृष्टि के हर जीव से संबंधित विषय को संपादकीय का विषय बनाने पर बधाई,
    यूं तो मृत्यु के पश्चात वृक्ष बनकर सैकड़ो वर्षों के लिए अमर होने में बहुत बड़ा आकर्षण है परंतु मेरे विचार से सृष्टि का जन्म -मृत्यु और विघटन का चक्र अपने आप में संपूर्ण है।उसके साथ कितनी भी छेड़छाड़ की जाए प्रकृति का चक्र चलता ही रहेगा,
    हम तो “जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए”में विश्वास करने वालों में हैं।

  26. बहुत बेसब्री से आपके सम्पादकीय का हर सप्ताह इंतज़ार रहता है। इस इंतज़ार का
    का कुछ अपनी ही तरह का नशा है।

  27. यह संपादकीय पेड़ ही की तरह बहुत कुछ “देने वाला” है बस समझ-समझ की बात है कि बौद्धिक और संवेदनशील मनुष्य होने के नाते हम मृत्यु के इस पक्ष को कितना सहजता से ले पाते हैं। धार्मिक कर्मकांड से परे प्रकृति ही ईश्वर का पहला (अंतिम भी) प्रतिरूप है । क्योंकि जीते जी मनुष्य प्रकृति को कितना ही दे पाते हैं? बल्कि उसका दोहन और शोषण ही करते रहते हैं, अपनी मृत्यु के बाद उसके प्रति आभार व्यक्त कर पायें इसका बेहतरीन विकल्प आपका संपादकीय हमें दे रहा है । मृत्यु ज्ञान चक्षु खोल दे, सर यह आपके द्वारा ही संभव है। तभी कहां गया है कि ‘जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि’ एक और महत्वपूर्ण बात जो समझ में आई कि संपादकीय एक महत्वपूर्ण संदेश यह भी दे रहा है कि पेड़ और प्रकृति हमें हमेशा देते है, मनुष्य भी भले ही प्रकृति का अंग है लेकिन कभी कुछ जीते जी देना नहीं चाहता बल्कि लेना लूट-खसोटाना ही चाहता है आपका संपादकीय यह भी शिक्षा दे रहा है कि पेड़ों की भाँति हमें हमेशा देने के लिए झुके रहना चाहिए जैसे फल से लदा पौधा झुका रहता है।

  28. अद्भुत व ज्ञानवर्धक संपादकीय ।अत्यंत संवेदनशील व विचारणीय विषय पर आपके गहन अध्यन व चिंतन की छाप परिलक्षित होती है ।विभिन्न धर्मों और संप्रदायों द्वारा प्रयोग में लाने जाने वाली अंतिम संस्कार की प्रक्रिया , प्रकृति के संरक्षण के नवीन उपाय …वास्तव में मनन करने योग्य हैं।ऑर्गेनिक बरीयल कैप्सूल से पार्थिव शरीर को पुनः जीवन प्रदान करना एक अनौखा विकल्प है । अंगदान करने के उपरांत भी आप पेड़ बनकर प्रियजनों का सानिध्य प्राप्त कर पायेंगे । अद्भुत । विस्तृत व उपयोगी जानकारी प्रदान करने के लिए साधुवाद …
    मनवीन कौर पाहवा

  29. आपके इस ज्ञानवर्धक संपादकीय के लिए साधुवाद। अमरत्व की आकांक्षा तो भारतीय मनीषा ने भी की- मृत्योरमामृतं गमय।मैं मृत्यु से अमरत्व की ओर जाऊँ। सत चित आनन्द, विश्व के विभिन्न तत्वों में इनमें से एक, दो अथवा तीनों की उपस्थिति रहती है। हमने आकांक्षा की कि हम सच्चिदानंद स्वरूप हो जाएं। काश, हो पाते। तथापि, सत्य तो हम हैं ही। चैतन्य भी हैं। वृक्षों में भी संवेदना होती है। जगदीश चंद्र बसु ने यह सिद्ध किया। तो क्या अपने शारीरिक अवयवों को वृक्ष में परिणत कर, हम तीन में से दो गुणों के साथ अपनी जीवनयात्रा जारी रख सकते हैं?
    आपने बताया- हां।
    मेरा तो नाम ही रामवृक्ष है। तो क्यों न मैं मरकर भी इसी नाम से वृक्ष रूप में जीवित रहूँ? शायद पीपल, या वट, या आम!

