Friday, May 10, 2024
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संपादकीय – स्कूल में नमाज़ और डेढ़ लाख पाउण्ड

कैथरीन बीरबल सिंह

जब मैं भारतीय टीवी चैनलों पर किसी भी विषय पर बहस होते देखता हूं तो भारतवंशी होने के कारण ख़ासी दुविधा महसूस करता हूं कि हम आखिर ऐसे क्यों हैं। चाहे एंकर हो या फिर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता, लगता है सब को चिल्लाने की बीमारी सी लग गई है। रेलगाड़ी की स्पीड से बोलना और लगभग पागलों की तरह चिल्लाना इन टीवी चैनलों की बातचीत की पहचान बन गई है। वहीं जब बीबीसी पर राजनीतिक बहस देखता हूं, तो लगता है कि दूसरे ही ग्रह पर आ गया हूं। सब शालीनता से, बिना उत्तेजित हुए अपनी-अपनी बात कह रहे होते हैं। इस मामले में आजकल बहुत कम देखे जाने वाले दूरदर्शन में बहस का स्तर तथाकथित महान निजी चैनलों से कहीं अधिक सोबर दिखाई देता है।

मैं अपने जीवन के 46 वर्ष भारत में रहा और अब 25 वर्षों से लन्दन में रह रहा हूं। मुझे अब इतना अनुभव है कि मैं दोनों देशों के लोकतंत्र की तुलना कर सकूं। पिछली चौथाई सदी ब्रिटेन में रहने का अर्थ यह कदापि नहीं कि मैं भारत से पूरी तरह कट गया हूं। इंटरनेट के ज़रिये तो भारत से जुड़ा ही रहता हूं, वैसे भी एक साल में दो से दीन बार तो भारत का चक्कर लगता ही रहता है।  
मुझे बीबीसी लन्दन में प्रसारक का अनुभव तो है ही; साथ ही पुरवाई के साप्ताहिक संपादकीय के लिये भी समाचारों के साथ मित्रता बनाए रखता हूं। इसलिये भारत और ब्रिटेन दोनों के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र बनाए रखना आसान रहता है। 
यह बात तो सच है कि भारत और ब्रिटेन कहने को लोकतंत्र हैं, मगर भारत का इतिहास बताता है कि लोकतंत्र भारत के लिये एक नयी और आयातित सोच है। रामायण और महाभारत काल से भारत में राजशाही ही चलती रही – राजा और प्रजा! यहां तक कि बहुत सी कहानियों की शुरूआत ही इस वाक्य से होती थी – “एक था राजा…।” 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद ही संसदीय कार्य प्रणाली को भारत ने अपनाया। ज़ाहिर है कि यह कार्य प्रणाली हमने ब्रिटेन से उधार ली। ब्रिटेन में यह सिस्टम 1832 में लागू हो गया था। हालांकि ब्रिटेन में आज भी राजा या रानी होते हैं, मगर उनका राजनीतिक  महत्व भारत के राष्ट्रपति जितना ही होता है। सरकार प्रधानमंत्री और उनकी मंत्री परिषद ही चलाती है।
भारत तो लगभग एक हज़ार साल विदेशी आक्रांताओं का ग़ुलाम ही रहा। इसलिये यहां तो लोकतंत्र जैसी किसी बात के बारे में सोचना भी गुनाह होता था। बादशाह चाहे अच्छा हो या फिर रंगीला… राज उसी का चलता था। हम तो इतने महान हैं कि हमने एक विदेशी कंपनी को भारत पर राज करने दिया। यह शायद पूरे विश्व में एकमात्र उदाहरण होगा। 
जब मैं भारतीय टीवी चैनलों पर किसी भी विषय पर बहस होते देखता हूं तो भारतवंशी होने के कारण ख़ासी दुविधा महसूस करता हूं कि हम आखिर ऐसे क्यों हैं। चाहे एंकर हो या फिर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता, लगता है सब को चिल्लाने की बीमारी सी लग गई है। रेलगाड़ी की स्पीड से बोलना और लगभग पागलों की तरह चिल्लाना इन टीवी चैनलों की बातचीत की पहचान बन गई है। वहीं जब बीबीसी पर राजनीतिक बहस देखता हूं, तो लगता है कि दूसरे ही ग्रह पर आ गया हूं। सब शालीनता से, बिना उत्तेजित हुए अपनी-अपनी बात कह रहे होते हैं। इस मामले में आजकल बहुत कम देखे जाने वाले दूरदर्शन में बहस का स्तर तथाकथित महान निजी चैनलों से कहीं अधिक सोबर दिखाई देता है। 
पुरवाई के पाठक सोच रहे होंगे कि मैं कैसी रामकथा ले कर बैठ गया हूं। आख़िर ऐसा हुआ क्या है जो मैं ऐसे प्रवचन देने बैठ गया हूं। दरअसल लंदन के एक स्कूल में ऐसी घटना घटी है कि मुझे कुछ समय पहले भारत में ऐसी ही एक घटना की याद दिला गई। फिर मैं एकदम सोच में पड़ गया कि भारत में इस मुद्दे पर भारत में टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों ने कितना बेहूदा रवैया अपनाया था और यहां लंदन में सारी बातचीत कितनी शालीनता से निपटाई गई।
मुझे याद पड़ता है कि भारत के कर्नाटक राज्य में कुछ विद्यार्थियों ने स्कूल में हिजाब पहन कर आने की ज़िद की थी और स्कूल मैनेजमेम्ट का कहना था कि यह स्कूल यूनिफ़ार्म के नियमों के विरुद्ध है। इस विषय को लेकर पूरे भारत में जो हंगामा हुआ, हमारे लिये समझ पाना आसान नहीं था। ज़ाहिर सी बात है कि जब हम किसी भी स्कूल में दाख़िला लेते हैं हमें वहां के नियम कायदे पहले से बतला दिये जाते हैं। फिर उन्हीं कायदे कानूनों की हम धज्जियां उड़ाते हैं और उस पर राजनीति करने लगते हैं। यहां तक कि उसे चुनावी मुद्दा भी बना लेते हैं। 
कुछ इससे मिलता जुलता किस्सा ब्रिटेन के एक स्कूल का भी है। बात सप्ताह भर पहले की है। लंदन के ब्रेंट इलाके के मिखेल कम्यूनिटी स्कूल में एक छात्रा ने स्कूल पर अदालत में मुकद्दमा कर दिया कि उसे स्कूल के लंच टाइम में नमाज़ पढ़ने की सुविधा महैय्या करवाई जाए। इस स्कूल में चालीस प्रतिशत विद्यार्थी मुस्लिम हैं। इस स्कूल की पूरे लंदन में उच्चस्तरीय प्रतिष्ठा है। यहां के रिज़ल्ट बहुत अच्छे रहते हैं। यहां की प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ब्रिटेन की सबसे अधिक अनुशासन प्रिय प्रिंसिपल मानी जाती हैं। वे अपने स्कूल की बेहतरी के लिये पूरी तरह से समर्पित हैं।
