वर्तमान में जिस साहित्य की रचना हो रही है, उसमें आधुनिकता विद्यमान है, एक ओर जहाँ साहित्य में विमर्श के रूप में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श के साथ थर्ड जेन्डर की बात को हर तरह से रख साहित्य में लेखन के माध्यम से जिस प्रकार विचारों को पाठकों के सामने परोसा जा रहा है वही डॉ. सतीश चतुर्वेदी ‘शाकुंतल’ द्वारा काव्य की धारा प्रवाहित की जा रही है। यह साहित्य चिंतको, मनीषियों और साधको को लिए आनन्दित करने वाला काव्य है। पद संग्रह ‘कुंज कुंज विहरत मन मेरौ‘ ब्रजभाषा में रचित पद कृष्णकाव्य धारा की प्रतीती कराते है। पदों को डॉ. चतुर्वेदी ने नैतिक मूल्य, भक्तिभावना, सेवाभाव और दास्य भाव में इस तरह गूंथा है कि वह भाषिक सहजता, शिल्पगत वैशिष्टय, काव्यामकता और औदाव्य भाव समेटे हुए पाठक के मन को भक्तिधारा के प्रवाह में बहा ले जाते है जैसे –
‘‘हेरि हम हारे। संसार।
तुम सौ नहिं हितैषी पायौ, हरै दुखन कौ भार।।
तुम में जग में अंतर भू-नभ जैसौ है करतार।
ये मैले पानी की पोखर, तुम सुरसरि की धारा।
यानें दै एहसान दबाए सोऊ दियौ उधार।
तुम हो ऐसे देवनहारे गिनत नहीं उपकार।
जगदातप में नाम तिहारौ सीत पवन फुहार।
शांकुन्तल यदि नाम-नाव पै है ज्ञाइ बेड़ा पार।‘’
इस प्रकार कवि कहता है कि प्रभु इस संसार से हम हार गए तुम्हारें जैसा हमारा हित करने वाला कौन ? वह ईश्वर का गुणगान यहाँ सुर, तुलसी की भाँति करते हुए अनुनय विनय के साथ ईश्वर की उदारता को सहजता से रख रहें। वर्तमान में जो मकड़जाल, फरेब एक दूसरे के प्रति बुना जा रहा है वहाँ मनुष्य कुष्ठा, ईष्या जैसे भावों से लतपत दूसरे का सिर्फ बुरा करना चाह रहा है, ऐसे में इस प्रकार के पद भाक्ति से जुड़े पाठकों की चितवृति में प्रेरणा का संचार करेगें। अपने पदों के माध्यम से वह आज की युवा पीढ़ी की स्थिति का वर्णन इस प्रकार करते है-
‘‘संवरौ ब्रज कूँ है ब्रजराज।
कितने कंस आई के देखौ, करें देस पै राज।
माता-पिता छोड़े एकाकी चार टका के काज।
संतति बसी विदेश जाई तिन दूर तलक नहीं लाज।
कंसन भेजे कितने राच्छन खाए जाएँ समाज।
लोग डरे-डरे घर में बैठे-गिरै कहॉ पे गाज।।
कर्ण-थार व्यापारी सारे, डूबै नीति-जहाज।
बची चिरैयॉ तनिक धरम की, उनकों हेरे बाज।
द्वापर युग तें ज्यादा लग रई तुमरी जरूरत आप।।‘’
इस प्रकार ‘शाकुंतल’ जी की मनोवृति अपने आराध्य भगवान को आज की परिस्थिति से परिचित करा रहे है, साथ उन्हें पुकार रही है।
इनके पद सूरदास के सूरसागर सी छटा बिखेरते हुए भक्ति की ओर लेकर जाते है तथा पाठक को भक्ति रस में गोते लगवाते है ‘शाकुंतल’ जी नाम स्मरण कि महिमा बताते हुए लिखते है –
जगत में अभय करै हरि नाम।
नाम लिए तें मन सुख पावै, मिट जावै कुहराम।।
जल-कन दैके रविहिं, धरा ले पावस-सौ परिनाय।
मालामाल करें प्रभु तैसेई लैके नाम छदाम।।
