मैं तुझे आग़ोश में लेकर दिखाऊँगा कभी।
ज़िंदगी हक़ से तुझे अपना बनाऊँगा कभी।।
हौसलों को पंख दूँगा, चाहतों को आसमाँ।
बेसहारों को सहारा, बेज़ुबानों को ज़ुबाँ।
सिर्फ़ अपने ही लिए जीना नहीं आता मुझे,
है यही कोशिश कि पहुँचूँ पीड़ितों के दरमियाँ।
पोंछकर आँसू सभी के मुस्कुराऊँगा कभी।
ज़िंदगी हक़ से तुझे अपना बनाऊँगा कभी।।
सर उठाने के लिए सम्मान भी तो चाहिए।
भीड़ से अपनी अलग पहचान भी तो चाहिए।
मैं व्यवस्था से ख़फ़ा हूँ, यह बताने के लिए,
मुट्ठियों को भींचकर ऐलान भी तो चाहिए।
बाग़ियों में नाम अपना भी लिखाऊँगा कभी।
ज़िंदगी हक़ से तुझे अपना बनाऊँगा कभी।।
मिल गया सूरज किसी को क़ैद करने के लिए।
और मेरे वास्ते कम रोशनी वाले दिये।
जब सभी साधन सिमटते जा रहे हैं इक जगह,
हाथ में जिसके नहीं कुछ, वह भला कैसे जिए।
इक नया सूरज हथेली पर उगाऊँगा कभी।
ज़िंदगी हक़ से तुझे अपना बनाऊँगा कभी।।
क्यूँ मुझे मेहनत ज़्यादा और क़ीमत कम मिले।
बदनसीबी से हमेशा ही जुड़े हैं सिलसिले।
अन्नदाता भी कहाऊँ और भूखा भी मरूँ,
कोई भी सुनता नहीं ये दर्द, ये शिकवे-गिले।
इस अभावों की नदी के पार जाऊँगा कभी।
ज़िंदगी हक़ से तुझे अपना बनाऊँगा कभी।।
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.)-250001. संपर्क - brkishore@me.com

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.