जब प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ने इस छात्रा को ऐसी किसी प्रकार की सुविधा प्रदान करने से इन्कार कर दिया तो उस छात्रा और उसकी माँ ने स्कूल पर अदालत में मुकद्दमा दायर कर दिया। प्रिंसिपल और स्कूल पर धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का उल्लंघन करने का इल्ज़ाम लगाया गया और कहा गया कि यह प्रतिबंध भेदभावपूर्ण था। ज़ाहिर है कि मुद्दा मीडिया में भी उछला। ब्रिटेन का मीडिया इतना सतर्क है कि इस छात्रा का नाम और उसकी माँ का नाम पूरी तरह से छिपा कर रखा गया। 
पिछले सप्ताह लंदन की हाई कोर्ट ने इस मुकद्दमें पर जस्टिस लिंडन ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि किसी भी विद्यार्थी को यह हक़ नहीं बनता कि वह अपनी धार्मिक सोच स्कूल के तमाम विद्यार्थियों पर थोपने का प्रयास करे। हैरानी की बात यह है कि जब तक इस मुकद्दमे पर हाई कोर्ट का निर्णय सार्वजनिक नहीं हुआ, इस पर न तो कहीं कोई चर्चा हुई और न ही कोई विवाद खड़ा हुआ। ब्रिटेन के अधिकांश नागरिकों को समाचार पत्रों या ऑनलाइन समाचारों से ही इस ख़बर के बारे में सूचना मिली।
क्योंकि यह स्कूल ब्रिटेन के सबसे बेहतरीन स्कूलों में से एक है, इसलिये कोर्ट के इस निर्णय का प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने स्वागत किया। साथ ही महिला एवं समानता मंत्री सुश्री केमी बादेनॉक ने अदालत के इस निर्णय को उन ताकतों के विरुद्ध जीत बताया जो कि हमारी सार्वजनिक संस्थाओं को नष्ट करने का प्रयास कर रही हैं। 
प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ने भी अदालत के निर्णय का स्वागत करते हुए इसे लंदन के तमाम स्कूलों के लिये जीत बताया। उन्होंने आगे कहा, “किसी भी स्कूल को इस बात की छूट होनी चाहिये कि वह अपने विद्यार्थियों की भलाई के लिये क्या कदम उठाये। एक विद्यार्थी और उसकी माँ को यदि स्कूल के किसी निर्णय से आपत्ति है, तो इस कारण से स्कूल सभी विद्यार्थियों के प्रति अपना दृष्टिकोण नहीं बदलना चाहिये।
पुराने ट्विटर और आज के ‘X’ पर अपने विचार रखते हुए सुश्री केमी बादेनॉक ने पोस्ट किया कि – “किसी भी विद्यार्थी को अपने विचार स्कूल के पूरे विद्यार्थियों पर थोपने का कोई हक़ नहीं बनता। समानता एक ढाल तो बन सकती है, मगर तलवार नहीं। अध्यापकों को धमका कर झुकाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिये। 
एक मुस्लिम संस्था ने भी ‘X’ पर अपनी पोस्ट डालते हुए हाई कोर्ट के इस निर्णय पर अफ़सोस ज़ाहिर किया है। – “यह निर्णय मुस्लिम छात्रों पर निशाना साध रहा है। हाल ही के सरकारी उग्रवाद की परिभाषा का हिस्सा है ये। किसी भी विद्यार्थी को अपने मज़हब को शांतिप्रिय तरीके से मानने के लिये उसके पीछे पुलिस नहीं लगाई जानी चाहिये।”
संबद्ध विद्यार्थी का कहना है कि पूजा नीति लागू होने से बहुत पहले से वह और उसकी सहेलियां जानती थीं कि स्कूल में पूजा नमाज़ की अनुमति नहीं है। इसलिये वह छूटी हुई नमाज़ों की भरपाई घर जा कर करती थी। 
वहीं शिक्षा सचिव जिलियन कीगन का मानना है कि इस मामले में “सही निर्णय” स्कूल की प्रिंसिपल ही ले सकते हैं। श्रीमती बीरबल सिंह ने पूजा नमाज़ नीति मार्च 2023 में लागू की थी जब उन्होंने देखा कि लगभग 30 विद्यार्थी स्कूल के मैदान में अपने यूनिफ़ार्म कोट को नीचे बिछा कर सामूहिक रूप से नमाज़ अदा करने लगे।
स्कूल के वकीलों का स्कूल के निर्णय के बारे में कहना है कि इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों का सामूहिक रूप से खुले मैदान में नमाज़ अदा करना किसी ‘संगठित अभियान’ से कम नहीं है। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि स्कूल को मैत की धमकियां दी जा रही थीं, बम की अफ़वाह, विद्यार्थियों से दुर्व्यवहार और इस्लामोफ़ोबिया के झूठे आरोपों का निशाना बनाया जा रहा था। 
ध्यान देने लायक बात यह है कि ना तो लेबर पार्टी ने इस मुद्दे पर राजनीति की और न ही सत्तारूड़ दल ने इसे बहस का मुद्दा बनाया। बीबीसी और स्काई टीवी ने इसे उतना ही महत्व दिया जितना दिया जाना चाहिये था।
एक आम ब्रिटिश नागरिक को शिकायत इस बात की भी है कि एक विद्यार्थी को स्कूल में नमाज़ पढ़ने की अनुमति ना मिलने पर उसने और उसकी माँ ने अदालत में केस दायर किया। माँ ने दावा किया कि वह ग़रीब है और ‘लीगल एड’ यानी कि सरकारी कानूनी सहायता के लिये आवेदन किया। इस मुकद्दमे में टैक्स अदा करने वाली मासूम जनता के एक लाख पचास हज़ार पाउण्ड यानी कि डेढ़ करोड़ भारतीय रुपये ख़र्च हो गये। फिर दावा किया जाता है कि मज़हब तो किसी भी नागरिक का निजी मसला है। यदि मसला निजी है तो पूजा अर्चना घर में की जाए। किसी की निजी सोच के कारण ख़मियाज़ा आम टैक्स अदा करने वाले मासूम क्यों भुगतें!
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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57 टिप्पणी

  1. परिपक्व लोकतंत्र,राज शाही,मीडिया,बीबीसी,,शिक्षा तंत्र,प्रतिबद्ध शिक्षक और पैर पसारता एक धर्म विशेष सभी को एक सार्थक संपादकीय में पिरोते पुरवाई के संपादक और भारत की जन्म कुंडली में आयातित लोकतंत्र,पथभ्रष्ट मीडिया, बे लगाम राजनीति करते छूट भईया राजनीति विशारद भारत /इंडिया के!
    भारत के लोकतंत्र नृत्य के समय आया यह संपादकीय प्रासंगिक है।
    पुरवाई परिवार को बधाई

  2. भारत और ब्रिटेन में एक बड़ा अंतर है। भारत में हर मुद्दे और उसका समाधान राजनैतिक दृष्टिकोण से लिये जाते हैं और जब यह दृश्टिकोण आता है तब मोरल, देश की प्राथमिकता गयी तेल लेने रह जाता है सत्ता सुख और वोट बैंक की राजनीति। अफसोस तो तब होता है जब भारत में न्यायालय भी इन मामलों में निष्पक्ष नहीं रह पाता।

  3. आपने सच लिखा है कि टी वी चैनल्स पर बहसों में भाषा का स्तर निन्दनीय रूप से बहुत ही निम्न हो गया है। और एंकर तो आग में घी डालने का काम करते हैं बहस अंतहीन होती है और
    एक दूसरे को देशद्रोही तक क़रार कर दिया जाता है।
    जहाँ तक राजा और रानी की बात है। हम इस मानसिकता से कभी बाहर शायद ही निकल पायें क्योंकि हम उन्हें भगवान का दर्जा देते हैं और वैसे भी सत्ताधारी व्यक्ति अपने आपको राजा ही समझता है। हमारे मुख्यमंत्री अपने आप को अपने राज्य का और प्रधान मंत्री अपने आप को देश का राजा समझते ही हैं।
    मैं पूर्णत्या आपके संपादकीय से सहमत हूँ।

  4. भारतीय हूँ, भारत के विरुद्ध नहीं लिखूँगी। अपने घर में लाख बुराई हो, दूसरा अच्छाइयों से भरा हो तो भी अपना देश, अपना है। सुधार का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। विश्वास है कि सुधार भी होगा।
    जिस मुद्दे की बात की गई है उस पर,ब्रिटन और भारत की तुलना इस लिए नहीं की जा सकती है। यहाँ स्वतंत्रता से पहले से ही, भूमि को धर्म के नाम पर बाँटने के बाद भी, देश को क्रमशः मुस्लिम राष्ट्र बनाने की योजनाबद्ध साजिश हो
    रही है।
    अपने ही राष्ट्र में बहुसंख्यक हिन्दू जनसंख्या दूसरे दर्जे के
    नागरिक बना दिए गए हैं।
    यहाँ की जनता जैसी विकलता, बेचैनी ब्रिटेन के मूल नागरिकों में नहीं है।
    वह दहशत में नहीं जी रहे हैं कि कब उनसे उनके धार्मिक ही नहीं आर्थिक अधिकार भी छीन कर दूसरे समुदाय को दे दिए जायेंगे। कब उन्हें भी कश्मीरी पंडितों की तरह देश से मार – काट कर निकाल दिया जायेगा।
    यहाँ आस्तित्व की चिन्ता है अतः क्रोध, बैचैनी स्वाभाविक है।
    ब्रिटन में मुकदमा चला तो विपक्षी दल किसी एक समुदाय का पक्ष लेकर, लाभ की रोटियां सेंकने नहीं आ गया। लेकिन भारत एक मांस विक्रेता की हत्या पर देश का लोक तन्त्र खतरे में आ जाता है। बुद्धिजीवी अपने पुरस्कार वापस करने लगते हैं, देश भर में कुछ अल्पसंख्यक (?) की रक्षा में खड़े लोग बहुसंख्यकों को भूल जाते हैं।
    ऐसे में क्रोध आना स्वाभाविक है। जिस दिन देश इस तरह के खतरे से बाहर निकल जायेगा, सब सभ्य और सौम्य हो जायेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
    भारत और ब्रिटन की गहरी पड़ताल करने और एक तटस्थ सम्पादकीय लिखने के लिए बधाई और धन्यवाद।

    • शैली जी जब तक हम स्वीकार नहीं करेंगे कि कोई समस्या है, तब तक उसका इलाज संभव नहीं है। हम भारतवंशी हैं इसलिये किसी भारतीय ग़लती को रेखांकित नहीं करेंगे… यह तो ठीक वैसे हुआ जैसे एक बिगड़े हुए बच्चे की माँ उसकी ग़लती माने ही नहीं और उसे अधिक बिगड़ने दे। आपकी टिप्पणी में और भी बहुत कुछ है जो सटीक है।

      • जब ट्विन टावर पर हमला हुआ, लंदन की मेट्रो में बम विस्फोट, फ्रांस में पत्रकार की हत्या और बहुत कुछ। शान्ति दूत देशों का समूह उसकी भर्त्सना करने के लिए लामबंद नहीं हुए। एक नुपुर शर्मा के लिए सब लबाबंद हो गए। भारत सरकार पर कई साइबर हमले हुए, सभी शांति प्रिय देशों ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था तोड़ने के लिए विश्व भर के शांतिदूतों का आह्वान किया। ऐसी एकता कभी नहीं दिखी जब अमानवीय कृत्य हुए।
        ब्रिटन या इंग्लेंड, बी बी सी का भारतीए शासन पर किया हमला भी समान्य रूप से लोग जानते हैं।
        “कमियों को जानेंगे नहीं तो दूर कैसे करेगें,”
        ये सब आदर्श वाक्य हैं। जब प्रश्न आस्तित्व का हो तो आदर्श नहीं, चाणक्य नीति चलती है। ब्रिटन जिसने आज तक के भारत के लिए कैसे विष बीज बोए हैं, उस देश के खरे सच को भी अस्वीकार करने से मुझे परहेज़ नहीं।”everything is fare in love and war”
        क्षमा सहित।

  5. भारत का वर्तमान लोकतंत्र निश्चित रुप से हीं ब्रिटेन स्थापित मूल लोकतंत्र का संपादित रुप है। हम यह तो कह सकते हैं कि लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप हमें ब्रिटेन ने सिखाया है परंतु यह कभी नहीं कह सकते कि लोकतंत्र भारत के लिए नई एवं आयातित सोंच है। भारत का इतिहास बताता है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वर्तमान बिहार के वैशाली में लिच्छवियों का गणतंत्र एवं वैशाली गणराज्य था। उस लोकतंत्र को चौरासी हजार बौद्ध विहारों की तरह हीं कहीं नष्ट कर दिया गया जिसके कारण आज एक विद्वान लेखक को यह लिखना पड़ा ” लोकतंत्र भारत के लिए एक नई एवं आयातित सोंच है।” वस्तुतः यह वाक्य लेखक का भूल नहीं बल्कि प्राचीन भारतीयों द्वारा अपनी निधियों को नष्ट करने का दुष्परिणाम है। भारतीयों का एक बड़ा समूह आज भी अपनी एक बड़ी निधि नष्ट करने को आतुर है और शायद उसे नष्ट करके हीं दम ले। बात बात में गाली गलौज टीवी बहसों में शालीनता का अभाव निश्चित रुप से हीं भारत की छवि को नष्ट कर रहा है और देश की प्रगति में घातक और बाधक दोनो हीं है।
    स्कूलों में नमाज पढने की जिद निश्चित रूप से हीं एक उकसायी हुई गलत एवं नादान जिद थी। ब्रिटेन की राजनीतिक दलों ने जिस शालीनता धैर्य एवं एकजुटता के साथ इस नादानी का समाधान निकाला। भारत को भी इससे सीखना चाहिए। क्योंकि इस सच्चाई से इनकार तो नहीं किया जा सकता कि हमारे वर्तमान लोकतंत्र का मूल, वस्तुतः ब्रिटेन का हीं लोकतंत्र एवं सोंच है।

    • भाई राजनन्दन सिंह जी मैं लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप की ही बात कर रहा हूं – जिसे संसदीय प्रणाली कहा जाता है। आपकी टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।

  6. यह षडयंत्र का हिस्सा था। दुनिया का इस्लामीकरण करने की कोशिश। गज़वाए हिन्द ही नहीं अब गज़वाए दुनिया। अमेरिका में यह षडयंत्र गुप्तरूप से चलाया जा रहा है। ब्रिटेन की अदालत और वहां की राजनीतिक पार्टियों की प्रशंसा करना होगा। भारत में वैसी,पप्पू/गप्पू/दीदी/मम्मी टूट पड़ते ऐसे जजमेंट पर।

  7. अच्छा निर्णय,भारत मे होता तो इस मुद्दे पर चुनाव ही हो रहे होते, tv चैनल तो इस पर इतने चीखते की तौबा

  8. इस्लाम एक नया धर्म होने के कारण ज़्यादा कट्टर है। क़ुरान को इंटरप्रेट करने वालों ने इसका ज़्यादा नुक़सान किया है। लोगों को भड़काया जाता है कि इस्लाम ख़तरे में में है इसीलिए इस तरह की फ़िज़ूल माँग होती रहती है। आपने बहुत अच्छा लिखा वाक़ई भारत की मीडिया का स्तर गिरता जा रहा है।

  9. विचारणीय आलेख है। भारत जिन संकटों से उबर रहा है इंग्लैड दिनोदिन उनके चपेट में आता दिख रहा है। एक अभिजात्य किस्म का शिष्टाचार, मानवीय मूल्यों की पक्षधरता और सहनशीलता का बेजा फायदा उठा कर एक मजहबी सोच सारी दुनिया को चपेटते रहने की ताक में है। फ्रांस भांप गया और सजग है चौकस है। आस्ट्रेलिया भी समय रहते सावधान है। भारत में तीव्र प्रतिकार ही आपको हो हल्ला और आक्रामकता के रुप में दिख रही है। शालीनता को ताक पर रखिये तेजेंद्र जी, ये वहां भी आपका जीना मुहाल कर देंगे। जो दृष्टांत आपने साझा किया है वह एक बड़ा संदेश दे रहा है। अनावश्यक नफासत और शालीनता को तजिये और तनिक लाऊड होईये। सवाल वजूद का है। आप लिखते बहुत अच्छा हैं।

  10. एक संवेदनशील मुद्दे के ट्रीटमेंट पर तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण किया जाना निश्चित रूप से सराहनीय है। ये भी जानना चाहिए कि ये अंतर क्यों रहा। दशकों तक एक वर्ग को तुष्टिकरण के नाम पर पोसा गया और दूसरे वर्ग की सभ्यता संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट होते रहने दिया। अब चेतना जागी है नुकसान देखकर। इसलिए उग्रता आ रभी है, हालांकि उसे सीधे-सीधे खारिज नहीं किया जा सकता पर फिर भी संतुलन की आवश्यकता से भी इंकार नहीं है। आपका संपादकीय मुद्दे की नब्ज पर हाथ रखकर चेता रहा है। साधुवाद।

    फिर भी बस इस बात से कतई सहमत नहीं हुआ जा सकता कि लोकतंत्र ब्रिटिशियस की देन है। भारत के इतिहास में गणराज्य शब्द बहुत महत्वपूर्ण रहा है। राज परिवार के बावजूद पूरा मंत्रिमंडल होता था जो कि सत्ता पर पूरा नियंत्रण भी रखता था।

    • शिवानी लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप जहां एक संसद है और चुनाव होते हैं… सांसद चुने जाते हैं, प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद होती है… यह सब ब्रिटिश प्रभाव है।

  11. बिल्कुल सही बात स्कूल को स्कूल की रहने दे वहां धर्म का प्रवेश निषेध होना चाहिए। भारत में तो किसी भी चैनल में डिबेट देखने का मन नहीं करता। उल्टा मन दुखी हो जाता है। बहुत-बहुत बधाई।

  12. भारत में लोग कोर्ट और निर्णय पर ही सवाल खड़े करने लगते। TV chanels हप्तों तक इसे गरमाये रहते। यह देश का दुर्भाग्य है कि आम जनता को भी इस तरह के शो देखने मे आनंद आता है।

  13. भारतीय न्यूज देखना बंद किए अरसा हुआ! नकरात्मकता थकाने लगी थी!
    विद्यालय शिक्षा के लिए हैं , इसे धर्मनिरपेक्ष रखना जरूरी है। ब्रिटिश मीडिया के एक्सट्रेमिस ( खासकर रॉयल को ले कर) के बारे में काफी सुनती देखती रही हूं , इस घटना में उनका जो मानवीय व्यवहार था वह सराहनीय है।

  14. बहुत बढ़िया संपादकीय है सर .. वास्तव में बहुत से मुद्दों का हल शान्त तरीके से निकाला जा सकता है परन्तु भारत में tv चैनल्स का काम ही यही है की चिंगारी को हवा दो, आग भड़काओ और मुद्दे को इतना बड़ा tv debate बना दो कि channel कि trp बढ़ जाए और साथ ही साथ उनकी आमदनी…बहुत सच्चा दर्पण दिखाया आपने

  15. प्रासंगिक सम्पादकीय के लिए साधुवाद। सही बात है कि धार्मिक सोच निजी है और इससे संबंधित उपासना की विधियों को घर के पूजा स्थान और धार्मिक स्थलों तक ही सीमित रखना चाहिए। शिक्षण संस्थान शिक्षा के निमित्त ही हों , शिक्षण संस्थानों को इनसे अलग रखें तो श्रेयस्कर होगा।

  16. वैशाली में लिच्छवियों का गणराज्य वस्तुत: भारत के लिए गौरव की बात है।
    पर कोई यह बताए कि यह कब शुरू हुआ था? और कब अंत?
    याने कितने वर्ष चला?
    इसका अंत करने में चाणक्य और चंद्रगुप्त का हाथ है?
    क्या उस समय चुनाव होते थे?
    नहीं। सभा होती थी जिसे संसद कहा जा सकता है। तथा राजा के मरने के बाद नया राजा बेटा न हो कर सभासदों द्वारा चुना जाता था। यह प्रजातंत्र का अंकुरित रूप है।
    वर्तमान संसदीय प्रणाली को ब्रिटेन का आयातित रूप कहा जा सकता है।

    • आदरणीय,
      वैशाली गणराज्य के शुरुआत की निश्चित तिथि इतिहास को ज्ञात नहीं है। बुद्ध के जन्म से कुछ पहले इसकी शुरुआत मानी जाती है। यहाँ के अंतिम शासक राजा सुमति भगवान राम के पिता राजा दशरथ के समकालीन थे। संभव है उनके बाद भी गणतंत्र बना हो। परंतु बिना प्रमाण के इतना बड़ा दावा या अनुमान उचित नहीं इसलिए हम बुद्ध जन्म से मात्र 12 वर्ष पहले ईपू 575 मान लेते हैं। 460 ईपू अजात शत्रु ने वैशाली गणराज्य को जीतकर मगध में मिला लिया। इस तरह कम से कम लगभग 115 वर्ष वैशाली में गणराज्य चला।
      वैशाली गणराज्य को समाप्त करने में आचार्य चाणक्य एवं सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का कोई हाथ नहीं था। क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति गणराज्य समाप्ति के 139 वर्ष बाद हुई।

      उन दिनों भी सभासद का चुनाव निश्चित अवधि के लिए जनता के प्रतिनिधियों द्वारा हीं होता था। नये प्रतिनिधि पुनः चुनकर हीं आते थे वे वंशानुगत नहीं थे। कम से कम सौ वर्ष से ज्यादा समय तक चलने वाले गणराज्य को प्रजातंत्र का अंकुरित रुप कहने का औचित्य तो नहीं है। परंतु जैसा आपने कहा है उससे एक कदम और पीछे जाकर यदि इसे प्रजातंत्र का बीज रुप भी मान लिया जाए फिर भी तत्कालीन वैशाली गणराज्य को आधुनिक विश्व के प्रजातंत्र की शुरुआती एवं मूल प्रेरणा के श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता।
      हमारे वर्तमान लोकतंत्र का स्वरूप प्राचीन वैशाली गणराज्य की अवधारणा से प्रेरित न होकर पुरी तरह ब्रिटिश सोंच का संपादित रुप है। जिसमें अभी भी हजार खामियाँ है। जो आगे हजारों हजार वर्षों तक संपादित होती रहेंगी। इसलिए इस व्यवस्था का हमारी प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था से कोई संबंध न होते हुए भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वस्तुतः वैशाली गणराज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था हीं वर्तमान विश्व की समस्त प्रजातंत्रीय व्यवस्था
      का मूल आधार है।
      नीचे के लिंक में वैशाली गणराज्य की एक संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत है।
      https://youtu.be/_5_o7Nw-3oM?feature=shared

  17. भारत में TVचैनेल्स के ऐंकर्स बेहद आक्रामक भाषा का प्रयोग करने
    लगे हैं।समाचार इतना loud पहले कभी नहीं था।आपने सही लिखा।

  18. आपका संपादकीय संतुलित और ब्रिटेन की परिस्थितियों के अनुकूल है। भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लगभग सौ करोड़ मतदाताओं का देश है भारत, इसकी तुलना किसी देश से नहीं की जा सकती। दूसरा, भारत एक भुक्तभोगी देश है । धर्म अथवा मज़हब के आधार पर भारत मां के टुकड़े कर दिए गए और उस पर उसपर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया जाता है और यहां सड़कों को अवरूद्ध कर असंख्य लोग नमाज़ पढ़ते हैं और यहां का जनमानस कर पीता है। उसे सहन करता रहा है। ब्रिटेन में नमाज को लेकर पहली घटना घटी है। इस संबंध में इस तरह की घटनाओं के प्रति प्रतिक्रिया एक जैसे नहीं हो सकती क्योंकि दूध का जला छाछ को भी फूंक मार कर पीता है। यह मुद्दा बहुत संवेदनशील है और इस बारे मैं अपनी भारतीय अगर ओवर रिएक्ट करता है तो वह स्वाभाविक है। कोई भी प्रतिक्रिया समूचे इतिहास का संदर्भ लिए होती है। भारत की बहुत सारी समस्याएं ब्रिटेन की देन है ््् आज बस यहीं तक….

  19. ब्रिटेन की तरह नीदरलैंड में यही मुद्दा है। यहाँ मुझे रहते दो दशकों से अधिक हो गये हैं । भारत जाना कम ही हो पाता है। यहाँ भी जहाँ मुस्लिम समुदाय बहुलता में हैं । वहाँ के कुछ विद्यालयों में उनकी नमाज़ के लिए अलग कमरा बनाया जाता है। पर हर जगह ऐसा नहीं है। मेरा मानना भी यही है कि धर्म हर किसी का अपना निजी है। वह अपने घर तक सीमित रहना चाहिए । किसी भी धर्म में हिंसा, बदला आदि नहीं सिखाया जाता । क्योंकि मैं बहुत सालों से विदेशी मुस्लिम महिलाओं को यहाँ डच भाषा भी सिखाती हूँ तो मैं उनको यह बताती हूँ धर्म घर तक सुरक्षित रखे । या तो पूरे सौ प्रतिशत धर्म का पालन करो या फिर सबके साथ मिल कर सौहार्द से रहें। बच्चे को स्कूल में बुर्का या हिजाब पहना कर सबसे पहले तो आप उसके बच्चे होने का अधिकार छिन रहे है। दूसरी बात आप अभी से उसके मन में दूसरे लोगों के प्रति नकारात्मक सोच पैदा करवा रहे है । बच्चे को बच्चा रहने दें। बड़ा हो कर वह खुद से यह फ़ैसला लें कि उसे नक़ाब पहनना है या नहीं । बिना बात पर किसी पर जुर्माना लगाना सही नहीं है । आपको एहसास मानना चाहिए कि मुश्किल समय में ये देश आपको आसरा देते हैं ।

  20. भारतीय टीवी चैनल्स हर मामले को सनसनीखेज़ बनाकर “ब्राउनी प्वाइंट्स” जुटाने में लगे रहते हैं और इस प्रक्रिया में सच्चाई के साथ साथ शालीनता और शिष्टाचार सभी ताक़ पर रख दिए जाते हैं ।
    रही बात धर्म की , धर्म तो सदा से एक संवेदनशील मसला रहा है और इस मसले के ऊपर राजनैतिक रोटियां स्वतंत्रता के पहले से सिक रही हैं । आज़ादी के 7दशक बाद सत्ता में आये दल पर धर्म की राजनीति करने के आरोप बहुतायत में लगाने वाले सारे दल अपने अस्तित्व की तारीख़ से यह कृत्य करते आ रहे हैं । अल्पसंख्यक का तमगा लगाये एक वर्ग विशेष तेज़ी से बहुसंख्यक हुआ जा रहा है लेकिन मज़ाल है कि कोई इस सच को खुलकर बोले! यदि एक दल बोल रहा है तो उससे बुरा विभाजनकारी कोई नहीं।
    बेशर्मी की हद होती है जब अन्य दलों के प्रवक्ता चिल्ला चिल्लाकर ख़ुद को “सेक्युलर” बोलते हैं और इन मुद्दों की अवहेलना भी बहुत सफ़ाई से कर जाते हैं। एक बड़े वोट-बैंक को कौन नाख़ुश करे?!
    ” हम सत्ता में आये तो जातिगत जनगणना करवायेंगे।” क्या इस वक्तव्य में समाज के विभाजन की गंध नहीं आती ?
    निराशाजनक स्थिति होती है जब साहित्यकार ऐसी बातें करने वालों का समर्थन इसलिए करते हैं कि उन्हें सत्तारुढ़ दल नापसंद है। ऊपर से वोट उस दल को डालकर आते हैं जिन्हें उनके पुरखे दिया करते थे क्योंकि यहां उनकी श्रद्धा का विषय हो जाता है … और देशहित? उसकी चिंता वो करें जो ऐसी विवेकहीन श्रद्धा पालने में विश्वास नहीं रखते … !!
    आज के संपादकीय में उठा विषय हमें आक्रोश से भर रहा है । कब हम भारतीय धर्म और राजनीति से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना शुरु करेंगे?

  21. हर बार की तरह यह संपादकीय भी एक अलग विषय पर हैं और अच्छा संपादकीय है। यह एक समाज विशेष की दूसरे समाज पर या दूसरे मत पर छा जाने की एक प्रक्रिया कह सकते हैं। यह भी उस धर्म का एक हिस्सा ही है, छात्रों की गलती नहीं है। खैर प्रिंसिपल का निर्णय ठीक था और उस पर न्यायालय की मोहर अपने आप में बहुत बड़ी बात थी।

    मैं बहुत ही विनम्रता के साथ कहना चाहूंगी कि भारत ने लोकतंत्र किसी से भी उधार नहीं लिया है। वैशाली के लिच्छवी संसार भर में पहले लोग थे जिन्होंने लोकतंत्र की स्थापना की, गणतंत्र की स्थापना की। हालांकि इन दोनों में भी कुछ अंतर होता है। यह छठी शताब्दी ई पू की बात है, आज की नहीं। अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो। यह इतिहास की किताबों में लिखा है और जगह-जगह पर यह उद्धृत भी है।
    यह भी कहना चाहूंगी कि भारत का इतिहास मात्र 1000 वर्ष का इतिहास ही नहीं है। जब दूसरे यहां हावी रहे। परंपरा बहुत पीछे जाती है। आज भी लिच्छावियों की संसद के निशान वैशाली में मिलते हैं।
    इतना ही कहूंगी वरना पूरे साक्ष्य और पूरी बात कहने में तो बहुत समय भी लगेगा और बहुत स्थान भी चाहिए होगा।
    भारत में लोकतंत्र किसी से उधार नहीं लिया है। भारतीय सभ्यता बहुत पुरानी सभ्यता है। दूसरी “कई” सभ्यताएं तब तक अपनी शैशवावस्था में ही थी जब भारत की सभ्यता अपने चरम पर थी। चरम पर आने के बाद हर सभ्यता का एक ढलान आता ही है। हो सकता है हम चरम पर आने के बाद कभी ढलान पर आए हों। परंतु ऐसा नहीं है कि हमने सब कुछ दूसरे लोगों से ही सीखा है। लोकतंत्र तो कतई नहीं तमाम विज्ञान, तमाम सांख्य दर्शन, दर्शन के मामले में तो हमारा विश्व में शायद सबसे पहला स्थान होगा ही आरंभिक दिनों में। बाद में दूसरे भी आए। छठी शताब्दी ई पू भारत में दर्शन और लोकतंत्र सभी खूब फला फुला।
    सादर

