Saturday, July 27, 2024
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संदीप नायक के उपन्यास ‘एकांत की अकुलाहट’ का अंश

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एक दीवार है जो गाढ़ी नीली रँगी है जब कमरा बना था तो इस पिछली दीवार को गाढ़ा नीला रंग लगाया थाठीक पिछले पड़ोसी की दीवार से लगकर इसे कांक्रीट की छत पर उठाया था जो अब इस कमरे की जमीन बन गई है..
तीन हल्के नीले रंगों के बीच गाढ़े रँगीले नीले रंग पर एक छोटा सा बल्ब भी टांग रखा है वो भी गहरा नीला है सिर्फ उजाले से ही नही बल्कि अपने होने से भी  बहुत पहले शायद बरसो कोई एक नीला शर्ट हुआ करता थाएक कॉपी जिसका कव्हर नीला था और थोड़ा बड़ा हुआ तो स्कूल का पेंट भी नीला फिर कूची पकड़ी तो सफेद केनवास पर दो पेड़एक नदीएक झोपड़ी और नीले आसमान में उगते सूरज और पक्षियों को बनाते हुए नीले रंग की शीशी बहुत भाती थीवो कभी ढुल भी जाती तो लाल पत्थर को नीला कर देती..
इस नीले रंग को अपने भीतर की नसों में भी पाता हूँआठवी में धमनी शिरा में अंतर करते हुए अपने हाथ की चमड़ी के भीतर अशुद्ध रक्त को बहा कर ले जाती शिरा को देखता  फूली हुई सी कभी बीमार पड़ता तो डाक्टर के पास जाने पर वह बाये हाथ की नब्ज़ पकड़ता और पंजे से कोहनी तक के सपाट हिस्सों पर नीली नसें फुल जाती और उनका नीलापन उभर आता…
यह अशुद्ध नीला रंग कब मेरे दिल दिमाग़ में समा गया नही मालूम पर फिर नीलनीला आसमाननीला फूलनीलाभनीला समन्दरनीली नदियाँनीली आँखों वाली लड़कियां और हर कुछ जो नीला था क़ायनात में सब अपना हो गया एक बार किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा होफूलों का गिलहरी या चींटी का तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया  नीला..
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हम सब अपने एकांत में बेहद क्रूर और दुराचारी होते है और भीड़ में बेहद डरपोक और शिष्टयाद आता है कि कैसे एक शांत नदी अपने उदभव से निकलती है तो छोटी सी लकीर होती है पर ज्यों ज्यों पहाड़कंदराओं से गुजरती है तो उच्छृंखल और बेख़ौफ़ होते जाती है क्योंकि वह अपने उदभव को और जड़ो को छोड़ चुकी है और अब मस्त होकर वह सब कुछ हासिल कर लेना चाहती हैआसमान भी नीला दिखता है पर जब इसी आसमान को भेदकर कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ आसमान के भीतर पहुंच जाता है तो सफ़ेदी से भरे रुई के लच्छे यहाँ वहाँ ठहरे दिखाई देते है मानो किसी ने उन्हें सजाकर रख दिया हो या कोई अनंतिम सज़ा दी हो प्रेम करने की.
अपने कमरे की इस नीलिमा से कभी मुक्त नही होता हूँ मुझे नीले परिवेश में डूब जाना इतना भाता है कि मैं कभी कभी सारे दिन दीवार से टिककर खड़ा रहता हूँरात में गाढ़े नीले रँग में डूबे अंधकार में अपने दोनो पाँव दीवार से सटा देता हूँ कि वह नीली रोशनी पाँवों को भेदकर मेरे भीतर समाहित हो जाये और अपने शरीर के ऊपर से त्वचा में धंसी हुई नसों में बहता अशुध्द रक्त अंदर संजाल के रूप में बिछी हुई धमनियों में भी समा जाएं और जब धमनी शिरा का रक्त अपने पूरे स्वरूप में नीला हो जाएगा तो फिर भीतर की दीवारें भरभराकर टूट पड़ेंगी.
कोई मिलता है तो पहचान नही पातायह उम्र का असर हो या चेहरे पर आई समय की झारियाँ या हो सकता है चांदनी के फूल अब कही और खिलें हो मोगरे की झाड़ी में पर एकाएक लोग कहते है कैसे हो गएबदल गए तो मैं हंस देता हूँ और हंसते समय लगता है एक जहर से पूरा शरीर नीला पड़ रहा है और पतली सी जुबान निकालकर अभी सामने वाले को डस ही लूँगा  पीछे हट जाता हूँ बहुधा और चुप भी हो जाता हूँ  एक अदृश्य दीवार उठा लेता हूँ जिसकी अब आदत हो गई है मुझे..
3
इसी गाढ़ी नीली दीवार के पीछे लटका है माघ के शुक्ल पक्ष का चांद जो पूनम से होते हुए आज चौथ पर एक चौथाई कम हो गया है और बस यहीहाँ यही चांद मुझे पसंद है – पूनम का बड़ा सा खिला खिला दूधिया रोशनी में नहाता चांद मुझे पसंद नही है जिसे सारी दुनिया देखती है – आज के चांद को देखने वही लोग देर तक जागते है जो उपवास करते हैहिम्मत से भूखे रहकर बाट जोहते रहते है कि कब आसमान में चौथ का उदय होगा और चांद निकलेगा.
यह उदासी और संताप के बीच हल्की सी खुशियाँ बटोरता – बिखेरता चांद है जो अपनी कलियां बिखेरते हुए आहिस्ता आहिस्ता कम होता जाएगा इसमें वो प्रचंड आशावाद नही कि अब कभी अमावस की ओर प्रस्थान नही करूँगा – सारी रात मैं निहारता हूँ और सोचता हूँ कि काश चांद की आभा भी नीली होती सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता.
दूर कही एक वीरान घर में एक बूढ़ा हारमोनियम बजा रहा है जिसकी पत्नी अभी अभी बहरी हुई है और उसके बच्चे घर से लड़कर निकल गए है – वो सारी उम्र एक चादर में अपनी पुश्तैनी हारमोनियम को बांधे रहा और किराए के मकान दर मकान में भटकता रहा – अपनी आत्मा को ज्यों शरीर की गठरी में दबा रखा था यमदूतों से बचाकर ठीक उसी तरह इस हारमोनियम को एक मैली चादर में बांधकर समेटे रहा सारी उम्रइस उम्मीद में कि कभी उसकी अपनी छत होगी – पक्की दीवारों के घरएक आंगन वाला घर जिसके बाहर पीपल नीम सुबबूल और गुलमोहर के पेड़ होंगे – मोगरे और मधुमालती के साथ रात रानी महकेगी और वह एक टाट बिछाकर मालकौंस गायेगा और धीरे धीरे भैरवी पर आकर उसकी सांसें धौंकनी की तरह चलने लगेगी और भोर के शुक्र तारे को देखकर वह एक पतली सी गोदड़ी ओढ़कर सो जाएगा.
हारमोनियम जीवन में काली चार से आगे गया ही नहीबहुत सुर साधेखूब हवा भरी इतनी कि उसके फेफड़े शुष्क हो गएकभी पानी भर गया कभी बलगम निकलता रहा और कभी इन्हीं फेफड़ों को जिंदा रखने के लिए दिल दिमाग़ को गिरवी रखना पड़ा और फिर भी हारमोनियम के काले सफ़ेद बटनों के पीछे दबे तारों को साध नही पाया एक सुर हैएक चांद और गाढ़े नीले रँग में डूबी दीवार जैसे मरघट के चारो ओर ये बिम्ब उसके लिए ही खड़े किए गए है अभेद्य किलों की तरह.
अचानक कभी आमेर का किला दिखता हैकभी कुशलगढ़ कभी गोलकुंडा या कभी खम्मम में बना चालुक्य वंश का लम्बा किला या मैसूर के किले पर बैठे हुए कबूतर जो हमेशा अनिष्ट होने की घोषणा करते हैसमुद्र किनारे उसे किलों के ध्वंसात्मक स्वरूप दिखते हैनेमावर में नर्मदा के बीचोबीच बना वो किला याद आता है जहां सूखी घास है चारो ओर पानी होने पर भी आग लग जाती है या काजीरंगा के जँगलों के बीच टूटा हुआ वो बड़ा सा मकान याद आता है जहां बरसो से कोई नही रहता और अब वहाँ जाना भी खतरे से खाली नहीमण्डला में गौंड राजाओं के किले में चमगादड़ों से भरा हाल याद आता है तो उसकी बदबू से विचलित हो जाता है और उनकी आवाजें उसे सोने नही देती.
कितना घूमा हूँ मैं अब कोई कह दें कि एक बार फिर चले जाओ एक जीवन और देते है तो हिम्मत ना हो शायद क्योकि इस गाढ़े नीले रँग की दीवार से नीला इश्क हो गया है.
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उजालों में अंधेरे देखने का आदि था वोजब दुनिया जागती उसे लगता कि अब सूरज ढला हैरातभर नदी के बहते पानी में पांव डालकर बैठे रहना और फिर उसे याद आता अपना कमरा और वह नीली दीवार – गाढ़े नीले रंग में पुती हुई एक दीवार जो तीसरे माले पर बनी थी – कमरे के ठीक पीछे अपनी नीलाई की रोशनी में पूरी ताकत के साथ ज़िंदा थी.
नदी का पानी धरती के इस भू भाग पर अविचल बह रहा है – निर्बाध और उद्दाम वेग से – वह अदभुत है , पानी में घुटने के नीचे से पांव के पंजे तेज़ बहाव में दो चार मीटर बह जाते लगता कि शरीर का ऊपरी हिस्सा स्थूल और स्थिर ना होता तो पानी के साथ पता नही कहाँ से कहाँ पहुंच जाता वह!
अंतरमन की गहराईयों में जब भी ध्यान लगाकर बैठता तो उसे सबकुछ अर्थहीन सा लगता और फिर उसे अपने भीतर एक अनहद नाद सुनाई देता – अपने को सही समझने और बाकी सबको ख़ारिज करने में जीवन का लगभग सारा हिस्सा चला गया और अब जब इस नदी के बहते स्वच्छ कल – कल जल को देख रहा है – जो कीच के संग जंगली लकड़ियों के बड़े डूंड से लेकर नाजूक नरम पत्तियां और असंख्य जीव लेकर बहता हैफिर भी उसकी पावन पारदर्शितापवित्रता और निर्मलता कम नही होती – हम जीवन में भी ऐसे ही झंझावतों से गुजरते है – असंख्य स्मृतियाँलोगसुख – दुख के तिलिस्म और चर चराचर जगत के दृष्टांत लेकरपर हर जगह हर किसी से चिपके रहते हैनिर्मोही नही हो पाते शायद इसलिए कि हम इन सबसे सुख या दुख का गहरा नाता जोड़ लेते है – निस्पृह नही हो पाते कभी..
यह पानी उस कमरे की गाढ़ी दीवार को क्यों नही रौंद देता जो चट्टान की तरह अडिग खड़ी है – यह सिर्फ प्रश्न नही एक कोलाहल है जो बेचैन करता है मुझे और मैं तय करता हूँ कि अपने अवशेषों में जीवाश्म बनकर जीना चाहता हूँ अब और लगता है कि जब अर्थउद्देश्य और विभीषिकाएँ खत्म हो गई हैजीवन से वसन्त की विदाई हो रही हो तो पतझड़ का आगमन प्रफुल्लित करता हैइधर धूप फिर सुनहरी से तीखी होने लगी हैनीली गाढ़ी दीवार से पचास कदम पर जर्जर हो रहा गुलमोहर रोज़ क्षितिज निहारता है और सुबह – शाम दर्जनों चिड़ियाएँ चहकती रहती है पर पत्ते झरने से शाखें सूखी और सूनी हो गई है.
इस नदी के प्रवाह को उस गुलमोहर की जड़ों में प्रवाहित कर धारा को मोड़ना चाहता हूँपर अब ना चिड़ियाओं का रंग याद आ रहा है और उनके नाम – अपने होने की निरर्थकता के मायने भी अब स्पष्ट होने लगे है एकाकीपन इतना एकाकी हो जाएगा कि खुद पूरा खाली हो जाऊंगा – यह अकल्पनीय तो नही थापर उन्नीसवें सावन के निर्णय का प्रतिसाद एक ठीकठाक से मकाम पर इस तरह से विलोपित करना आरम्भ करेगा – यह सोचा नही था सम्भवतः कल्पनातीत रहा होगा.
