आज साल का आखिरी दिन है। सूरज ने अपनी गर्माहट और रोशनी जल्दी ही समेट ली है। ठिठुरी हुई शाम ने ठंड की चादर ओढ़ी हुई है। गंगा किनारे टहलते हुए यह ठंड और भी घनी होती हुई दिखती है। बहता हुआ पानी इतना साफ है कि अंधेरे में भी उसकी मौजूदगी साफ-साफ महसूस की जा सकती है। बह रहे पानी के साथ अपने अक्स को बेतरतीब होते देखना भी विचित्र है।
हरिद्वार में मायापुर पुल के पास हाईकोर्ट गेस्ट हाउस की हाई मास्ट लाइट की चमक पानी में बिखरी हुई है। रोशनी की तरफ देखो तो वह चांदी-सी रूपाभ दिखती है और पानी पर उतरते हुए उसकी आभा सोने जैसी लगने लगती है। बराबर में ही भगवान शिव की बहुत ऊंचाई पर लगाई गई प्रतिमा पूर्ण ध्यान की अवस्था में है। उनके चेहरे के भाव हर तरह के चिंतन से परे हैं।
लगता है, किसी और दुनिया का व्यक्ति इस धरती पर आ बैठा है। इतना कुछ घटित हो रहा है और शिव निर्लिप्त हैं। पानी शांत बह रहा है, लेकिन पुल के हिस्सों से टकराने की आवाज साफ-साफ सुनी जा सकती है। यह ध्वनि कल-कल जैसी तो नहीं है, पर जब गति किसी ठोस चीज से टकराती है तो उस टकराहट, बल्कि विरोध के स्वर को स्पष्ट सुना जा सकता है।
घाट के पास में कुछ युवा कलाकार कृत्रिम रोशनी में पौराणिक कथाओं को चित्रित कर रहे हैं। उनकी कूची से देवताओं और उनकी शक्तियों की आभा बहुत परिपूर्ण ढंग से उभर कर आ रही है। दूसरे हिस्से में अधूरे पड़े घाट पर दो लोग ध्यान की स्थिति में बैठे हैं। उनमें से एक व्यक्ति बीच-बीच में अपना फोन देख लेता है, लेकिन दूसरा बिना हिले काफी देर से एक ही मुद्रा में स्थिर है। हालांकि, ठंड दोनों को लग रही है। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि किसका ध्यान कमजोर है और किसका ध्यान परिपक्व है।
मन के भीतर पैदा होने वाली उधेड़बुन से मुक्ति के लिए गंगा का किनारा अक्सर आकर्षित करता है, लेकिन यहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। बस, इतना जरूर बदलता है कि बाहर बहुत कठोर घेरा बनाने वाले चित्र इन घाटों पर अपना असर नहीं दिखाते।
यहां जो चित्र हैं, उसमें मनुष्य के मन में दबी हुई हजारों-हजार कहानियां हैं। यहां उन कहानियों से उपजे हुए निष्कर्ष, उन कहानियों के अच्छे बुरे पात्र, सभी कुछ एकदम अलग भाव भूमि पर खड़े दिखाई देते हैं। भावों को संभालने वाली भूमि निर्बन्ध हवा की नींव पर टिकी है। हर पल अस्थिर।
यहां लगता है, सतत बहता हुआ यह पानी मन को अपने साथ बांध लेता है। इसलिए ज्यादा देर तक देखते रहने पर डर लगने लगता है। जैसे, यह अपने साथ बहाकर ले जाएगा। अचकचा कर ध्यान हटाता हूँ, लेकिन पानी का प्रवाह उसी लय और गति के साथ जारी रहता है। तब महसूस होता है कि इस काव्यात्मक गति से डर के पीछे कोई छिपी हुई वजह तो जरूर मौजूद है।
बाहर की दुनिया में हम सब पल दर पल बेतरतीब दौड़ रहे होते हैं और फिर उस आंतरिक भगदड़ को व्यवस्थित करना चाहते हैं। पर मूल सवाल वही रहता है कि क्या कुछ भी व्यवस्थित हो पाता है ? और जब यह व्यवस्थित होने की तरफ बढ़ता है तो फिर हमारा डर इतना सघन और विराट कैसे हो जाता है!
