यूरोप की सोच कुछ अलग है। यहां लंदन में हमें अंडरग्राउंड और मेट्रो में लोग यात्रा करते हुए कुछ पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। हर किसी के हाथ में कोई न कोई किताब रहती है। इससे समाज की सोच पता चलती है। भारत में टेलिविज़न और इंटरनेट ने पुस्तकों के महत्व को लगभग ख़त्म कर दिया है। हिन्दी में तो विशेष तौर पर साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का चलन अंतिम सांसें लेता प्रतीत होता है। हमें शैलेन्द्र के गीत से सबक लेना होगा – “जो जिस से मिले सीखा हमने / ग़ैरों को भी अपनाया हमने!”
इन दिनों भारत में हिंसा को लेकर इतना कुछ घटित हो रहा है कि किसी भी संपादक के लिये किसी अन्य विषय पर संपादकीय लिखने की सोचना भी किसी गुनाह से कम नहीं माना जाएगा। फिर राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट में मिली राहत पर इतना हो-हल्ला हो रहा है कि उस शोर से अपने को दूर रख पाना भी कम कठिन नहीं है। मगर मुझे पाँच वर्ष पुरानी एक ऐसी घटना याद आ रही है जिसके माध्यम से मैं कोई सकारात्मक मुद्दा अपने पाठकों के सामने रख पाऊंगा।
दरअसल मैं सोच रहा था कि हाल ही में फ़्रांस में बहुत पुराने पुस्तकालय को आग से जला कर दंगाईयों ने भस्म कर डाला। ऐसी बहुत सी कहानियां हम इतिहास में पढ़ते रहे हैं जब आक्रांताओं ने देश के पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को आग के हवाले कर दिया। इस बात को सोचते हुए मैं उस पाँच वर्ष पुरानी ख़बर पर पहुंच गया जो तुर्की में घटित हुई और हम सब के लिये एक प्रेरणादायक घटना के रूप में उभर कर सामने आई। इस महत्वपूर्ण घटना की भारत में अधिक चर्चा नहीं हुई।
बात कुछ यह भी है कि जब कभी हम कचरा उठाने वालों के बारे में सोचते हैं तो हमें भारतीय उपमहाद्वीप के कचरा उठाने वालों के चेहरे याद आते हैं या फिर जिन्हें हम जमादार या जमादारिन कहते हैं – उनके चेहरे। तुर्की एक इस्लामिक देश है मगर यह है युरोपीयन यूनियन का हिस्सा। यहां घरों में कचरे के लिये ‘बिन’ यानी कि कचरा पेटी होती हैं। लंदन में हरे रंग की कचरा पेटी में रसोई का कचरा; नीले रंग की कचरा पेटी में रीसाइकल करने वाला कचरा जैसे कि अख़बार, किताबें, शीशे और प्लास्टिक की बोतलें या फिर गत्ते के बक्से। और उन्हें ख़ाली करने के लिये बाक़ायदा एक बड़ी सी गाड़ी आती है जिसमें वर्दी पहन कर्मचारी होते हैं। जो हर सप्ताह आकर कचरा पेटी खाली कर जाते हैं। उनके साथ हर नागरिक बहुत तमीज़ से पेश आता है।
जिस घटना का मैं ज़िक्र करने जा रहा हूं वो तुर्की की राजधानी अंकारा की है… बल्कि वहां के कचरा उठाने वाले कर्मचारियों की है। इस विषय पर 2018 में हमारे मित्र दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने एक ब्लॉग में एक छोटा सा लेख भी लिखा था। यानी कि भाई दुर्गाप्रसाद की नज़रों से यह उल्लेखनीय ख़बर बच नहीं पाई।
अंकारा के चान्कया क्षेत्र के कचरा उठाने वाले कर्मचारियों ने देखा कि लोग अपने घरों की किताबें कचरे में फैंक देते हैं। 32 वर्षीय कचरा कलेक्टर सेरहाट बेतेमूर (Serhat Baytemur) यह देख कर ख़ासा विचलित होता था। उसे शायद पुस्तकों से प्यार था। उसका दिल इन पुस्तकों को कचरे में देख कर बार-बार कुछ नया कर गुज़रने का संदेश देता था।
कहावत है न कि जो एक आदमी के लिये कचरा होता है वो शायद किसी और के लिये ख़ज़ाना हो सकता है। कुछ ऐसा ही सेरहाट के मन में भी हो रहा था। उसने अपने मन की बात अपने साथियों के साथ साझा की। हम इन्सानों के बारे में सोचते हैं तो पूछते हैं कि मरने के बाद क्या होता है। शायद ये किताबें भी आपस में बात करती होंगी कि हमें कचरे की पेटी में फेंक दिया गया है… अब हमारा क्या होगा? सेरहाट से पहले कितनी किताबें री-साइकिल हो चुकी होंगी… इसका अंदाज़ा लगाना आसान नहीं। मगर किताबों के मसीहा के रूप में सेरहाट ने अपने विभाग के साथियों और सरकार को एक नई सोच प्रदान की।