रामनाम है ऐसी पूँजी, सारै सारे काम।।
समर्पण का भाव ईष्वर प्राप्ति का साधन है, समर्पण लक्ष्य की पूर्णतः है। यहाँ कवि साहित्य में सहित भाव को लेकर आगे बढ़ रहा है। यही हमारे साहित्य की विषेषता है। हमारे शास्त्र इनके अनुपय उदाहरण हैं, श्रीमद् भगवत गीता के श्लोक गीता किसी जाति वर्ण का विषेष ग्रंथ नही है। वह तो सब का हित भाव लिए मानव को प्रकाशित करने वाला पुंज है। जिसमें ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की भावना निहित है। इसी प्रकार चतुर्वेदी जी की कृति ‘कुंज-कुंज बिहरत मन मेरो‘ मे वह संसार के मोह-माया की ओर दृष्टि डालते हुए कहते है-
‘‘माया काहू की न भई।
पली-बढ़ी काहू के घर में काहू संग गई।।
फाँसे अपने मोह-जाल में, सारी उमरि लई।
लोक और परलोक नसाए, चुपकें सरकि गई।
याके कारन जग में सब जन, घूमत ज्यों चकई।
जनम गँवायौ, ढेर लगायौ, रती संग न गई।।‘’
यहाँ ‘शाकुंतल’ जी ने ज्ञान बोध के माध्यम से मानव को पासा के जालचक्र के बारे में संदेश देकर सचेत किया कि माया लेकर कोई नहीं जाता फिर क्यों हर व्यक्ति माया के लिए तमाम प्रपंच कर रहा है। कुछ इसी प्रकार कबीर ने भी कहा था –
‘‘माया मन की मोहिनी, सुर नर रहे लुभाय।
यह माया सब खाईया, माया कोई न खाय।।‘‘
अर्थात धन मन को सर्वाधिक मोहित करता है, देव हो या मानव कोई इसके प्रभाव से बच नहीं पाता है और इसके लोभ में पड़ जाता है माया का लोभ सभी को समाप्त कर देता है सच्चाई, उदारता, सहयोग आदि भाव को तिलांजली देकर मनुष्य को दुष्ट प्रवृति की ओर ले जाता है शाकुंतल जी के पदों में कबीर की झलक दिखाई देती वही एक ओर फिर सूर की गोपियों जैसे टेर देखने मिला है
मन कौ पंथ बुहारूँ रघुवर। रोजई उठत सबेर।।
गुरू लगाए, मैनें बढ़ाए, पके भजन के बेर।
तिनकौ स्वाद तौ तुमही जानौ यासों लगावत तेर उमरि।
लै गयौ काल-महाजन नब्बे नौ के फेर।
तुम तौ हो सरकार हमारी, फेरौ दिन के फेर।।‘‘
आज वर्तमान में बालिकाओं महिलाओं के साथ जो दुष्कर्म हो रहे है और असुरक्षा की भावना हर स्त्री को भयभीत कर रही है उसी पर उनका ये पद वर्तमान स्थिति से प्रभु को परिचित करा रहे है और दुःख व्यक्त करते कहते है कि-
‘‘बिगारौ दुष्कर्मन संसार।
इनके कारन मचौ जगत में भारी हा-हाकार ।।
अनुज वधू, सतनारि, बहन के नाते कौ न विचार।
नवदुर्गा में जिन्हें जिमापें उनके संग व्यभिचार।।‘‘
इस प्रकार ‘शाकुंतल’ जी सामाजिक विरूपताओं की ओर संकेत करते है। वह समाज की सभी समस्याओं की ओर देखते हुए जगत मे व्याप्त वर्तमान व्यक्तित्व के गिरते नैतिक मूल्यों पर चर्चा करते हैइस प्रकार उनका काव्य संग्राह स्वयं के लिये, भक्ति का मार्ग न होकर सामाज और देश की चिंता में ईश्वर को लिखी हुई पोथी के रूप में दिखायी देता है। समाज की दशा ओर दिशा देश उनका मन त्राहि-त्राहि करते हुए कहता है-
‘‘जगत सों क्यों किन्ही हम आस?
