अफ़ग़ानिस्तान और भारत में मुस्लिम महिलाएं अपनी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। अंतर बस इतना सा है कि अफ़ग़ानिस्तान की महिला बुरके से बाहर आने की लड़ाई लड़ रही है और भारत की महिला हिजाब के भीतर जाने की…
कल ज़ी टीवी पर शाज़िया इल्मी को हिजाब पर हो रही बहस में बोलते हुए सुना… अपनी बात कहते-कहते वे रो पड़ीं और बहते आंसुओं के साथ ही अपनी बात पूरी की। शाज़िया का कहना है, “हिजाब न पहनने वाली लड़कियों को घरों में पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ता है… उनकी मांओं को सुनना पड़ता है। ऐसी लड़कियों की घरों में पिटाई तक होती है। उनके बारे में कहा जाता है कि वे कितनी बदतमीज हो गई हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “हिजाब पहनने वाली लड़कियों में एक सुप्रीमेसी होती है… नैतिक दबाव होता है… अरे हम तो कितनी अच्छी लड़की हैं… हम तो हिजाब पहनती हैं। जो लड़कियां हिजाब नहीं पहनना चाहतीं, उनका मजाक उड़ाया जाता है। उन पर सितम ढाए जाते हैं। छोटे शहरों और कस्बों में जाकर देखिए। वहां जाकर देखिए, मुस्लिम लड़कियों की क्या हालत है।”
कट्टरपंथियों पर नाराज़गी जताते हुए शाज़िया ने कहा, “ये सब लोग आगे बढ़ चुकी लड़कियों को फिर से उसी दिशा में क्यों ले जाना चाह रहे हैं? हम लोग इन सब चीजों के लिये कितना लड़ें? मैं सिर्फ़ यह कह रही हूं कि पहले किताब पढ़ाई ज़रूरी है… अगर आपको मज़हब सिखाना है तो उन्हें घर में सिखाइए। आप सब अपनी बातों को इन बच्चियों पर क्यों थोप रहे हैं? आप मुस्लिम लड़कियों के हक-हकूक को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं?”
कम से कम मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं किसी राजनीतिक प्रवक्ता को नहीं बल्कि एक ऐसी मुस्लिम महिला की आवाज़ सुन रहा हूं जो कि भुक्तभोगी है… मुस्लिम लड़कियों की स्थिति को जानती है। मुझे अचानक आमिर ख़ान की फ़िल्म ‘सीक्रेट सुपरस्टार’ की हिरोइन ज़ायरा वसीम की याद आ गयी। कट्टरपंथियों ने उस पर कितने भयंकर हमले किये थे।
एक समय ऐसा था जब पाकिस्तान से एक लड़की मलाला यूसुफ़ज़ई ने बुरक़े के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी और कहा था, “बुरक़ा पहन कर ऐसा महसूस होता है जैसे कि कपड़े की बनी एक बड़ी सी शटलकॉक में चल रहे हों और सामने केवल एक झरोखा सा बना है बाहरी दुनिया देखने के लिये… और गर्मी से भरे दिन तो ऐसा महसूस होता है जैसे किसी भट्टी में जल रहे हों!…” इस ट्वीट के अंत में मलाला अपना परिचय देते हुए लिखती हैं, “मैं मलाला हूं – जिसने पढ़ाई की ख़ातिर सिर उठाया और तालिबानियों की गोली खाई!”