    • निर्देश जी, समस्या यह है कि आज हम लिपस्टिक, नेल पॉलिश, बॉल पेन, रेलगाड़ी, कार, जेट विमान, कंप्यूटर, मोबाइल फोन – जो कुछ भी इस्तेमाल करते हैं वो पश्चिमी देशों की देन है। हम कभी ‘थे’ मगर पश्चिमी देश आज ‘हैं’। वैसे मुद्दा यह है कि एक ही समस्या को दोनों देशों ने कैसे निपटाया । हार्दिक आभार।

  22. जितेन्द्र भाई: 1947 में जिन मुद्दों को लेकर भारत का विभाजन हुआ था, उस जैसी सथिती का कभी भी अन्त नहीं हुआ था और आज 77 साल बाद वो स्थिती भारत में फिर उमड़ आई है और majority पॉपुलेशन अपने ही देश में और भी ज़्यादा second class citizen बनती जा रही है। इस सब के लिये उस समय के और उसके बाद के और आजके नेता हैं जिन्होंने अपनी कुर्सी बचाने के निजी स्वार्थ के लिये पुष्टीकरण को अहमियत दी; देश कहीं भी जाये। भारत के और कितने टुकड़े करने हैं, कोई पूछे तो आजकल के इन so called देशभक्त नेताओं से?
    बाकी रहा भारत में या ब्रिटेन में स्कूलों में हिजाब पहनने का या फिर नमाज़ पढ़ने का या कोई न कोई नया बखेड़ा लेकर डीमाण्ड करना तो अब कुछ लोगों के लिये ऐसा करना एक फ़ैशन बन गया है। Just to prove my point, tax payer का चाहे लाख़ों ख़र्च हो या करोड़ों, ऐसे लोगों को तो अपनी civic responsibility का न तो कोई ज्ञान है और न ही कोई परवाह। यह बात बिल्कुल ठीक है कि जहाँ तक मज़हब का सवाल है यह हर नागरिक का एक निजी मामला है। जब मामला निजी है तो फिर इसको अपने घर तक ही सीमित रखा जाये न कि दूसरों के सिर पर थोपा जाये। बेचारे tax payer का पैसा क्यों बर्बाद कर रहे हो। इस मामले में मैं School management को बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने ठीक स्टैण्ड लिया है।

  23. आदरणीय,मेरी दृष्टि में विद्यालय ही एक ऐसा स्थान है जहां धर्म,जाति,वर्ण आदि को परे रखकर समान रूप से शिक्षा व नैतिक मूल्यों का बीजारोपण विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क में किया जाता है, जिसका पल्लवन उनके क्रमिक जीवन विकास के साथ ही उनके व्यवहार,आचरण में
    प्रदर्शित होने लगता है। इसका मूल उद्देश्य ही समाज हित या वैश्विक कल्याण है,यदि इस उद्देश्य के बीज को उर्वर मस्तिष्क मिला तभी यह पूर्णतः फलदाई होगा किंतु यदि इस उद्देश्य में कहीं से भी कोई बाह्य अवरोध उत्पन्न हुआ तो समाजविरोधी ही सिद्ध होगा। विद्यालय शिक्षण संस्थान है ना की धार्मिक, जहां विद्यार्थियों को मनुष्य बनना सिखाया जाता है,धार्मिक उन्माद का मोहरा नहीं। यही कारण है कि विद्यालय में और अनेक उच्च शिक्षा संस्थानों में भी ड्रेस कोड का प्रचलन है, जिसका अर्थ ही है, कि गरीब-अमीर, छोटे-बड़े का भाव किसी विद्यार्थी में उत्पन्न ना हो सभी समभाव से रहे, सभी विद्यार्थी समान है। इस संदर्भ में लंदन
    हाईकोर्ट,बीबीसी,टीवी चैनल्स व ब्रिटिश सत्ता रूढ़ विपक्ष पार्टियों द्वारा लिया गया निर्णय प्रशंसनीय है। जहाँ तक भारतीय टीवी चैनल्स का सवाल है, शायद जनता को बड़बोलापन ही अधिक सुहाता है,क्योंकि शालीनता( दूरदर्शन DD-1) बिकाऊ नहीं होती। आपके इस जग-सजग व देशकाल और परिस्थितियों को दर्शाते उत्कृष्ट संपादकीय के लिए आपको पुनः साधुवाद।

  24. संपादकीय में विचारणीय विषय को उठाया है .धर्म के नाम पर सार्वजनिक स्थानों/संस्थाओं को निशाना बनाया जाना अन्याय है, निर्णय सराहनीय है और वैश्विक स्तर पर पालन होना चाहिए . विवशता राजनीति संरक्षण की है . भारतीय मीडिया का विभिन्न विषयों पर जो अनर्गल और फूहड़ प्रदर्शन है उस पर अंकुश लगाना जरूरी है . अगर विषयों के गंभीर विश्लेषण की परंपरा विकसित हो सके तो समाज लाभांवित होगा .
    तेजेंद्र जी आप संपादकीय में नए नए विमर्श से पाठकों को नया दृष्टिकोण दे रहे हैं . हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं

  25. यह लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है इस दृष्टि से कि इस्लामी कट्टरता के विरुद्ध सहज न्याय वे भी कर रहे हैं जो असामान्य होकर इस्लामी जिद्दों को मानने की विधि संसार पर थोप रहे थे।आपका अभिनन्दन ऐसे विषय में डालने के लिए.