उतनों-उतनों दूरि भयौ ये, जितने हम गए पास।।
टुकड़ा डारि डंड सिर मारै, टूट-टूट विश्वास।
स्वारथ-हित सब मीठे बोले, कोई न काऊ कौ खास।।‘’
वह आत्म कल्याण के साथ समाज कल्याण की बात को भी रखते है। उन्होंने सहज सुलभ चर्चाओं, क्रियाओं को देखकर अत्यन्त स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक और मनोहारी चित्रण शाकुंतल जी ने अपनी तीव्र दृष्टि से किया। हरि दर्शन की प्यासी उनकी दृष्टि बार-बार प्रभु महिमा की ओर अग्रसर होती है-
‘‘बिहारी! बिहरौ या मन में।
मधुवन, निधिवन, वृंदावन सब करि देउँ आँगन में।।
जग की बहुत सुनी अब ‘गोविन्द-गोविन्द‘ स्रवनन में।
रसना कृष्ण रहै, तृष्णा ताजि, लोटूँ चरनन में।‘’
दूसरी ओर वह राम का स्मरण करते हुए रामभक्ति महिमा की ओर भी पाठक का ध्यान आकर्षित करते है। वह युवा पीड़ी के आज के आचरण से स्तब्ध एवं निराश है तथा सामाजिक चिंतन की ओर अग्रसर होते हुए राम के पराक्रम, त्याग, निष्ठा, दया, प्रेम, को याद करते हुए कहते है-
‘‘हमारे रघुनंदन प्यारे।
भक्तन-हित कौसल्यानंदन हाथ धनुष धारे।।
जैसौ अवध उन्हें वन तेसौई, ऐसे जग न्यारे।‘‘
सामाजिक प्ररिप्रेक्ष्य की दृष्टि से संस्कृति चेतना सबसे महत्वपूर्ण है। भारतीय संस्कृति की महिमा का गुणगान केवल भारतीयों ने ही नहीं दुनियाँ भर के लोगों ने अत्यंत आष्चर्य के साथ किया है। और दृष्य कुछ और है इसका दुःख कवि के हर पद में व्यक्त हुआ है। इस प्रकार शाकुंतल जी के काव्य मे भक्ति के साथ जो सामाजिक दृष्टि का रूप देखने मिला वह अन्यत्र दुर्लभ है।
वह तुलसी की भांति विनयपत्रिका के वाचक, विनयीकर्ता के रूप में भी अपना संदेश राम (प्रभु) तक पहुँचाते है। उन्हें शायद हनुमान जी ने ही यह प्रेरणा दी और तुलसी की तरह उन्होंने इसे पाठक रूपी साधको को समर्पित कर दिया।
‘‘पवनसुत! सरे काज सरे।
तुमहीं दयौ सहारौ हमकूँ जब-जब जगत डरे।।
सीख दई पुचकारि बुलायौ पसुवत हम विचरे।
लाए हमें बचाइ कुपंथन, काँटे बहुत भरे।।
तुम्हरौ नाम सुनत जीवन के सब संकट बिडरे।
याद करत ही कृपा तिहारी रोम-रोम सिहरे।।
जस और मान तुम्हारे कारन, नित-नित करत खरे।
शाकुंतल’ बचपन तें अब लों तुम्हरी सरन परे।।‘‘
कवि ‘शांकुलत’ जी के पास भावुक भक्ति के साथ आध्यात्मिक जीवन दृष्टि और मन है। उनकी भक्ति में भक्तिधारा के कवियों जैसी सार्वभौमिकता है। वह एक तरफ कृष्ण के उपासक हो जाते है वही राम के गुणगान के साथ सीता और राधा को भी विनयी भाव से पुकारते है। उनके काव्य में दोहा, कुण्डलिया आदि के साथ भाषा में तन्मयता, भावुकता, भाषिक सहजता के साथ तारतम्यता पाठक के मन को प्रथम पद से अंतिम पद तक बांधे रखेगी।इस प्रकार हम कह सकते है कि यह कृति भक्ति और समाजिक चिंतन की जुगलबंदी है। हिन्दी साहित्य में यह कृति निश्चित ही एक नई प्रेरणा के साथ स्वीकार कर पाठकों को भक्ति रस से सराबोर कर देगी।