वही मलाला आज पश्चिमी देशों में आराम की ज़िन्दगी बिता रही है। अब उसे तालेबान का कोई डर नहीं। अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी है। मगर लगता है कि जैसे आज उसकी स्थिति उस रेल यात्री जैसी है जो ख़ुद तो रेल के डिब्बे में घुस गया है मगर नहीं चाहता कि कोई और घुसे… इससे डिब्बे में भीड़ बढ़ेगी और उसके आराम में ख़लल पड़ेगा।
कर्नाटक के हिजाब विवाद पर मलाला ट्वीट करती है, “कॉलेज हिजाब और पढ़ाई के बीच चुनाव करने के लिये दबाव बना रहा है… लड़कियों को हिजाब पहन कर स्कूल में न जाने देना डर पैदा करता है। औरतें कम पहनें या ज़्यादा इसको लेकर उन्हें आज भी वस्तु होने का अहसास देता है। भारतीय नेताओं को चाहिये कि वे मुस्लिम महिलाओं को हाशिये पर डालना बंद करें।”
लगता है कि अरविंद केजरीवाल और इमरान ख़ान की राह पर चलते हुए मलाला भी यू-टर्न स्पेशलिस्ट बनने जा रही है।
बरखा दत्त जो कि औरतों के हकों की प्रवक्ता होने का नाटक करती रही हैं, इस मामले पर गोलमोल बात करके कन्नी काट गयीं। मैंने बीबीसी टीवी पर उन्हें बोलते सुना तो कष्ट हुआ कि एन.डी.टी.वी. की एक ज़माने की सुपर पत्रकार ऐसी राय कैसे रख सकती है।
कांग्रेस पार्टी तो बिल्कुल ही ग़ज़ब राजनीतिक दल है। एक तरफ़ तो राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं कि जब तक औरत घूंघट से बाहर नहीं निकलेगी महिलाओं की तरक्की संभव नहीं। वही प्रियंका गांधी ने हिजाब विवाद पर अपने ट्विटर हैंडल से अपनी राय रखती हैं और लिखती हैं, “बिकिनी हो, घूंघट हो, जींस या फिर हिजाब… यह महिलाओं का अधिकार है कि वे क्या पहनना चाहती हैं.”
प्रियंका यह भी भूल जाती हैं कि बात नारी की नहीं स्कूल कॉलेज और विद्यार्थियों की हो रही हैं। क्या वे स्कूल की विद्यार्थी को बिकिनी, घूंघट या जीन्स में भेजना चाहती हैं? यदि यह एक संवेदनशील मुद्दे के साथ राजनीति नहीं है तो और क्या है।
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने आगे लिखा, ‘महिलाओं को यह अधिकार संविधान की ओर से दिया गया है… महिलाओं का उत्पीड़न बंद किया जाए। इसके साथ ही उन्होंने अपने ट्वीट में ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का भी जिक्र किया। इस पर राहुल गांधी ने भी प्रियंका को सप्पोर्ट किया और उनके ट्वीट पर ‘थम्स अप’ कमेंट किया।
कॉलेज के मैनेजमेंट एवं अन्य छात्रों ने टीवी पर आकर यह बताया कि 30 दिसंबर 2021 तक इस विषय पर कोई विवाद नहीं था। लड़कियां घर से हिजाब पहन कर आती थीं और क्लास में आकर उतार देती थीं। घर जाते समय फिर से हिजाब पहन लेती थीं। कहीं किसी प्रकार का विवाद नहीं था। अचानक 31 दिसंबर से यह विवाद शुरू कर दिया गया। वैसे ध्यान देने लायक बात यह है कि कालेज केवल लड़कियों का है… वहां पर्दा किससे किया जा रहा है।
इस विवाद को पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों से जोड़ कर देखा जा रहा है। यह बवाल तीन तलाक और सी.ए.ए. की तरह शाहीन बाग़ में परिवर्तित किये जाने की योजनाएं दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस, ओवेसी औऱ अन्य राजनीतिक दल स्थिति का भरपूर फ़ायदा उठाने की कोशिश में लगे हैं।
वहीं हिंदू महासभा जैसे कुछ दल अब खुल कर भगवे के समर्थन में सड़कों पर आने लगे हैं। जहां बहुत से राज्यों में हिजाब दिवस मनाया जा रहा है और मासूम बच्चियों को टीवी कैमरे पर हिजाब शब्द बोलने को उकसाया जा रहा है, वहीं महाराष्ट्र में बच्चों को शिवाजी और तात्या टोपे की तरह सजा कर सड़कों पर पेश किया जा रहा है।