और इस सबमें प्यार – नीले गाढ़े रंग को कभी फिर से देखना – खून से ज़्यादा सुर्ख और खतरनाक लगता है – अभी शेष हूँ तब तक नीलाई में डूबा रहूँगा…
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पूरा जीवन राय बनाने मेंविचारों को संश्लित करने मेंसघन अनुभूतियों की जमीन को उर्वरा बनाने में ही निकलता नज़र आ रहा है – यह प्रक्रिया उस एकांत से बार – बार गुजरी जिसने एक बड़ी समझ बनाने में मदद की पर जब भी कही कुछ दिखालगा और भीतर से महसूस किया तो तन मन शीतल ना हो पाया – एक अगन में , ज्वर में भावनाएं उफनती रही और अपनी समझ से कुछ कह दिया.
यह कहने में दिल – दिमाग में कुछ भला ही रहा होगा पर विचार जब शब्दों से होते भाषा के बहाने प्रकट हुए तो अपने अर्थ और गुणवत्ता खो बैठे और फिर तमगे लगते रहें मानों सलीब पर टँगे शरीर पर जो आया वो एक कील ठोंककर चला गयाये कीलें इतनी ज्यादा थी कि आत्मा के भीतर तक किरचियो की तरह चुभती रही – इस सबसे जो सबसे ज्यादा उभरा था वह था असंतोषनैराश्य और संताप.
लगातार गूँथने और मथने से अंदर ही अंदर जुगुप्साईर्ष्या और द्वैष ने जन्म लिया जिसकी परिणीति यह हुई कि हाड़ मांस के भीतर महत्वकांक्षाएं जागने लगी अपने भीषणतम स्वरूप में और सफ़र की मंजिलें दुश्वार होती गईइतनी कि एक पल लगा कि जगत मिथ्या ही सर्वोच्च सत्य है और इसी को पा लेना जीवन का प्रारब्ध है – एक हतोत्साहित व्यक्तित्व का हश्र इस कदर बौना साबित होगा – यह अंदाज़ नही था.
इस सबमें नीले रंग के नीचे बहुत सुकून मिलानीले आकाश से नदी तकनदी से समुंदर तक और शाम के समय गाढ़े नीले रंग में बदलती शाम ने जब भी आसमान के एक कोने से दीवार उठाना शुरू की तब कही जाकर एक हंस अकेला दिखा यम के दूतों ने पुकारा और लगा कि जो धर्मी धर्मी थे वो पार हो गए और पापी चकनाचूर – यही से कबीर घर कर गए और बुल्ले शाह याद आये जो अपने दरवेश से – अपने खुदा से मिलने जा रहे थे तो घाघरा पहनकर चले गए और बोले मौलाना – तू मेरे बीच ना आवो कहते है ” इस घट अंतर बाग बगीचे इसी में पालन हार “फिर वो बुल्ले शाह होगोरखनाथमछंदर या कबीर हो – सबने यही कहा और समझा भी यही कि बाहर कुछ नही सब अंदर है – मूरत भीसीरत भी और सूरत भी – और इसी को अब पलटना है – मुड़ना है जैसे मुड़ जाते हैं घुटने पेट की तरफदूसरों की ओर देखने के बजाय अपने अंतस में झाँकेउंगलियां अपने भीतर डालकर खंगालें और देखें कि ज्ञान की जड़िया कहां है – सद्गुरु तो हर कोई है – सबमें सब है परम अंश भी और परमार्थ भी पर अब एक बार भीतर झाँकने की बेला है ये.
गुरु भी छूटेगा और छोड़ना ही पड़ेगा – यह जतन से भरी जोत है इसे प्रज्ज्वलित रखने को भीतर से जलना होगाइतना कि अपने भीतर का कोलाहल शांत हो जाये – अनहद नाद भी सुप्त हो जाये इतनी बेचैनी हो उस विशाल शांति को पाने की और तमस जो भीतर बाहर पसरा है वह गाढ़े नीले रंग में बदल जाये तभी मुक्ति सम्भव है – मत कर अभिमान सिर्फ गाने से या कहने से नही चलेगा – इसके लिए खपना होगा – सबके बीच रहकर…
जिन जोड़ी तिन तोड़ी …… रास्ते कही नही जाते उन्हें अपने मन के चक्षुओं से मोड़ना पड़ता है और जब मुड़ गए तो सब सध गया…
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