पुस्तक – ‘ये इश्क़ है ’  ( कविता संग्रह ); रचनाकार – वन्दना यादव, प्रकाशक – अद्विक पब्लिकेशन, दिल्ली, मूल्य – ₹199/- मात्र
हाल ही में वन्दना यादव द्वारा सृजित काव्य संग्रह – ‘ये इश्क़ है’ प्रकाशित हुआ। दिल्ली के अद्विक पब्लिकेशन ने इसे सुंदर किताबी जामा पहनाया है। जितना लुभावन शीर्षक है, उतना ही आकर्षक मुखपृष्ठ भी है जो सिरजना कौर के सिद्ध हाथों से मुखरित हुआ है। सबसे पहले तीनों का हार्दिक अभिनंदन।
अपनी बात को खत्म करते हुए वन्दना जी अंतिम पंक्तियों में लिखती हैं – ‘ये इश्क़ है’ – अब आपका हुआ। अर्थात पाठकों को पुस्तक के इश्क़ में विहंगम करने के लिए समर्पित करती हैं। भूमिका के तौर पर वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, नरेंद्र पुंडरीक और कवयित्री किरण यादव ने अपना स्नेह बरसाया है। अब बारी पाठकों की है।
‘ ये इश्क़ है ‘ शीर्षक पढ़ते ही स्वाभाविक रूप से कई तरह की भाव- भावनाएं मन में तरंगित होने लगती हैं, जिसकी कसौटी लौकिक और अलौकिक हो सकती है। जी हां, इश्क़ की इन्हीं लहरों पर सवार होकर 93 कविताएं अपनी रूहानी तान छेड़ती हैं। कई रचनाएं पहली नज़र में सतही और निरागस लगती हैं मगर अंतर्मन से देखने पर प्रेम की पराकाष्ठा को छूती नज़र आती हैं। ये इश्क़ उस बृहत प्रेम का प्रतीक है, जिसे शब्दों और सीमाओं में बांधना कठिन है। ये क्षणिक भाव- भावनाओं और शृंगार रस से परे वो जड़ें हैं जो बहुत गहराई तक जाती हैं और इबादत की मंज़िल खड़ी करती हैं। इश्क़ अर्थात प्रेम– प्यार, मोहब्बत जो अपने आपमें बड़ा ही व्यापक और गहन अर्थ समेटे हुए है।
प्रेम जीवन का अत्यंत ही महत्वपूर्ण घटक है। इसे पाने के लिए लोग सकारात्मकता एवं नकारात्मकता की कई हदें पार कर जाते हैं। इसे व्यक्त करने की सबकी अपनी-अपनी शैली होती है। अकसर लोग इसकी अभिव्यक्ति में गज़ल और शायरी विधा का प्रयोग करते हैं। मगर वन्दना जी इसे मुक्त छंद में कलात्मक- सौंदर्य बोध के साथ प्रस्तुत किया है जिसे अनूठा प्रयोग भी कह सकते हैं। कवयित्री इश्क़ में है। उसका इश्क़ उथला पानी नहीं है बल्कि समुंदर की गहराई है। वह वेलेंटाइन वाली बात कहीं नहीं करती, बल्कि संस्कृति और प्रकृति के सहारे सूफ़ियाना अंदाज में बड़ी सादगी से दिल, दुनिया, जहां की बात करती है। क्योंकि उसे इश्क़ है – बचपन की गलियारों से, गाँव-घर आँगन चूल्हे, खेत-खलिहानों से, प्रकृति, पहाड़ों-पगडंडियों से, अपने घर-परिवार, माता-पिता, बेटियों और पति से, पुरानी चिट्ठियों, मित्रों और सहेलियों के रस रंग से, पठन-पाठन और शब्दों के सृजन से। उन तमाम मीठी यादों और उनके इश्क़ के गिरफ़्त से वह रिहा नहीं होना चाहती। बनिस्बत पार कर लेना चाहती है भवसागर इन्हीं यादों के सहारे। बानगी के तौर पर ये पंक्तियां देखें – ‘एक दिन खाली बैठे / जब जी रही थी बीते लम्हे / एक मुस्कान–सी फैल गई चेहरे पर / उन पलों में / पूछने पर मेरे अपनों के – क्या हुआ? / जवाब था – कुछ नहीं! / मैं मुस्कुरा देती हूँ / इस कुछ नहीं सी मुस्कुराहट में / दफ़न हैं ना जाने कितने रिश्ते।’ ये तेवर हैं इन कविताओं के।
इश्क़ की ये वो शक्तियां हैं जो कवयित्री को जीवन में आगे बढ़ने का हौसला देती हैं और दुनिया से बाख़बर होते हुए भी बेख़बर रहने का हुनर सिखाती हैं। बीते लम्हों की कसक भले साथ हैं पर उन्हें याद करते हुए वह जीने का संबल भी प्राप्त करती हैं कुछ पंक्तियां देखें –     ‘मन मयूर झनझना उठा है मदमस्त मस्ताना सा / इठलाया बौराया – सा / बावरा भीज-भीज थिरकने लगा है / इस बार आशाओं की चादर में / सपनों की गागर में / डूबने लगा है मन मेरा / सपनों की– अपनों की चाह में।’
प्रेम व्यक्त करने की अपनी एक गरिमा होती है, एक पर्दादारी होती है, जिसमें शिद्दत की गहराई और असीम ऊंचाई होती है। पहाड़ को प्रतीक बनाकर कवयित्री लिखती है – ‘इस बार जब मैं मिलने गई थी उससे / वह पूछता रहा हाल, बार-बार ! / कैसे बिताई बरसातें? / सौंधी ख़ुशबू जब आई माटी की / जब बही नदियां में पानी और घिरी घटा सुहानी / जब चहचहाए पंछी / कहीं कूक सुनी कोयल की / तब।।, सच कहना क्यूं भीग गई थीं पलकें तुम्हारी? /’ इस तरह की और भी कई कविताएं हैं जो दिल को अंदर तक छू लेती हैं। इतना आसान नहीं होता है प्रेम के आसमान को छू लेना! संग्रह की कुछ कविताएं हमें अपने बीते दिनों की यादों में सराबोर कर देती हैं। अपना बचपन किसे प्यारा नहीं लगता? किसे अपनी बचकानी हरकतों से इश्क़ नहीं होता ? हम कितने भी बड़े क्यों ना हो जाएं लेकिन अपने भीतर के बच्चे को जो ज़िंदा रखता  है, वही खुशदिल इंसान होता है। हंसते, खिलखिलाते, चहकते गुलाब-सा होते हैं ऐसे इंसान। कवयित्री को अपने बचपन के दिनों से हद से ज़्यादा इश्क़ करती है इसलिए ‘छोटा- सा बचपन’ जो कि संग्रह की बड़ी ही प्यारी रचना है, उसमें सुहानी यादों का जिक्र करते हुए लिखती है – मेरे अंदर आज भी एक छोटा- सा बच्चा है / वो झिझकता है, पिछड़ता है / मां का आंचल छूट जाने से डरता है / शरारतें करता है, आग में कूदता है/ वादियों में चलता है / बहता है नदी की धारा में / पानी में कंकड फेंकता है…/ सुबह से शाम और शाम से सुबह तक / सपनों में रहता है / मेरे अंदर आज भी…/ इस इश्क़ के आगे दुनिया का हर नशा फीका लगता है।
इश्क़ में हारकर जीतना ही सफलता का फलसफ़ा होता है। ‘ज़ायक़ा’ कविता में कवयित्री लिखती है – उस रोज़ जब / चूल्हे पर सिंक रही थी रोटी / और मैं / जल्दबाजी में छोड़ आई थी उसे बिना चखे / उसका ज़ायक़ा / आज भी ताज़ा है ज़बान पर / उतना ही / जितनी तवे पर सिंकती / कंडों पर फूलती / रोटी थी / उस दिन। कुछ नहीं बोलती है यह कविता, पर अपने भीतर एक गहरा अर्थ लिए चलती है। प्रेम पाना नहीं बल्कि खोना ही उसकी नियति है। इसमें मंजिल की बजाय खुरदुरे रास्तों पर चलना ही बड़ा सुखदायी होता है। बड़े-बड़े शायरों नें प्रेम को अपनी ज़ुबान दी है। वन्दना जी की अपनी विशेष बोली-भाषा है।
इस तरह संग्रह की कई कविताएं हैं जो इश्क़ की रवानगी पेश करती हैं। बानगी के तौर पर संग्रह की – ‘यूँ ही सा ख़याल, दरवाजा और इंतज़ार, पगडंडी, दोपहर बाद की धूप, एक क़तरा, हम-तुम, मन मेरा भीगने लगा है, पंखुड़ियां, चाय का प्याला, सीढ़ियां, लम्हे, बंद दरवाजों वाला घर’ आदि को पढ़ा जा सकता है। शाम होने लगी है – संग्रह की अंतिम और बड़ी कविता है जो भावुक कर देती है। सुबह, दोपहर, शाम और उसके बाद अंधेरी रात की दस्तक। जीवन के इस संध्या छाया में हर इंसान पीछे मुड़कर देखता है और अपने आधे-अधूरे, पीछे छूट गए ख़्वाबों को एक नया आकार देना चाहता है। जैसे कवयित्री पुन: उन आरज़ुओं को जीते हुए लिखती है – दिन ढल चुका, शाम होने लगी है / जो भी दौड़- भाग थी, अब थमने लगी है / कुछ देर विश्राम कर, अपने को ताज़ा दम कर लूँ / खींचू एक लंबी सांस, अपने से बात कर लूँ / थामूँ मैं हाथ अपना, खुद को बांहों में भर लूँ/ आंखें मूंद कुछ देर, नज़रें ख़ुद से ही दो चार कर लूँ…/ इन पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री ने अपने नकाब को उतारकर स्वत्व को पेश किया है।
इश्क़ रूपी मयावी जाल को बेहद ही सरल और सहज शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, इसे संग्रह को पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है। ये कविताएं अपने भीतर कई प्रतीकों और भाव सौंदर्य को समेटे हुए हैं। इन्हें समझने के लिए पाठकों को अपने भीतर उतरकर गहराई में गोते लगाना होगा। तब किसी को भी इस पुस्तक से इश्क़ हो जाएगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।
पुस्तक परिचय / समीक्षक: डॉ. रमेश यादव, मुंबई।
फ़ोन – 9820759088 / 7977992381

10 टिप्पणी

  1. समीक्षा हो तो ऐसी कि बरबस ही, तुरन्त, यथासंभव शीघ्र पढ़ने को मन आतुर हो जाए। वंदना जी की लेखनी से वाकिफ हूँ, अब पढ़ना अवश्यम्भावी हो गया। धन्यवाद इतनी उत्कृष्ट लेखनी पर इतनी उत्कृष्ट समीक्षा के लिए।

  2. “Hooray! We just couldn’t be happier for you!”
    “It makes me so happy to think about your
    book promotion यह इश्क है. It couldn’t have come to a more deserving person . Keep it up wish you more success.

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