अभी हम हिजाब के मसले से जूझ ही रहे हैं कि अपने एक फतवे में दारुल उलूम देवबंद ने कहा है कि बच्चा गोद लेना गैरकानूनी नहीं है, बल्कि सिर्फ बच्चे को गोद लेने से वास्तविक बच्चे का कानून उस पर लागू नहीं होगा। यह आवश्यक होगा कि मैच्योर होने के बाद माँ अपने बेटे के सामने शरिया के अनुसार पर्दा का पालन करे।
सभी राजनीतिक दलों को याद रखना होगा कि चुनाव हर पाँच वर्ष में होते रहते हैं। सत्तारूड़ दल बदलते रहते हैं। मगर हमें अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये देश को टुकड़ों में नहीं बांटना है। केरल के राज्यपाल आरिफ़ मुहम्मद ख़ान ने बहुत हीं गंभीरता और परिपक्वता के साथ इस मुद्दे पर अपनी राय दी है, “उनका मानना है कि भारत में किसी को कहीं भी हिजाब पहनने की मनाही नहीं है। मगर हर संस्था के कुछ नियम कानून होते हैं। हमें उनका आदर करना चाहिये।”
उन्होंने आगे कहा, “निहित स्वार्थ के लिए महिलाओं को काले युग में वापस ले जाने की कोशिश की जा रही है…. हिजाब इस्लाम का आंतरिक हिस्सा नहीं है.. 1986 में सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में झुक गई थी, लेकिन यह सरकार दबाव में नहीं झुकेगी।”
राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान ने छात्रों को सलाह देते हुए कहा कि वे कक्षा में वापस जाएं और पढ़ाई करें। जीवन में बेहतर करने के लिए यहां सबसे अच्छा वातावरण मिलता है। …मैं पाकिस्तान के बयान पर टिप्पणी नहीं करना चाहता। वहीं, इस मामले में मलाला युसुफ़ज़ई की प्रतिक्रिया पर उन्होंने कहा, शायद उन्हें गलत जानकारी दी गई है। भारत में कहीं भी हिजाब पर प्रतिबंध नहीं है। कुछ संगठनों में नियम होते हैं, जिनका पालन करना होता है।
अफ़ग़ानिस्तान और भारत में मुस्लिम महिलाएं अपनी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। अंतर बस इतना सा है कि अफ़ग़ानिस्तान की महिला बुरके से बाहर आने की लड़ाई लड़ रही है और भारत की महिला हिजाब के भीतर जाने की…
अत्यंत चिंताजनक, भारत के मुस्लिम समाज में घटती प्रगतिशीलता शुभ संकेत नहीं है। अभी तक भी लड़कियों के लिए हिजाब या बुर्का उनके पहनावे का एक ऐसा अंग नहीं था की शैक्षणिक संस्थाओं में भी उसे पहनकर जाया जाए।
हमारे देश के मुस्लिम समाज के पास तो यह मौका है कि वह पूरे विश्व में अपने उदारवाद एवं प्रगतिशीलता के नए मापदंड स्थापित करें -एक आदर्श स्थापित करे।
इसमें और चिंताजनक है धर्म के नाम पर लिबरल चिंतकों बुद्धिजीवियों एवं एक्टिविस्टस का हिजाब के पक्ष में खड़े हो जाना। ऐसा रुख हर धर्म में मौजूद कट्टर वाद को बढ़ावा देगा। फिर समाज के रूप में हमारा नैतिक बल नहीं रहेगा कि हम किसी भी स्त्री- विरोधी कट्टरवाद का विरोध करें!
इस समस्या का निराकरण मात्र नारी उत्थान को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है न कि हिंदू -मुस्लिम धर्म के आधार पर। अपने-अपने स्वार्थ को त्याग कर निष्पक्ष कदम उठाना चाहिए।
Tejendra ji,please accept my appreciation for bringing out the absurdity of the issue of Hijab being given so much importance.
Also,when you point out how Malala has made a complete about- turn regarding the use of burqa you also bring out the contradictions that exist in the so- called progressives/radicals.