कुछ देर पहले तक आसमान तारों से भरा हुआ था, लेकिन अब उन तारों के नीचे कुहासा छा गया है। इंसानी निगाह वहां तक नहीं जा पाती कि उस कुहासे के पार देख सके। ठीक यही स्थिति मन के भीतर भी तो होती है। वहां भी तारे चमक रहे होते हैं। उनके ऊपर भी कुहासे का एक आवरण होता है लेकिन हम देख नहीं पाते कि रोशनी कहां छुपी हुई है! न दिखने से यह तय नहीं होता कि रोशनी नहीं है या उसका अस्तित्व नहीं है।
गंगा से कुछ ही दूरी पर हाईवे से कई तरह के वाहन गुजर रहे हैं। बीच-बीच में उनके हॉर्न और तेजी से ब्रेक लगने से पैदा होने वाली आवाज गंगा की गति के साथ एकसार हो जाती है। तब इस सब से चिढ़ नहीं होती। लगता है कि सब कुछ इसी रूप में हजारों हजार साल से होता रहा है।  जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ रहा है, तट पर खड़े पेड़ों का एकाकीपन भी बढ़ता हुआ दिखता है। पत्तियां शांत है।
किसी तरह की कोई हलचल नहीं है। पक्षी बहुत पहले ही अपने घोंसलों में छिप गए हैं। उनकी मौजूदगी का कोई एहसास आसपास नहीं है। दूर से अनेक बिलबोर्ड चमक रहे हैं। उन पर अलग-अलग तरह की भौतिक चीजों के विज्ञापन लगे हुए हैं। उनकी रोशनी हर प्राकृतिक चीज पर भारी पड़ रही है। हम जितना सोचते हैं, विज्ञापनी बोर्ड  उससे ज्यादा चमकदार दुनिया दिखाते हैं और हम सब देखते हैं।
किनारे से थोड़ी दूर पर दिन भर के थके हुए भिखारियों ने ठंड से मुकाबले के लिए आग जलाई हुई है। घर वापसी के क्रम में थोड़ी देर मैं भी उस आग के पास ठहर गया हूं। वे मुझे अजनबी की तरह देखते हैं और ठीक इसी तरह से मैं भी उन्हें देखता हूं। भिखारियों ने कुछ कुत्तों को भी साथ में बैठाया हुआ है। मानो, वे भी परिवार का ही हिस्सा हैं। कोई भी पराया नहीं। मेरे अलावा कोई अजनबी नहीं।
बड़े आकार के एक खाली पाइप में एक भिखारी (शायद भिखारी कहना ठीक नहीं है, कोई मजदूर भी हो सकता है। उसे इंसान कहना ज्यादा ठीक होगा।) पहले से ही लेटा हुआ है। पाइप के भीतर की यह जगह भी कितनी कीमती है और जिस जगह पर हम रात बिताते हैं, कई बार घर के भीतर की वह जगह निरर्थक और मूल्यहीन लगने लगती है। दोनों के बीच में केवल निगाह का ही अंतर है।
गंगा अद्भुत संसार रचती है। वह निर्मल रूप में बह रही है और उसके आसपास की दुनिया बहुत अलग है। इस दुनिया में मेरे जैसा तमाम उलझनों का शिकार व्यक्ति है, यहां नरम मुलायम गद्दे पर गेस्ट हाउस में सोए हुए उच्च पदस्थ लोग हैं, यहां ध्यान में बैठे लोग हैं, और भी बहुत कुछ है। इन सबके बीच, हर बात से असंपृक्त होकर गंगा बह रही है। घर की तरफ आते हुए लगता है, मन का कुछ हिस्सा गंगा के किनारे पर ही छूट गया है। कल फिर उसे समेटने जाऊंगा और कल फिर इसी तरह अधूरा लौटूंगा।

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