एक विचित्र प्रकार की स्पर्धा भी इन आयोजकों में चल रही है। हर कोई यह साबित करना चाहता है कि मैंने या मेरी संस्था ने अब तक सबसे अधिक संगोष्ठियों का आयोजन किया है। सप्ताह में एक, दो या तीन-तीन तक ऑनलाइन संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है। घोषणाएं की जा रही हैं कि हमारा 60वां वेबिनार आयोजित होने जा रहा है तो किसी का 80वां… कहीं-कहीं तो संख्या सौ तक पहुंच गयी है। आजकल ज़ूम, स्ट्रीमयार्ड, गूगल मीट पर तो कोई ख़र्चा होता नहीं है… वक्ताओं को पारिश्रमिक देना नहीं है… तो बस चारों ओर थूक से वड़े पकाए जा रहे हैं।
कोरोना काल ने हिन्दी भाषा और साहित्य में वेबिनारों की झड़ी सी लगा दी है। ज़ूम, स्ट्रीमयार्ड, गूगल मीट और फ़ेसबुक लाइव जैसे तमाम प्लैटफ़ॉर्म हर संस्था एवं व्यक्ति को मौक़ा दे रहे हैं कि वे ऑनलाइन कार्यक्रमों का आयोजन कर सकें। जहां एक ओर कोरोना के कहर के कारण लोगों का आपस में मिलना जुलना कम हो रहा है, वहीं विपत्ति में अवसर वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए ऑनलाइन चर्चाओं, गॉष्ठियों, वेबिनारों, कवि सम्मेलनों एवं साक्षात्कारों का आयोजन शुरू हो गया।
हिन्दी साहित्य की गतिविधियां ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों के चलते विश्व भर में दिखाई देने लगीं। शुरू शुरू में बहुत अच्छा लग रहा था कि हमारे प्रिय लेखक, कवि, आलोचक, पत्रकार अपनी बात कहते दिखाई देते हैं। जिन लोगों के केवल नाम सुन रखे थे अब उन्हें साक्षात स्क्रीन पर देखने और सुनने का अवसर मिल रहा था। मगर आहिस्ता-आहिस्ता इसका जादू फीका पड़ने लगा और कुछ सवाल उठने शुरू हो गये।
अमर उजाला में गौतम चटर्जी ने लिखा है, “पिछले महीनों में जब मैंने कला पर लाइव व्याख्यान दिया, तो कई वरिष्ठ कलाकारों ने मुझसे पूछा कि ऐसे व्याख्यान पर आयोजक कितना पारिश्रमिक दे रहे हैं। पारिश्रमिक न मिलने की जानकारी देने पर वे बोले, इस बारे में आप पूछिए, आखिर कोई तो पूछेगा। उनकी शिकायत थी कि संगीत समारोह की ऑनलाइन घोषणा कर गायन, वादन और नृत्य कार्यक्रम तो वे हमसे करा ले रहे हैं, पर हम कलाकार पारिश्रमिक के बारे में चुप रह जा रहे हैं, क्योंकि संकोच है कि आयोजक को कैसा लगेगा और फिर शायद भविष्य में कार्यक्रम ही न मिले।”
यही हाल साहित्य में भी है। हिन्दी साहित्यकार हमेशा खा कर लिखता रहा है… लिख कर खाने वाले हिन्दी साहित्यकारों की गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बहुत से लेखक और कवि तो अपनी किताबें प्रकाशित करवाने के लिये प्रकाशकों को पैसे भी देते हैं। साहित्यकार का शोषण इस ऑनलाइन वेबिनार काल में और भी अधिक मुखर रूप से होने लगा है। किसी भी वक्ता को मानदेय देने के बारे में मेज़बान कभी कुछ सोचता नहीं है।
इस शोषण का एक कारण यह भी है कि जो साहित्यकार किन्हीं कारणों से चर्चा में नहीं आ पा रहे थे, वे धड़ल्ले से वेबिनारों में अपना चेहरा दिखाने लगे और फिर उनकी गिनती भी वैश्विक साहित्यकारों में होने लगी जो किसी भी विषय पर बोल सकते हैं।
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया। इस मामले में हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आए वाली कहावत एकदम सटीक बैठने लगी। अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, युरोप, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, खाड़ी देश आदि से किसी एक साहित्यकार को वेबिनार के लिये आमंत्रित कर लिया और उनका वेबिनार बन गया – अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी।
ऐसी संगोष्ठियों में शामिल होने के बाद बेचारे प्रवासी साहित्यकार को जीवन की कठोर सच्चाई का ज्ञान होता है। बेचारा प्रवासी विदेश में रहने के कारण समय की पाबंदी का पालन करने लगता है। उसी हिसाब से वह संगोष्ठी शुरू होने से दस मिनट पहले वेबिनार से जुड़ जाता है। वहां पता चलता है कि महाविद्यालय का प्रिंसिपल या विश्वविद्यालय के उच्चाधिकारी पंद्रह, बीस, पच्चीस मिनट लेट हो चुके हैं। हिन्दी विभाग का डरा-डरा चेहरा दिखाई देता है कि माई-बाप के आए बिना संगोष्ठी की शुरूआत कैसे करे।
प्रवासी लेखक तो पूरी शिद्दत से तैयारी करके बोलने के लिये बैठता है, मगर मुख्य अतिथि एवं अध्यक्ष अपनी आदत के अनुसार पूरे पैंतालीस मिनट का लेक्चर देता है। और किसी में इतनी ताकत नहीं कि उस बंदे को यह समझा सके कि भाई इतना लंबा लेक्चर सुन-सुन कर ही तो हिन्दी विभाग में बच्चों ने दाख़िला लेना बन्द कर दिया है।
आख़री मज़ा तो प्रवासी लेखक को तब मिलता है जब अगले दिन के समाचार पत्रों में उन्हीं उच्चाधिकारियों के घिसे-पिटे वाक्य प्रमुखता से हेडलाइन बने दिखाई देते हैं। बेचारे प्रवासी साहित्यकार को हैरानी होती है कि संगोष्ठी अंतर्राष्ट्रीय तो उसकी उपस्थिति के कारण हुई। संगोष्ठी में बार-बार यह कहा भी गया। मगर अपने उच्चाधिकारियों को ख़ुश करने के लिये अगले दिन की हेडलाइन उन्हीं का वाक्य बनेगा।
इन महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों के लिये यू.जी.सी. से एक अलग बजट मिलता है। मगर उस ग्रान्ट को पाने की एक प्रक्रिया होती है। आयोजक संगोष्ठी आयोजित करने की जल्दबाज़ी में है… तो बस बेचारा साहित्यकार, कवि, आलोचक भुगते इसका ख़मियाज़ा।
एक विचित्र प्रकार की स्पर्धा भी इन आयोजकों में चल रही है। हर कोई यह साबित करना चाहता है कि मैंने या मेरी संस्था ने अब तक सबसे अधिक संगोष्ठियों का आयोजन किया है। सप्ताह में एक, दो या तीन-तीन तक ऑनलाइन संगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है। घोषणाएं की जा रही हैं कि हमारा 60वां वेबिनार आयोजित होने जा रहा है तो किसी का 80वां… कहीं-कहीं तो संख्या सौ तक पहुंच गयी है। आजकल ज़ूम, स्ट्रीमयार्ड, गूगल मीट पर तो कोई ख़र्चा होता नहीं है… वक्ताओं को पारिश्रमिक देना नहीं है… तो बस चारों ओर थूक से वड़े पकाए जा रहे हैं।
वक्ताओं के दिल में यह भी कहीं आशा की किरण रहती है कि संगोष्ठी में शामिल होने से शायद उनकी कोई कृति किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर ली जाए। तो गाय की तरह सिर नीचा करके वह गोष्ठियों में शामिल होते रहते हैं।
इन संगोष्ठियों के भी कई प्रकार हैं – कवि सम्मेलन, साक्षात्कार, किसी विषय विशेष पर वक्तव्य आदि-आदि। मज़ेदार बात यह है कि हर लेखक इन ऑनलाइन संगोष्ठियों में शामिल होने को लालायित भी दिखाई देता है और ऊपर-ऊपर से यह भी कहता दिखाई देता है कि वह तो फंस गया है। लोग छोड़ते ही नहीं।
इन संगोष्ठियों में भी एक बात उभर कर सामने आई कि स्पर्धा इस विषय में भी रहती है कि किस संस्था के वेबिनार में कितने ऊंचे ओहदे के लोग शामिल हुए। मंत्रियों, सांसदों, अध्यक्षों और उपाध्यक्षों की चांदी है। वे हर जगह मुख्य-अतिथि, अध्यक्ष या अतिथि विशेष के रूप में दिखाई दे जाते हैं। किसी बड़े ओहदे के व्यक्ति की पुस्तक पर चर्चा रख कर आयोजक अपने आपको कृतार्थ महसूस होते देखे जा सकते हैं।
ऑनलाइन सम्मानों का भी एक अलग चक्कर है। पैसा-धेला तो लगना नहीं है। बस एक आभासी स्मारिका या मानपत्र बनवा कर एक आयोजन कर दिया जाता है। एक ही आयोजन में बीस तीस लोगों को निपटा दिया जाता है। फिर वो सम्मान या पुरस्कार चाहे झुमरी तल्लैया से हो या फिर चीन-ओ-अरब से… ढर्रा एक ही होता है। न तो पुरस्कार देने वाला लेखक को जानता है और न ही लेखक यह समझ पाता है कि उसे किस अपराध के कारण सम्मानित किया जा रहा है।… बस हर तरफ़ एक होड़ सी लगी है।
ऑनलाइन संगोष्ठियों एवं वेबिनारों की एक विशेष उपलब्धि यह है कि आज एक ही समय में विश्व के तमाम देशों में कभी-कभी हम अपने प्रिय लेखकों, कवियों, आलोचकों एवं वरिष्ठ पत्रकारों को सुन सकते हैं। हर व्यक्ति के लिये भारत के उस शहर में सेमिनार के लिये उपस्थित हो पाना शायद संभव न हो पाए मगर ऑनलाइन गोष्ठी के लिये तो बस क्लिक ही करना होता है। विश्व सच में एक छोटा सा गाँव बन कर रह गया है।
हंस कथा मासिक, नई धारा, और अन्य कुछ संस्थाओं द्वारा आयोजित कार्यक्रम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। क्योंकि वहां दूसरों के साथ कोई स्पर्धा दिखाई नहीं देती।
मगर अधिकांश ऑनलाइन गोष्ठियों में भी गुटबाज़ियां देखी और महसूस की जा सकती हैं। एक विशेष गुट के वेबिनार में कुछ ख़ास नामों की उपस्थिति ही दिखाई देगी। गुणवत्ता से कोई वास्ता नहीं… बस एक दूसरे की पीठ खुजाने की व्यवस्था होनी चाहिये। अमुक व्यक्ति अमुक गुट का मुख्य अतिथि होगा तो अमुक किसी दूसरे गुट का।
एक बात जो मुझे विशेष तौर पर कष्ट देती है – वो है इन ऑनलाइन गोष्ठियों का स्तर। जब सेमिनार होते थे तो उच्चकोटि के वक्ता या स्कॉलर को बुलाया जाता था। विद्यार्थी उनकी बात आमने-सामने सुनते थे। उच्चकोटि का व्याख्यान होता था… मगर इन ऑनलाइन संगोष्ठियों में उस गुणवत्ता की ओर आयोजकों का ध्यान कम ही जाता है।… सुनिये… मुझे अब यह संपादकीय समाप्त करना ही होगा… क्योंकि मुझे स्वयं एक वेबिनार में एक लेक्चर देने के लिये तैयार होना है…
बेहतरीन और सटीक संपादकीय। जब भी किसी नई व्यवस्था का आरंभ होता है तो उसके विपरीत प्रभाव भी पड़ने लगते हैं। कोरोना काल के चलते इस तरह के आयोजन एक सकारत्मक मार्ग बनकर सामने आए हैं, लेकिन जिस तरह अधिकांश संस्थाओं ने इसका दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है, उसकी आपने सही विवेचना की है। इस पर न केवल विचार होना चाहिए बल्कि भविष्य में इसके बिगड़ते स्वरूप पर भी मंथन होना जरूरी है।
अच्छे सम्पादकीय के लिए साधुवाद. . .