Regards
Deepak Sharma
सामयिक विषय पर कई बिंदुओं को सम्पादकीय में अभिव्यक्त किया गया है।सच कुछ और है उसे समझा समझाया जाने का तरीका विवादास्पद हो गया।हिज़ाब पर कोई विवाद नहीं यह एक साज़िश है यह पसंद का मामला नहीं बल्कि किसी संस्था के नियमों या ड्रेस कोड के पालन का विचार था ,जिसे बेवज़ह संघर्ष का मुद्दा बना दिया गया।मलाला यूसुफजई के बदलते मिज़ाज पर ख़ूब कहा अवसरवादी आने वाली पीढ़ियों का नहीं सोचते अपने शिखर पर बने रहने की चिंता करते हैं।
Dr prabha mishra
बहुत अच्छा विश्लेषण, लड़कियों को पढ़ने दो, पढ़ेंगी तभी उनकी जिंदगी बदलेगी | बहुत मुश्किल है उनकी राह में | .. हिजाब को तब तक माई चॉइस से नहीं जोड़ा जा सकता, जब तक लड़कियाँ आत्मनिर्भर ना हो जाएँ | ये माय चॉइस लादा हुआ है |सारा विवाद राजनैतिक है .. पर लड़कियों के पीछे लगी भीड़ का विरोध करती हूँ | ये भीड़ एक खौफ पैदा करती है, हर लड़की के मन में |
लड़कियों की पढ़ाई में कोई रोड़ा नहीं ,
दर असल रोड़ा तो राजनीति में ही है, इस तरह के मुद्दे वक़्त बेवक़्त ज़रूरत पड़ने पर लोगों का ध्यान भटकाने के लिए थोपे जाते हैं, दुनियाँ के सबसे बड़े प्रजातन्त्र में तो यही होता है। ताकि लोग महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, भ्रष्टाचार, किसानों की समस्या जैसे अनेक बातें भूल कर धर्म की दरिया में खो जाए ।
इस से यही पता चलता है कि मुस्लिम आदमी औरत को कैसे दबा के रखना चाहता है. बड़े दुःख की बात है की मुस्लिम समाज को अपनी औरतों को जो society में स्थान देना चाहिए उस से वंचित रखना चाहता है ताकि वो हमेशा उनकी दासी ही बनकर रहें. विपक्ष की partys के पास कोई मोदी government को oppose करने का मुदा नहीं रह गया है. वो सब अपनी अपनी सियासती रोटियाँ सेकने के चक्कर में हैं. आज Saudi Arabia जैसे देश आगे बढ़ रहे हैं और भारत में मज़हब के ठेकेदार मुस्लिम औरतों को पीछे की तरफ़ धकेल रहे हैं.
आप ने, तजेंदर जी बहुत ही ख़ूबसूरती से इस स्मस्या को handle किया है. बधाई !!
मैं हमेशा कहती हूँ आज भी यही कहूँगी दूध का दूध पानी का पानी जैसे होते है आपके सम्पादकीय।जिन्हें पढ़कर कोई भी सिक्के के दोनो पहलुओं पर विचार कर सकता है।जब भी कोई साधारण सा विचार मुद्दा बना दिया जाएगा यही होता आया है और यही होगा। मूल समस्या जाने कहाँ दब जाती है। और कमाल तो ये है जिसे सच मे समस्या होतीहै वो भी आश्चर्य में होताहै की क्या मैने ये बात कही थी।
समस्या सोच की है, जो सच मे ये तकलीफ भोग रहे उनकी है।
मलाला हो या प्रियंका, कोई इस लियेचुप है कि बो तो अब मस्त है कोई इसलिए कुछ भी बोलताहै क्योकि बोलना है ।
समस्या हिजाब न होती तो खिजाब होती चुनाव मे कुछ तो मुद्दा चाहिए ।
बात बस इतनी है जिन्हें सच मे तकलीफ है वो आज भी है और शायद
हमेशा रहेगी क्योकि कहीं की ईंट कही का रोड़ा ओर भानुमातीने कुनबा जोड़ा।
आदरणीय ! आपने बेबाक़ी से अपने ईमानदार विचार इस विषय पर प्रस्तुत किये हैं। यह मुद्दा बहुत सम्वेदनशील है। इस पर स्कूली बालिकाओं को कुछ अपना विवेक भी स्तेमाल करना चाहिए। समाज के विचारशील लोगों को भी आगे आना होगा। पढ़ाई के साथ धार्मिक जटिलताओं को जोड़ना अनुचित है।