  26. जिस जिज्ञासा में मैने प्रश्न उठाए थे, उनके उत्तर पा कर प्रसन्नता हुई राजनंदन सिंह जी, आपका आभार और आपको धन्यवाद।

  27. हर काल की अपनी एक प्रकृति होती है और उस काल की व्यवस्थाएँ भी उसी के अनुरूप चलती हैं। कल, आज और कल में बहुत अंतर हो जाता है।
    क्या हम सदियों पूर्व के राजाओं की शासन व्यवस्था को आज के अनुरूप तौल सकते हैं?
    भले ही गणराज्य हो।
    उस काल के गणराज्य और वर्तमान के लोकतंत्र की शासन प्रणाली में जमीन आसमान का अंतर है।सोच, व्यवहार व्यवस्था व प्रणाली की दृष्टि से।
    मंत्रियों का चयन , कार्य क्षेत्र का बटवारा व परामर्श लेना उचित शासन व्यवस्था के आवश्यक अंग हर काल में रहे। और पथ प्रदर्शक की दृष्टि से गुरु परंपरा भी रही।
    वैसे 1000 साल तक गुलामी की जंजीर में रहने का कारण उस समय की परिस्थितियाँ थीं। क्षेत्रीय स्तर पर राजाओं का शासन था जिनको जीतना कठिन नहीं होता। मुट्ठी में ताकत के महत्व को समझ नहीं पाए तब।

    वर्तमान लोकतंत्र में जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए निर्णित होता है। इसकी कार्य प्रणाली को अतीत की कार्य प्रणाली से नहीं तौला जा सकता।
    मानव जाति के किसी काल में ऐसा नहीं हुआ कि परिवर्तनों की व सुधारों की आवश्यकता नहीं पड़ी हो। नए-नए कारण ,नए-नए क्षेत्र, नई-नई जरूरतें निरंतर बनती रहती हैं। अतीत में जो सुधार किए जाते हैं वे वर्तमान में दोष बन जाते हैं और उनमें फिर सुधार की आवश्यकता होती है, यही वास्तव में प्रगति का द्योतक है।
    इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि एक लंबी गुलामी के अंतर्गत हमारी जीवन शैली पर उनका प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी भाषा का आकर्षण और उसके प्रति लगाव इस बात का प्रमाण है। और अब तो रहन-सहन की दृष्टि से भी हमारी संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर रही है नौकरी के लिए हम विदेशों की तरफ उन्मुख हो रहे हैं।
    अच्छा जहाँ से भी मिले वहाँ से सीख लेना चाहिये। हमने अपना संविधान बनाया और उसके अनुरूप अपनी शासन व्यवस्था को संभाला है।
    जो अतीत में हो गया वह इतिहास है।
    अब न राजाओं का शासन है न ही कोई मंत्री किसी पूर्व कालीन राजाओं जैसा। मंत्रियों को अपने विभाग की ही खबर नहीं है।
    पर संसदीय प्रणाली आज की जरूरत है और सुधार की दृष्टि से इसे अपना लिया गया। बस बात इतनी ही है।
    हम आपके संपादकीय में से आयातीत और उधार शब्द को हटाकर इसे पढ़ रहे हैं।
    हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि हिन्दुस्तान में मीडिया या न्यूज चैनल्स कई बार विषय की गंभीरता को नहीं समझते हैं, सिर्फ अपने न्यूज़ चैनल की श्रेष्ठता और पहले नंबर पर बनाये रखने के लिए उस पर एक युद्ध का माहौल बना देत हैं।टी वी में कान फोड़ू बहस सुनियोजित जाहिलपने से अधिक कुछ नहीं लगती।
    हर स्कूल के अपने कुछ नियम, कायदे और कानून होते हैं पर उन सबसे ऊपर उनकी यूनिफॉर्म होती है तेजेन्द्र जी !वह एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की द्योतक है।अमीरी-गरीबी,ऊँच-नीच,जाति-धर्म, छोटे-बड़े; सभी भेदभाव से परे सिर्फ ज्ञानार्जन।
    इसीलिए सामूहिक प्रार्थना का प्रावधान है।यह स्वीकार्यता एडमिशन के साथ ही पालक के लिये मान्य समझी जाती है । फिर नमाज की जि़द निरर्थक विवाद का कारक रहा।
    इस पूरे मामले में एक बात जो हमें बहुत अधिक पसंद आई वह यह थी कि इतने बड़े कांड का इतना शांतिपूर्ण तरीके से निराकरण किया गया और कहीं किसी प्रकार का कोई शोर भी नहीं हुआ।
    प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह का निर्णय मान्य होना ही चाहिए था।
    फिर चाहे किसी को भी कुछ भी सोचना हो तो सोचा करें।
    एक बात यहाँ पर जो सबसे महत्वपूर्ण महसूस हुई जिसके लिए हम यह सोचते हैं कि भारत में भी इस बात पर प्रतिबंध लगाना चाहिए कि जो विषय देश में अशांति फैला सकते हैं और बेहद संवेदनशील हैं उन मुद्दों पर कार्यवाही करते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए की विषय की गोपनीयता को तब तक बनाए रखें जब तक कोई ठोस निर्णय तक पहुँचा न जा सके।
    हमारा स्कूल को एजुकेशन वाला था। इसलिए स्कूल में जब भी कोई छात्र-छात्राओं से संबंधित संवेदनशील मुद्दा उठता था उसका निराकरण भी हम लोग इतनी ही गोपनीता से करते थे कि काम भी हो जाता था और किसी को पता भी नहीं चलता था।और ऐसा होना भी चाहिये। इस तरह की सावधानियाँ न बरतने के कारण ही कई स्कूलों में आत्महत्या हो जाती हैं।
    इस तरह के अनावश्यक मतों पर सरकारी खर्च के तहत आम जनता का 150000 पाउण्ड खर्च होना वाकई अफसोसजनक है। यह पैसा किसी अच्छे काम के लिए उपयोग किया जा सकता था।
    इस निर्णय को भारतीय सरकार एक उदाहरण के तौर पर रखे,यह हमारी इच्छा है और ईश्वर से प्रार्थना भी कि भारतीय शासन को भी समझ आए कि जब भी देश हित की कोई बात हो या कोई संवेदनशील मुद्दा हो तो पार्टी- मतभेद से परे सब एकमत होने का जज्बा रखें। और जरूरत पड़ने पर खामोशी भी बनाए रखें।
    एक बेहतरीन संपादकीय के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया तेजेन्द्र जी।
    कुछ पारिवारिक परिस्थितियाँ इतनी गंभीर रहीं कि समय पर लिखना संभव न हो सका। क्षमा कीजिएगा।

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