सम्पादकीय में कही गई कहावत आज का सच है ।आपदा को अवसर में बदलने की ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू के दिनों में सुखद रही पर स्पर्धात्मक स्वरूप सामने आने लगा है अतः स्रोता उकताहट की अवस्था में देखा जा रहा है।
एक संवेदनात्मक पक्ष पर बात अच्छी कही कि “साहित्य और कला से जीविका चलाने वालों को ऑनलाइन प्रदर्शन के बदले कोई मानदेय नहीं दिया जाता यह दुखद पक्ष आपने विचारार्थ रखा । शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को यूजीसी तथा सरकारों से अनुदान इन्हीं कार्यो के लिए दी जाती है ,लेकिन ये सभी मुफ़्त में आयोजन ऑन लाइन सम्पन्न कर रहे हैं । घर बैठे आनंद लेने के ये प्रयास कला साधकों को अवसाद की अवस्था में ले जाएंगे इसपक्ष पर भी आयोजनकर्ताओं को सोचना चाहिए
ध्यानाकर्षण हेतु साधुवाद।
Dr prabha mishra
Tejendra ji,you have very rightly pointed out this spate of webinars during these Corona times and how only a few are worth our attention.
Please accept my congratulations for this balanced view.
Warm regards and best wishes
जी बिलकुल सही कहा सर आपने। अब श्रोता/दर्शक भी ऊब गए हैं इसलिए उपस्थिति भी बहुत कम रहती है। अधिकांश प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिभागी ८-१० होते हैं और दर्शक ४-५ । हास्यास्पद स्थिति है।
-आशुतोष कुमार
निसन्देह! आज के वेबाचार प्रचलन पर तीखा तेज धारदार प्रहार करता सम्पादकीय सर। अंतिम वाक्य ने सच के रंग को और भी चोखा कर दिया। किन्तु ये भी सच है कि इनके चलते ही हम अपने आदर्श साहित्यकारों, चिंतकों, विचारकों को सुन और देख भी पा रहे है जिनसे मिलना कल्पना मात्र था। जैसे आप।
यद्यपि ये भी है कि तीन चार घंटों तक कभी न खत्म होने वाली गोष्ठियों मे आपको विभिन्न दृश्यों का आनन्द भी मिलता है जैसे कोई सब्जी काटता हुआ, कोई सोता हुआ आदि आदि।।।
हींग लगे न फिटकरी अनुभव ही अनुभव होय।
क्या सत्य उचारे हैं, हृदय प्रफुल्लित हो गया, काश ऐसा सच और लोग भी कह पाते तो सम्भवतः कुछ सुधार होता, लेकिन यह बात सत्य है – “अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः”.. इति शुभम्
वाह वाह, आनन्द आ गया आपका यह सम्पादकीय पढ़ कर। आपने वस्तुस्थिति पर बहुत रोचक ढंग से प्रकाश डाला है। ये सब मेरे मन की भी बातें हैं। मैं इन औनलाइन कार्यक्रमों के कुकुरमुत्तों पर आपकी ही तरह मन ही मन खीजने लगी थी, लेकिन अपनी बात किसी प्लेटफ़ाॅर्म पर रख नहीं पायी। आपने अन्त में हँसी की फुलझड़ी ख़ूब छोड़ी है कि आपको भी औनलाइन जाना है। ये भी संयोग ही है कि मैंने भी न जाने कितने औनलाइन एकल काव्यपाठ, वेबीनार, संगोष्ठी आदि में गत डेढ़ वर्ष से अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा ही डाली है। मरता क्या न करता। हा हा हा हा ……..
बेहतरीन और सटीक संपादकीय। जब भी किसी नई व्यवस्था का आरंभ होता है तो उसके विपरीत प्रभाव भी पड़ने लगते हैं। कोरोना काल के चलते इस तरह के आयोजन एक सकारत्मक मार्ग बनकर सामने आए हैं, लेकिन जिस तरह अधिकांश संस्थाओं ने इसका दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है, उसकी आपने सही विवेचना की है। इस पर न केवल विचार होना चाहिए बल्कि भविष्य में इसके बिगड़ते स्वरूप पर भी मंथन होना जरूरी है।
अच्छे सम्पादकीय के लिए साधुवाद. . .
कटु सत्य , निरंतर गिरता स्तर, विचारणीय, चिंताजनक!
आवश्यक हस्तक्षेप!