अत्यंत चिंताजनक, भारत के मुस्लिम समाज में घटती प्रगतिशीलता शुभ संकेत नहीं है। अभी तक भी लड़कियों के लिए हिजाब या बुर्का उनके पहनावे का एक ऐसा अंग नहीं था की शैक्षणिक संस्थाओं में भी उसे पहनकर जाया जाए।
हमारे देश के मुस्लिम समाज के पास तो यह मौका है कि वह पूरे विश्व में अपने उदारवाद एवं प्रगतिशीलता के नए मापदंड स्थापित करें -एक आदर्श स्थापित करे।
इसमें और चिंताजनक है धर्म के नाम पर लिबरल चिंतकों बुद्धिजीवियों एवं एक्टिविस्टस का हिजाब के पक्ष में खड़े हो जाना। ऐसा रुख हर धर्म में मौजूद कट्टर वाद को बढ़ावा देगा। फिर समाज के रूप में हमारा नैतिक बल नहीं रहेगा कि हम किसी भी स्त्री- विरोधी कट्टरवाद का विरोध करें!
रश्मि आपकी चिंता वाजिब है।
इस समस्या का निराकरण मात्र नारी उत्थान को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है न कि हिंदू -मुस्लिम धर्म के आधार पर। अपने-अपने स्वार्थ को त्याग कर निष्पक्ष कदम उठाना चाहिए।
सही कहा क्षमा जी।
आपका विश्लेषण बिलकुल सही है, तेजेंद्र जी ! सीधा सच सामने लाने के लिए धन्यवाद।
धन्यवाद हरिहर भाई
बहुत अच्छा विश्लेषण। हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद प्रगति जी
बुर्क़ा, शादी और पाख़ाना एक से हैंः जो बाहर हैं- अन्दर जाना चाहते हैं- जो अन्दर हैं वो बाहर आना चाहते हैं!
Tejendra ji,please accept my appreciation for bringing out the absurdity of the issue of Hijab being given so much importance.
Also,when you point out how Malala has made a complete about- turn regarding the use of burqa you also bring out the contradictions that exist in the so- called progressives/radicals.
Regards
Deepak Sharma
Deepak ji you have hit the nail on the head! Thanks so much.
सामयिक विषय पर कई बिंदुओं को सम्पादकीय में अभिव्यक्त किया गया है।सच कुछ और है उसे समझा समझाया जाने का तरीका विवादास्पद हो गया।हिज़ाब पर कोई विवाद नहीं यह एक साज़िश है यह पसंद का मामला नहीं बल्कि किसी संस्था के नियमों या ड्रेस कोड के पालन का विचार था ,जिसे बेवज़ह संघर्ष का मुद्दा बना दिया गया।मलाला यूसुफजई के बदलते मिज़ाज पर ख़ूब कहा अवसरवादी आने वाली पीढ़ियों का नहीं सोचते अपने शिखर पर बने रहने की चिंता करते हैं।
Dr prabha mishra
प्रभा जी, गहराई भरी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।
बहुत ही साफ़गोई से लिखा गया संपादकीय। काश भारत में भी इस बात को अपने स्वार्थ में अँधे हो चुके लोग समझ सकेंगे।
आपका तहेदिल से सादर आभार। ढ़ेरों शुभकामनाएँ भाई।
धन्यवाद भाई।
बहुत अच्छा विश्लेषण, लड़कियों को पढ़ने दो, पढ़ेंगी तभी उनकी जिंदगी बदलेगी | बहुत मुश्किल है उनकी राह में | .. हिजाब को तब तक माई चॉइस से नहीं जोड़ा जा सकता, जब तक लड़कियाँ आत्मनिर्भर ना हो जाएँ | ये माय चॉइस लादा हुआ है |सारा विवाद राजनैतिक है .. पर लड़कियों के पीछे लगी भीड़ का विरोध करती हूँ | ये भीड़ एक खौफ पैदा करती है, हर लड़की के मन में |