    बहरहाल, इस संपादकीय आलेख के लिए आपको हार्दिक साधुवाद।

  30. यह महत्त्वपूर्ण, व्यावहारिक और क्रांतिकारी सम्पादकीय है।
    शव का पेड़ निर्मित कर देना बेहतर विकल्प है। पर्यावरण – संरक्षण और वंशजों की भावनात्मक स्थिति ,दोनों ही इसमें सुरक्षित रह सकेंगी।
    यह वैश्विक समस्या के सहज समाधान का रास्ता आपने खोजा है।
    जो विवरण और संकेत हैं वे भयावह और दारुण हैं।
    समाज को यह जल्दी ही समझ में आ जाए तो बेहतर होगा।
    यह आसान नहीं है।इस समय धरती को बचाना ज़्यादा ज़रूरी और अनिवार्य है।
    यह अग्रलेख संग्रहणीय है जिसे बार – बार रिमांडर की तरह लिया जाना ज़रूरी है।इस बहुपयोगी सम्पादकीय का शुक्रिया आपको।

    • मीरा जी, आप हमेशा हमारे संपादकीय पर अपनी निष्पक्ष राय भेजती हैं। इस बार भी आपने सार्थक टिप्पणी भेजी है। आभार।

    • आत्मा अजर अमर है। ये कथन शाश्वत रूप से हमारी संस्कृति का हिस्सा है, और इसके साथ ही जुड़ा है शरीर के पंच तत्वों को अंततः उनके मूल रूप में समर्पित करना। जिसका हमारी संस्कृति में दाह संस्कार और अन्य सभ्यताओं में उनकी पूर्वज परम्पराओं के अनुसार इस अंतिम क्रिया का निवारण किया जाता है।
      इस गौरतलब विषय पर आज आपका यह संपादकीय सहज ही
      क्रांतिकारी होने के साथ महत्वपूर्ण भी है।
      इस विस्तृत विषय पर आपके विश्लेषण में साथ आपका ‘पेड़’ से जुड़ा कंसेप्ट भी सहज ही विचारणीय होने के साथ ग़ौरतलब भी है।
      हार्दिक बधाई इस सम्पादकीय के लिए तेजेन्द्र सर। वैसे मैं अक्सर सोचता हूँ कि आप इन अनोखे विषय पर बात करते समय इनसे जुड़ी बातों पर जानकारी जुटाने के लिए कितना अध्ययन करते होंगे। साधुवाद है भाई जी आपके समर्पण को।

  31. आपकी संपादकीय हमेशा की तरह मानव कल्याणकारी है जो श्रेष्ठ संपादन का प्रतीक है
    हार्दिक आभार
    क्षमा पांडेय

  32. आदरणीय तेजेंद्र जी!
    आपका संपादकीय पढ़ तो शनिवार की रात में ही लेते हैं।
    पर‌ उस पर चिंतन करना होता है। इतना सहज भी नहीं कि इस पर एकदम से लिख दिया जाए क्योंकि आपको तो संपादकीय से चौंकाते रहने की लत है।
    आपके संपादकीय आश्चर्य के सामने तो‌ संसार के 9 आश्चर्य भी अब फेल हैं, विचित्र किंतु सत्य की तरह। बिल्कुल अकल्पनीय और अविश्वसनीय।
    वैसे तो जिस तरह से आज जीवित रिश्ते,रिश्तेदारी,भावनाएंँ एवं संवेदनशीलता की नींव दड़कती हुई दिखाई दे रही है, लगता नहीं कि याद रखने में पेड़ के रूप में हमारी पहचान कोई मदद कर पाएगी, हम या कोई भी अमर हो पाएगा ,किंतु फिर भी दिल बहलाने के लिये खयाल अच्छा है,और प्रार्थना भी है कि ऐसा अवश्य हो। पेड़ के रूप में ही सही स्मृति में तो रहें सबकी ।अमरता की चाह नहीं पर यह भी हो जाए तो ख़ुदा का खैर है!
    और अगर ऐसा होना संभव हुआ तो फलों के पेड़ बनना ही ज्यादा फायदेमंद रहेगा।हम आम का पेड़ बनना चाहेंगे या फिर वृंदावन में कदंब का। हम जानते हैं कि हमारी मृत्यु के पहले यह सिस्टम भारत तो नहीं आ पाएगा ।

    यहांँ भारत में इलेक्ट्रिक शवदाह की व्यवस्था प्रारंभ हो गई है। और यह विकल्प भी हमें पसंद आया।
    यह सही है कि प्रकृति की अकूत संपदा का दोहन करने और लाभ लेने के बावजूद उसकी तरफ से लापरवाही बरतने व नुकसान देने के मामले में मनुष्य सबसे आगे है,अतः पेड़ के रूप में पुनर्जीवन बुरा नहीं ।
    साहित्यिकार तो अपने लेखन से ही अमर‌ हो जाते हैं।
    जब से हमने दफनाने शब्द का अर्थ समझा था तब से यह बात हमारे दिमाग में थी कि एक दिन धरती पर सिर्फ कब्रिस्तान ही दिखाई देंगे इंसान के रहने के लिए जगह नहीं रह जाएगी।आज वह सोच साकार होती हुई दिख रही है।
    आज की नई जानकारी में पहले तो संपादकीय का शीर्षक ही था। वैसे हमारे शास्त्रों में है कि पहले कोई यक्ष या गंधर्व श्रापित हुआ करते थे तो उन्हें वृक्ष होने का ही श्राप मिलता था। यक्ष राक्षसों की दूसरी और नेक प्रजाति है जो सबका भला करती है। कुबेर भी शायद यक्ष हैं
    अमेरिकी,बौद्ध और पारसी धर्म के अंतिम संस्कार की जानकारी हमारे लिए नई रही।