धन्यवाद रश्मि। धन्यवाद विरेन्द्र भाई।
सम्पादकीय में कही गई कहावत आज का सच है ।आपदा को अवसर में बदलने की ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू के दिनों में सुखद रही पर स्पर्धात्मक स्वरूप सामने आने लगा है अतः स्रोता उकताहट की अवस्था में देखा जा रहा है।
एक संवेदनात्मक पक्ष पर बात अच्छी कही कि “साहित्य और कला से जीविका चलाने वालों को ऑनलाइन प्रदर्शन के बदले कोई मानदेय नहीं दिया जाता यह दुखद पक्ष आपने विचारार्थ रखा । शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को यूजीसी तथा सरकारों से अनुदान इन्हीं कार्यो के लिए दी जाती है ,लेकिन ये सभी मुफ़्त में आयोजन ऑन लाइन सम्पन्न कर रहे हैं । घर बैठे आनंद लेने के ये प्रयास कला साधकों को अवसाद की अवस्था में ले जाएंगे इसपक्ष पर भी आयोजनकर्ताओं को सोचना चाहिए
ध्यानाकर्षण हेतु साधुवाद।
Dr prabha mishra
प्रभा जी सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
Tejendra ji,you have very rightly pointed out this spate of webinars during these Corona times and how only a few are worth our attention.
Please accept my congratulations for this balanced view.
Warm regards and best wishes
Thanks so much Deepak Ji.
बहुत अच्छा
धन्यवाद राकेश
बहुत बढ़िया लेख
धन्यवाद संगीता।
जी बिलकुल सही कहा सर आपने। अब श्रोता/दर्शक भी ऊब गए हैं इसलिए उपस्थिति भी बहुत कम रहती है। अधिकांश प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिभागी ८-१० होते हैं और दर्शक ४-५ । हास्यास्पद स्थिति है।
-आशुतोष कुमार
धन्यवाद आशुतोष
यथार्थ की अभिव्यक्ति चुटीले अंदाज में…और अंतिम पंक्ति तो पूरे लेख का सार है ,बहुत बढ़िया सर
धन्यवाद जया।
निसन्देह! आज के वेबाचार प्रचलन पर तीखा तेज धारदार प्रहार करता सम्पादकीय सर। अंतिम वाक्य ने सच के रंग को और भी चोखा कर दिया। किन्तु ये भी सच है कि इनके चलते ही हम अपने आदर्श साहित्यकारों, चिंतकों, विचारकों को सुन और देख भी पा रहे है जिनसे मिलना कल्पना मात्र था। जैसे आप।
यद्यपि ये भी है कि तीन चार घंटों तक कभी न खत्म होने वाली गोष्ठियों मे आपको विभिन्न दृश्यों का आनन्द भी मिलता है जैसे कोई सब्जी काटता हुआ, कोई सोता हुआ आदि आदि।।।
हींग लगे न फिटकरी अनुभव ही अनुभव होय।
मज़ेदार टिप्पणी शिप्रा
क्या सत्य उचारे हैं, हृदय प्रफुल्लित हो गया, काश ऐसा सच और लोग भी कह पाते तो सम्भवतः कुछ सुधार होता, लेकिन यह बात सत्य है – “अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः”.. इति शुभम्
धन्यवाद शैली जी।
ज़बरदस्त लिखा। बेबाक। चलूँ, अब वेबिनार में शामिल होना है।
थैंक्स गिरीश भाई।
धन्यवाद
कटु सत्य पर प्रकाश डाला आपने, तेजेन्द्र जी!
धन्यवाद हरिहर भाई।
बहुत वाजिब प्रश्न उठाया है आपने। एक हमारी हिमाचल साहित्य अकादमी है, वह उसने 600 एपिसोड कर लिए हैं। लेखक इसी में खुश है कि स्क्रीन पर दिखाई दे रहे हैं।
हरनोट भाई आपकी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है।
पठनीय व मननीय संपादकीय
वाह वाह, आनन्द आ गया आपका यह सम्पादकीय पढ़ कर। आपने वस्तुस्थिति पर बहुत रोचक ढंग से प्रकाश डाला है। ये सब मेरे मन की भी बातें हैं। मैं इन औनलाइन कार्यक्रमों के कुकुरमुत्तों पर आपकी ही तरह मन ही मन खीजने लगी थी, लेकिन अपनी बात किसी प्लेटफ़ाॅर्म पर रख नहीं पायी। आपने अन्त में हँसी की फुलझड़ी ख़ूब छोड़ी है कि आपको भी औनलाइन जाना है। ये भी संयोग ही है कि मैंने भी न जाने कितने औनलाइन एकल काव्यपाठ, वेबीनार, संगोष्ठी आदि में गत डेढ़ वर्ष से अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा ही डाली है। मरता क्या न करता। हा हा हा हा ……..