वंदना जी एकदम सही कहा आपने।
लड़कियों की पढ़ाई में कोई रोड़ा नहीं ,
दर असल रोड़ा तो राजनीति में ही है, इस तरह के मुद्दे वक़्त बेवक़्त ज़रूरत पड़ने पर लोगों का ध्यान भटकाने के लिए थोपे जाते हैं, दुनियाँ के सबसे बड़े प्रजातन्त्र में तो यही होता है। ताकि लोग महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, भ्रष्टाचार, किसानों की समस्या जैसे अनेक बातें भूल कर धर्म की दरिया में खो जाए ।
कैलाश भाई आप भी इस समस्या को राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं।
जहां धर्म के ठेकेदार ही राह भटका रहे हो, वहाँ और क्या आशा की जा सकती हैं ? अवसरवादी राजनीति तो बहती गंगा में हाथ धो रही है ।
सही कहा पद्मा जी
बहुत ही सटीक अंदाज में इस ज्वलंत मुद्दे की चर्चा, राजनीतिककरण एवं वर्तमान स्थिति में मुद्दे की अहमियत पर विचार प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई।
आपने सही पकड़ा है उषा जी
इस से यही पता चलता है कि मुस्लिम आदमी औरत को कैसे दबा के रखना चाहता है. बड़े दुःख की बात है की मुस्लिम समाज को अपनी औरतों को जो society में स्थान देना चाहिए उस से वंचित रखना चाहता है ताकि वो हमेशा उनकी दासी ही बनकर रहें. विपक्ष की partys के पास कोई मोदी government को oppose करने का मुदा नहीं रह गया है. वो सब अपनी अपनी सियासती रोटियाँ सेकने के चक्कर में हैं. आज Saudi Arabia जैसे देश आगे बढ़ रहे हैं और भारत में मज़हब के ठेकेदार मुस्लिम औरतों को पीछे की तरफ़ धकेल रहे हैं.
आप ने, तजेंदर जी बहुत ही ख़ूबसूरती से इस स्मस्या को handle किया है. बधाई !!
धन्यवाद ग्रोवर साब। आपकी सार्थक टिप्पणी पुरवाई के लिए महत्वपूर्ण है।
मैं हमेशा कहती हूँ आज भी यही कहूँगी दूध का दूध पानी का पानी जैसे होते है आपके सम्पादकीय।जिन्हें पढ़कर कोई भी सिक्के के दोनो पहलुओं पर विचार कर सकता है।जब भी कोई साधारण सा विचार मुद्दा बना दिया जाएगा यही होता आया है और यही होगा। मूल समस्या जाने कहाँ दब जाती है। और कमाल तो ये है जिसे सच मे समस्या होतीहै वो भी आश्चर्य में होताहै की क्या मैने ये बात कही थी।
समस्या सोच की है, जो सच मे ये तकलीफ भोग रहे उनकी है।
मलाला हो या प्रियंका, कोई इस लियेचुप है कि बो तो अब मस्त है कोई इसलिए कुछ भी बोलताहै क्योकि बोलना है ।
समस्या हिजाब न होती तो खिजाब होती चुनाव मे कुछ तो मुद्दा चाहिए ।
बात बस इतनी है जिन्हें सच मे तकलीफ है वो आज भी है और शायद
हमेशा रहेगी क्योकि कहीं की ईंट कही का रोड़ा ओर भानुमातीने कुनबा जोड़ा।
धन्यवाद शिप्रा। आपकी सार्थक टिप्पणी पुरवाई के लिये महत्वपूर्ण है।
समकालीन विषय पर निष्पक्ष सराहनीय लेखन
आदरणीय ! आपने बेबाक़ी से अपने ईमानदार विचार इस विषय पर प्रस्तुत किये हैं। यह मुद्दा बहुत सम्वेदनशील है। इस पर स्कूली बालिकाओं को कुछ अपना विवेक भी स्तेमाल करना चाहिए। समाज के विचारशील लोगों को भी आगे आना होगा। पढ़ाई के साथ धार्मिक जटिलताओं को जोड़ना अनुचित है।