    अमेरिका में अंतिम क्रिया के बारे में जानकर बहुत ही अधिक आश्चर्य हुआ!क्या सोचकर कंक्रीट-लोहे की कब्र बनती होगी अमेरिकी ही जाने। शायद उसमें उनको अपने बड़प्पन के अहसास का अहम् हो।
    पारसी समुदाय के‌ बारे में जानकर
    बड़ा ही वीभत्स लगा। जमीन के अंदर भी तो कीड़े मकोड़े ही खाते हैं। किसी का तो पेट भरता है लेकिन गिद्ध को ही खिलाना है!!!!

    बौद्ध धर्म का अंतिम संस्कार!!!!!!!जी मिचला गया इसको पढ़कर। अब यहांँ तो क्या ही कहें!
    सबसे अधिक आश्चर्य हुआ। सच कहें तो विश्वास ही नहीं हुआ। हमारी तो इस पर से सम्मान- भावना ही खत्म हो गई। हिंसा भी हुई तो शव की दुर्गति के रूप में, तो उस समय करुणा के भाव का क्या हुआ? करुणा क्या यह क्रूरता देख सकती है? यह तो अति ही हो गई ।
    हालांकि आपने इसका कारण भी बताया है, पर क्या करें !दिल है कि मानता नहीं। यहांँ तो हम आपसे क्षमा याचना ही चाहते हैं। मानते हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए परिस्थितियों के मद्देनजर पर हम उसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। जो लोग मांसाहारी होते हैं शायद उन लोगों को इन सब चीजों से कोई फर्क ना पड़े पर हमें पड़ता है।
    किंतु यह भी सही है कि आज वर्तमान में जो स्थिति है उसमें जो परिस्थितियाँ हैं उसके मद्देनजर नजर इस तरह का कोई ना कोई फैसला लेना जरूरी है इसलिए फिलहाल हम इलेक्ट्रिक शवदाह के समर्थन में हैं।बाकी परीक्षित किये बिना किसी निर्णय पर नहीं पहुंँचा जा सकता।
    आजकल इधर कंडे या उपलों में दाह संस्कार का चलन शुरू हुआ है। यह भी बुरा नहीं। लकड़ी का काम ही नहीं।
    दाह संस्कार 16 संस्कारों में से एक है,इसके अपने कारण हैं। लेकिन समय के साथ-साथ सोच बदलती है और बदलनी चाहिए भी।
    हमने तो अस्पताल में देह दान का विचार बनाया हुआ है। आपके इस संपादकीय को पढ़ने के बाद मन में विचार आया कि अगर बच्चे देहदान के लिए तैयार नहीं हुए तो हम उन्हें पहले से समझा देंगे कि हमारा अग्नि संस्कार कंडों में करें! अगर तब तक यहांँ पर इलेक्ट्रिक शव -दाह की व्यवस्था हो गई तब तो कोई बात नहीं है।

    आज के संपादकीय से चमत्कृत करने के लिए आपको सलाम तो बनता है।सादर प्रणाम तेजेन्द्र जी!

  33. आदरणीय नीलिमा जी, आप हमारे संपादकीय को इतनी गंभीरता से पढ़ती और ग्रहण करती हैं, जान कर बहुत संतोष का अनुभूति हुई। इस विस्तृत टिप्पणी के लिये आभार।

  34. पेड़ बनने का कॉन्सेप्ट अच्छा है हालांकि हिंदु धर्म की अंतिम संस्कार विधि में ही इस विश्व का कल्याण छुपा हुआ है इसे हमारे सनातन ऋषियों ने बहुत पहले ही जान लिया था

  35. तेजेन्द्र जी अब तक की बेहतरीन सम्पादकीय ।आपने पर्यावरण के हित में चिंता व्यक्त करते हुए
    तुलनात्मक अध्ययन रत होकर एक रास्ता भी खोज निकाला जो यदि व्यवहार में आया तो इंसान मर कर भी धरा पर वृक्ष के रूप में जीवित रहेगा और धरती फिर से हरी भरी हो जायेगी। बहुत बहुत साधुवाद

  36. आदरणीय ! आपने एक बार फिर अकल्पनीय विषय को व्याख्यायित करके पाठकों को चमत्कृत कर दिया है। कहाँ से निकाल लाते हैं इतनी अद्भुत जानकारियाँ ? इन पेड़ों पर कविता और कहानी लिखने की कल्पना भी कितनी रोमांचक है!!! पेड़ बन जाने का भाव मनुष्य को विनम्रता का पाठ भी पढ़ा रहा है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest