जो बाइडेन (साभार : ABC News)

एक बात जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया, वो मेरे दिमाग़ को कुरेद रही है। दरअसल हुआ कुछ यूं है कि पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से कोरोना ने अमरीका और युरोप की रीढ़ की हड्डी को तोड़ डाला है। इन देशों की सरकारें अपने यहां के कर्मचारियों को तन्ख़ाह देने में भी कठिनाई महसूस कर रही हैं। स्टोर, मॉल, सुपर मार्केट बन्द हो रहे हैं। ऐसे में भला अमरीका के पास इतने पैसे कहां बचे होंगे कि वह लोकतंत्र के चक्कर में अफ़ग़ानिस्तान पर करोड़ों डॉलर स्वाह करता रहे! 

आज पूरे विश्व में अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडेन की थू-थू हो रही है। जिस लचर तरीके से अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से निकला है विश्वास ही नहीं होता कि अमरीका विश्व की सुपर-पॉवर है। अमरीका के साथी नेटो देश और ख़ास तौर से ब्रिटेन जो बाइडेन से सख़्त नाराज़ हैं।
बाइडेन ने जिस आसानी से तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा जमा लेने दिया, यह किसी को समझ नहीं आ रहा। आख़िर दोहा मीटिंग में क्या-क्या बातें हुईं… क्या-क्या शर्तें तय हुईं किसी को भी मालूम नहीं। 
बाइडेन हर बात का ठीकरा डोनॉल्ड ट्रम्प के सिर पर फोड़ रहा है कि सेना की वापसी तो उसका पूर्व राष्ट्रपति तय कर गया था। मगर डोनॉल्ड ट्रम्प ने भी जो बाइडेन की ख़ासी आलोचना की है। 
डोनाल्ड ट्रंप ने मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन पर तीखा वार किया है. डोनाल्ड ट्रंप ने मौजूदा सरकार की अफगान नीति को फेल करार दिया, साथ ही उन्होंने पूछा कि जो बाइडेन अफगानिस्तान से आतंकियों को अमेरिका तो नहीं ला रहे हैं।
एक बयान जारी कर डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि जो बाइडेन ने अफगानिस्तान को आतंकियों के हवाले कर दिया और सेना को इस तरह वापस बुलाकर हजारों की जान खतरे में डाल दी। डोनाल्ड ट्रंप ने सवाल किया कि अभी तक अमेरिका ने जिन 26 हजार लोगों को निकाला है, उनमें से सिर्फ 4 हजार ही अमेरिकी हैं।
वर्ष 1997-2007 के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर ने जो बाइडेन के निर्णय की आलोचना करते हुए  कहा, “इसी कारण से लड़कियों की शिक्षा और जीने के स्तर में हुए सुधार समेत उन सभी चीजों पर पानी फिर गया, जो पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में हासिल की गई थीं। अफगानिस्तान और उसकी जनता को अकेला छोड़ देना दुखद, खतरनाक और गैर-जरूरी था, जो कि ना उनके और ना ही हमारे हित में है। दुनिया अब पश्चिम के रुख को लेकर अनिश्चित है क्योंकि यह स्पष्ट है कि अफगानिस्तान से इस तरह से हटने का निर्णय रणनीति से नहीं बल्कि राजनीति से प्रेरित था।” 
नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था, “यदि आप 100 शेरों की एक सेना बनाते है जिसका सेनापति एक कुत्ता है तो युद्ध में सारे शेर कुत्तों की मौत मारे जाएंगे। लेकिन यदि आप 100 कुत्तों की एक सेना बनाते है जिसका सेनापति एक शेर है तो सारे कुत्ते युद्ध में शेर की तरह लड़ेंगे।”
एक बात जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया, वो मेरे दिमाग़ को कुरेद रही है। दरअसल हुआ कुछ यूं है कि पिछले लगभग डेढ़ वर्ष से कोरोना ने अमरीका और युरोप की रीढ़ की हड्डी को तोड़ डाला है। इन देशों की सरकारें अपने यहां के कर्मचारियों को तन्ख़ाह देने में भी कठिनाई महसूस कर रही हैं। स्टोर, मॉल, सुपर मार्केट बन्द हो रहे हैं। ऐसे में भला अमरीका के पास इतने पैसे कहां बचे होंगे कि वह लोकतंत्र के चक्कर में अफ़ग़ानिस्तान पर करोड़ों डॉलर स्वाह करता रहे!
ब्रिटेन का हाल यह है कि डेबेनहैम्स जैसी डिपार्टमेण्ट स्टोर की बड़ी चेन पूरी तरह से बन्द हो चुकी है। सेलफ़्रिजिस स्टोर जो कि लंदन की ऑक्स्फ़र्ड सर्कस की नाक और पहचान था वह भी बिकने की कगार पर है। जॉन लुईस जैसे उच्च श्रेणी के स्टोर पर भी कोरोना के बादल छा रहे हैं और उनकी बहुत सी शाखाएं बंद की जा रही हैं। छोटे बिज़नस वाले तो आत्महत्या पर उतारू हैं।
जब नौकरियों में छंटनी हो रही हो और व्यवसाय बंद हो रहे हों, ऐसे में किसी भी देश के पास अतिरिक्त धन कहां से निकलेगा जो अन्य मुल्कों में अपने फ़ौजियों को मरवाने पर ख़र्च कर सके। नैटो देशों का हाल अमरीका से कुछ अलग नहीं है।
मगर बात वहीं आ कर रुक जाती है कि क्या जो बाइडेन को इतनी हफरातफ़री में अपना सारा फ़ौजी असला, गाड़ियां, हेलीकॉप्टर और विमान ऐसे छोड़ कर रणछोड़ दास की तरह ग़ायब हो जाना चाहिये था। ध्यान देने लायक बात यह भी है कि तालिबान ने अमरीका को 31 अगस्त तक अफ़ग़ानिस्तान से निकल जाने का समय दिया था। और बाइडेन 30 को ही पतली गली से निकल लिया। 
बाइडेन पर एक ऐसा इल्ज़ाम भी लगाया जा रहा है जो पढ़ने और सुनने वाले को ख़ासा भावुक कर सकता है। अमरीकी सेना में खोजी कुत्तों की भी अहम भूमिका होती है। अमरीकी सेना अफ़ग़ानिस्तान में भी खोजी कुत्तों को लेकर गयी थी। इन कुत्तों को भी फ़ौजी रैंक दिये जाते हैं। इनके भी अर्दली होते हैं। इन खोजी कुत्तों का अंतिम संस्कार भी पूरे राजकीय सम्मान से किया जाता है। मगर बाइडेन ने इन्सानों को तो धोखा दिया ही, इन खोजी कुत्तों को भी नहीं बख़्शा। उन्हें तालिबान के हाथों मरने के लिये छोड़ आया। 
आज अमरीका की स्थिति यह हो गयी है कि कोई भी आतंकवादी संगठन उसके सैनिकों की हत्या कर देता है और अमरीकी राष्ट्रपति केवल बयान देता रह जाता है। अगर ध्यान से सोचा जाए तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमरीका ने एक भी लड़ाई जीती नहीं है। हर जगह से मुंह की खाई है। वियतनाम में भी यही हुआ था। मगर अफ़ग़ानिस्तान में तो अपनी ऐसी फ़जीहत करवाई है कि अब किसी को यह कहने में भी परेशानी होगी कि वह अमरीकी है।
बाइडेन की और कोई उपलब्धि हो या न हो उसने कम से कम एक काम तो किया है कि डॉनल्ड ट्रंप को एक निडर देशप्रेमी बना दिया है। आम अमरीकी नागरिक भी यही कहता दिखाई देता है कि ऐसे समय में हमे डॉनल्ड ट्रंप जैसे नेता की ज़रूरत थी। 
अमरीकी राष्ट्रपति ने यह आभास दिलाया जैसे तमाम अमरीकी नागिरकों को अफ़ग़ानिस्तान से निकाल लिया गया है। यह सच्चाई नहीं है। सच तो यह है कि अभी भी अमरीकी नागरिक और अमरीकी समर्थक अफ़ग़ान नागरिक अफ़ग़ानिस्तान में फंसे हुए हैं। समस्या तो यह है कि तालिबान उन अमरीकी नागरिकों के साथ क्या कर रहा है, उसका कोई समाचार ही नहीं है। 
मुझे याद पड़ता है कि ओसामा बिन लादेन ने 11 सितम्बर के ट्विन टॉवर पर किये हवाई हमलों के बाद अपने एक लेख में कहा था कि वह अमरीका को एक ऐसी लड़ाई में उलझा देगा कि लड़ते-लड़ते अमरीका और नैटो देशों की पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो जाए और वे सुपर पॉवर का रुतबा खो बैठें। ओसामा जो काम अधूरा छोड़ गया था, वो कोरोना ने कर दिखाया है।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

17 टिप्पणी

  1. I wish to say further that this withdrawal was most abrupt and people saw it as a black swan where an unforeseen event with extreme consequences takes place as it did here.
    Tejendra ji has very rightly pointed out how both Corona and seatback in American Economy were responsible for this fiasco.
    I congratulate him
    Deepak Sharma

  2. करोना से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर हो रहे प्रभाव से अर्थनीति और राजनीति किस तरह प्रभावित हो गई है, यह दृश्य सम्पादकीय में चित्रित हो रहा है।
    अफगानिस्तान से अमेरिका का हटने का निर्णय रणनीति से नहीं राजनीति से प्रेरित था, अतः रणछोड़ कर भागने पर दुनियाभर को शक्तिशाली अमेरिका पर संदेह होना स्वाभाविक है ।
    ओसामा का कथन और नेपोलियन बोनापार्ट का संदर्भ एकदम सटीक है। विकसित देशों के भविष्य पर आशंका और अनिश्चितता की रेखांकित करती हुई सार्थक सम्पादकीय हेतु साधुवाद ।
    Dr Prabha mishra

  3. अब अमेरिका की दादागिरी के दिन गए, कोरोना ने ‘तथाकथित विकसित देशों’ की कलई तो पहले ही उधेड़ कर रख दी थी, रही सही कसर अफगानिस्तान ने पूरी कर दी। ओसामा बिन लादेन ने इसकी शुरुआत इनके ट्विन टावर गिरा कर दी थी। अमेरिका ने ही आतंकवादियों की खेती शुरू की थी, सभी वहीं के सीखे हुए शागिर्द थे जिन्होंने अमेरिका के गाल पर तमाचा मारा। आज तक जो ज़हर बोया है दूसरे देशों के लिए, उसको ख़ुद पीने का समय आ गया है। अमेरिका को अपने शास्त्रों के लिए विश्व भर में बाज़ार चाहिए, नमूनों के तौर पर अपने हथियारों को छोड़ दिया है…. तालिबानी ही उनके भविष्य के ग्राहक होंगे। जब बबूल बोया है तो आम कहाँ से खाएंगे…. ये तो इब्ददा-ए-इश्क़ है

  4. अत्यंत तार्किक एवं विचारणीय प्रश्न उठाते इस संपादकीय के लिए साधुवाद । अभी तक इस दृष्टि से अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बारे में कहीं कुछ देखने को नहीं मिला था।

  5. हमेशा की तरह काफी अच्छा लिखा सर आपने लेकिन मुझे लगता है जिस तरह इस सम्पादकीय का अंत किया है वह ठीक नहीं है। इसमें और भी काफी विचार जोड़े जाने चाहिए थे। वैसे मुझे राजनीति की ज्यादा समझ तो नहीं लेकिन अफगानिस्तान के हालात देखते हुए लग रहा है वहां जो हो रहा है ठीक ही है। ये देश भले अफगानिस्तान हो या इसी तरह इजरायल आदि उनका हश्र यही होना चाहिए। हालांकि अफगानिस्तान में जो हुआ उसका अफसोस है। मानवता शर्मसार होती हैं ऐसे कृत्यों से लेकिन फिर वहीं हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लागू की गई नागरिता कानून और बिल भी ऐसे समय में और सटीक तथा ज्वलंत बन जाता है। इसका जिक्र भी सम्भवतः प्रधानमंत्री ने हाल ही में किया था। लेकिन इस सम्पादकीय में कुछ और की गुंजाइश छोड़ी है जरूर आपने।

    • प्रिय तेजस, टिप्पणी के लिये धन्यवाद। संपादकीय को फ़ोकस रखना पड़ता है। आलेख और संपादकीय में यही अंतर होता है।

  6. हमेशा की तरह विचारपूर्ण संपादकीय,साधुवाद।हर व्यक्ति को जो बाइडेन का निर्णय दोषपूर्ण लगा क्योंकि परिस्थिति कोई भी हो, मानव को बचाने वाले ही दुश्मन को यदि उन्हें सौंप देते हैं तो इससे बड़ी कायरता और शर्मनाक घटना भला और क्या होगी? पूरे विश्व का विश्वास परिस्थितियों से डर कर छोड़ देना तो कहीं की बुद्धिमानी नहीं है ,हां कोई सुरक्षित उपाय ढूंढ़कर सबके हित में यदि सोचते तो शायद चित्र ही कुछ और होता! आपने कोरोना से जोड़कर इसे देखा है शायद यहीं पर समझदारी से और डटकर सही निर्णय की जरूरत थी जिससे मानवता कमस्कम शर्मसार होने से बच जाती।
    सभी देशों के लिए एक सबक भी है कि जल्दबाजी में लिए गए निर्णय हमेशा गलत ही होते हैं इसीलिए सब्र को महत्वपूर्ण माना गया है और अक्ल से लिए गए निर्णय ही जीवन में अपने एवम् सबके लिए महत्वपूर्ण ठहरते है ,यह तो सत्य है।
    डॉ.सविता सिंह,
    पुणे।

  7. संपादक महोदय पुरवाई, सादर नमस्कार। आधुनिक समय के महत्वपूर्ण और सटीक विषय पर लिखी गई आपकी संपादकीय पढ़ी। पर पावर अमेरिका की वर्तमान कमजोर मन: स्थिति चित्रण करते हुए भारत को तालिबान के आतंक से सुरक्षित रहने के लिए अपने को मजबूत बनाने की बात कहना अति महत्वपूर्ण है ताकि हम सुरक्षित रहें। हार्दिक साधुवाद।

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