उसने और उसके साथियों ने उन किताबों को एकत्रित करना शुरू किया और एक जगह सजा कर रखने का स्थान भी बना लिया। मगर अभी तक केवल एक विचार था कि किताबों को बचाया जाए। क्योंकि इन किताबों में बहुत सी बहुमूल्य किताबें थीं। कहा जाता है न कि बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद! जिन लोगों ने किताबें फेंक दी थीं उनके लिये किताबें बंदर के अदरक जैसी ही थीं। मगर सेरहत और उसके साथियों ने उन पुस्तकों के महत्व को समझा और सोचा कि ये किताबें युवा पीढ़ी के लिये यदि उपलब्ध हो जाएं तो उनको कितना लाभ होगा। ये किताबें ज्ञान का भंडार हैं और वे इन किताबों को री-साइकिल की मशीन में नहीं जाने देंगे।
बात ज़िले के मेयर एलपर तासदेलेन (Alper Tasdelen) तक पहुंची। उनके दिमाग़ में यह बात आई इन किताबों की एक लाइब्रेरी बनाई जा सकती है। उनके कहने पर क्षेत्र के लोगों का समर्थन मिला और इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया गया। जब एक बार सरकार का साथ हो गया तो एक पुस्तकालय बनाने का निर्णय ले लिया गया।
भाई दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने ब्लॉग में सूचना दी है कि, “लोग आगे बढ़कर भी इन्हें किताबें सौंपने लगे और इस तरह इनका पुस्तकालय बनाने का सपना मूर्त रूप लेने लगा।”
“अब समस्या यह थी कि जो किताबें इकट्ठी हुई हैं उन्हें संजोया कहां जाए? किसी ने ध्यान दिलाया कि खुद इनके सफाई विभाग की एक इमारत बेकार पड़ी है। उसे देखा तो लगा कि अरे, यह तो पुस्तकालय के लिए आदर्श है। उसके लम्बे गलियारे और बड़े कमरे वाकई पुस्तकालय का आभास देते प्रतीत हुए. थोड़ी साफ़ सफाई और रंग-रोगन के बाद वह इमारत काम चलाऊ बन गई तो उसमें इन्होंने अपने कई महीनों के श्रम से एकत्रित की गई करीब छह हज़ार किताबों को व्यवस्थित कर अपने विभाग के कर्मचारियों और उनके परिवार जन को सुलभ कराना शुरु कर दिया।”
“लेकिन जैसे-जैसे किताबों का संग्रह बढ़ने लगा, इस पुस्तकालय की ख्याति भी फैलने लगी और शहर वासियों की मांग का सम्मान करते हुए इन लोगों ने अपने पुस्तकालय की सेवाएं विद्यार्थियों और शहर भर के पुस्तक प्रेमियों को भी सुलभ कराना शुरू कर दिया। नगर के महापौर का भी पूरा समर्थन इन्हें मिला और अब यह पुस्तकालय एक ऐसा स्थान बन चुका है जिस पर पूरे नगर को गर्व है।”
इस लाइब्रेरी में बच्चों की कॉमिक बुक्स से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान तक की किताबें मौजूद हैं। यहां तुर्की भाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी और फ्रे़ंच पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। स्थानीय मीडिया के मुताबिक, सप्ताह में दो बार किताबें उधार ली जा सकती हैं। वहीं ज़रुरत के मुताबिक समय बढ़ाया भी जा सकता है। कमाल की बात यह है कि फ़िलहाल 17 श्रेणियों में पुस्तकों को बांटा गया है। हर विषय पर इस पुस्तकालय में पुस्तकें उपलब्ध हैं।
इस पुस्तकालय के प्रबंधक एमिराली उर्टेकिन ने बताया कि मूल रूप से केवल कचरा श्रमिकों एवं उनके परिवार के सदस्यों के लिये एक पुस्तकालय खोलने का इरादा था। मगर अब यह आम जनता के इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है। ध्यान देने लायक बात यह है कि इस पुस्तकालय में जे.के. राउलिंग, चार्ल्स डिकन्स, जे. आर.आर. टॉल्किन, ओरहान पामुक और ‘फ़िफ़्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ के लेखक ई. एल. जेम्स सहित शीर्ष विदेशी और तुर्की लेखकों के विभिन्न प्रकार की कृतियां शामिल हैं।
काम इतना बढ़ गया है कि यह पुस्तकालय दिन में चौबीस घंटे खुला रहता है। बिल्डिंग को नई साज सज्जा से तैयार किया गया है। वहां एक कैफ़ेटेरिया, एक नाई की दुकान, लोगों के मिलने जुलने का क्षेत्र और कर्मचारियों के लिये दफ़्तर तक बना दिये गये हैं।
एमिराली उर्टेकिन ने आगे बताया, “अन्य तुर्की शहरों के लोग अब पुस्तकालय में किताबें भेजने के लिये डाक का व्यय भी स्वयं उठाते हैं। वहीं कचरा उठाने वाले कर्मचारी निरंतर कचरे में फेंकी जाने वाली किताबें लाकर यहां जमा करवाते हैं। सच तो यह है कि अभी 1,500 पुस्तकें अभी भी अलमारियों में रखी जानी बाक़ी हैं। पुस्तकें लगातार दान के रूप में भी पहुंच रही हैं और कचरा उठाने वाले कर्मचारी भी निरंतर पुस्तकें ला रहे हैं।”
बहुत से ऐसे स्कूल भी उस इलाके में हैं जिनके पास अपना पुस्तकालय नहीं है। वहां के बच्चे सप्ताह में एक दिन आकर इन पुस्तकों का लाभ उठाते हैं। सेरहाट इस परियोजना से बहुत ख़ुश है। उसका कहना है, “पहले मैं चाहता था कि मेरे घर में एक पुस्तकालय हो। अब हमारे पास यहां एक पुस्तकालय है और यह अच्छा है। मैं यहां की सभी किताबें पढ़ना चाहता हूं।”
यूरोप की सोच कुछ अलग है। यहां लंदन में हमें अंडरग्राउंड और मेट्रो में लोग यात्रा करते हुए कुछ पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। हर किसी के हाथ में कोई न कोई किताब रहती है। इससे समाज की सोच पता चलती है। भारत में टेलिविज़न और इंटरनेट ने पुस्तकों के महत्व को लगभग ख़त्म कर दिया है। हिन्दी में तो विशेष तौर पर साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का चलन अंतिम सांसें लेता प्रतीत होता है। हमें शैलेन्द्र के गीत से सबक लेना होगा – “जो जिस से मिले सीखा हमने / ग़ैरों को भी अपनाया हमने!”
आज का संपादकीय कचरे से पुस्तकालय एक ऐसा विषय है जिसे आज के सियासती माहौल से दूर हर पुस्तक प्रेमी ,मानवता प्रेमी ,अध्यात्म और दर्शन के चितेरे,,,,पढ़ना चाहेंगे।आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने भारत देश के पठन पाठन पर भी सच्ची बातें कही हैं जिन पर लिखना आज का मीडिया और गण मान्य और लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार,सरस्वती पुत्र अब भूल गए हैं।भारत एक युवा देश! बड़ा सा सागर सा विशाल जनसमूह पर पुस्तक संस्कृति ,पुस्तक साहित्य और साहित्य प्रेमी अब चूकते जा रहे हैं।दिल्ली पुस्तक मेला जिसमें कभी देश विदेश तक के प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता आते थे और स्टाल संख्या कम से कम पांच सौ से आठ सौ तक पहुंचती थी और नौ दिवसीय यह पुस्तक मेला अब पांच दिन और महज़ साठ स्टाल , सत्ताईस वां संस्करण 2023 तक सिमट गया और दुकानदारी से कुछ अधिक नहीं रह गया है।
बाए पुनः पुरवाई के अनुभवी और साहित्य पुरोधा तेजेंद्र शर्मा जी के आज के संपादकीय की।
सच्चाई को बंया करता एक दस्तावेज ,सभी सतत पाठकों को इस संपादकीय को अपने स्तर से सोशल मीडिया पर पोस्ट करना चाहिए।
बहुत बढ़िया जानकारी, माननीय। लखनऊ के एक पुस्तक- विक्रेता के कर्मचारी ने बताया कि शहर के कुछ महाविद्यालय अब पुस्तकों का बिल लेते हैं, पुस्तक नहीं। उन्हें बिल लेकर पैसे बनाने से काम है, बस।
पठनशीलता बिलकुल समाप्तप्राय है। होना यह चाहिए कि स्कूल अपने छात्रों को हर हफ्ते एक पुस्तक पढ़ने और उसकी समीक्षा लिखने को कहें। पर इसके लिए स्कूल में पुस्तकालय होना जरूरी है और शिक्षकों का विद्यानुरागी। पैसानुरागी नहीं।
तुर्की इस्लामिक देश है पर यूरोपीय।
तुर्की का स्वभाषा प्रेम कमाल पाशा के समय से ही प्रसिद्ध है।
आपके इस उत्तम संपादकीय के लिए साधुवाद।
बहुत प्रेरक संपादकीय । शायद इसे पढ़ कर पुस्तकों मो नया घर और जीवनदान मिले । नई पीढ़ी ने तो पुस्तकें पढ़ना ही छोड़ दिया है । अमेरिका में सड़कों पर और बागों के आस पास छोटे छोटे आकार में बॉक्स बना कर स्टैंड पर लगा दिये जाते हैं । bird house जैसे । लोग उनमें किताबें रखते हैं और ले जाते हैं ।मैंने इस संदर्भ में एक आलेख लिखा है जो एनबीटी की पत्रिका पुस्तक संस्कृति में प्रकाशित हुआ है । लेकिन कचरा कर्मचारियों का यह अनूठा प्रयास है । पुस्तकें बचाओ — नया नारा होना चाहिए । धन्यवाद आपका ।
शशि जी सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार। यह बर्ड हाउस वाला आइडिया पूरे यूरोप में प्रचलित है। दरअसल लंदन के बाहर छोटे नगरों के रेलवे स्टेशनों में पुराने फ़ोन बूथों का प्रयोग छोटे पुस्तकालयों के रूप में किया जा रहा है।
Your Editorial of today introduces us to a great idea occurring to a Turkish garbage collector of collecting books from among the garbage disposals and building a grand library out of them with the help of his fellow garbage collectors and other people who got inspired to contribute their books to it.
It also emphasizes upon us how important libraries are n how books should be read and cherished.
People belonging to my generation used libraries for their love of the written word and for their studies also as well as for procuring knowledge n wisdom.
I fully endorse your view that we must value libraries and the books that are collected there.
Warm regards
Deepak Sharma
अत्यंत चिंतनीय, अनुकरणीय इस संपादकीय लेख के माध्यम से आपने वैश्विक रूप से पुस्तकों की महनीयता और वर्तमान संदर्भ में उसकी वास्तविक स्थिति पर प्रेरक प्रकाश डाला है।
आपको साधुवाद
बहुत ही श्रेष्ठ. सार्थक. उद्देश्यपूर्ण मुद्दे समाहित हैं.संपादकीय में.यह हम.सबके लिए एक सुखद संदेश है.हर देश.हर प्रांत. और हर गांव में अपने अपने स्तर पर ऐसी कोशिश होनी चाहिए. किताबें.दुनिया की सबसे अच्छी शिक्षक हैं..उनको नष्ट करना तो अपराध ही माना जायेगा.शिक्षा. सीख कहीं से भी मिले ग्रहण कर लेना चाहिए. लंदन भी.शामिल है..हमारे शहर में उपहार में दी गई पुस्तकें सडक किनारे फुटपाथ पर बिकती दिखाई देती हैं.जो अशोभनीय लगता है.ऐसे पुस्तकालय गरीब और अक्षम बच्चो कै लिए उपयोगी हो सकते हैं.बहुत बहुत धन्यवाद आभार भाई. इस सुन्दर जानकारी के लिए..शुभ कामनाए
तेजेंद्र शर्मा सर जी धन्यवाद
इतनी बढ़िया जानकारी देने के लिए, कचरे से बीन कर किताबें निकालनी और
पुस्तकालय बनाना यह बहुत बड़ी बात है। हमारे इतिहास को जिंदा रखने की कोशिश की गई, साहित्यकारों के लिए भी यह गर्व की बात है कि पुस्तकालय बना।
किताबों से ही इंसान इंसान बनता है।
बहुत ही सकारात्मक लिखा है माता रानी आपकी लेखनी में चार चांद लगाए।
आदरणीय संपादक महोदय,
इस विचारणीय विषय पर संपादकीय देने के लिए बधाइयां और धन्यवाद। इस समय भारत में राजनीतिक कारणों से हिंसा प्रभावित वातावरण से बचने के लिए इतने विचारणीय विषय पर संपादकीय देना कोई आप जैसा कुशल चितेरा ही कर सकता है।
भारत में पुस्तक पढ़ना सचमुच अब धीरे-धीरे बीते युग की बात बनती जा रही है।मुझे ऐसा लगता है कि इसके मूल में शायद मैकाले की शिक्षा पद्धति रही हो, जिसने पढ़ाई का अर्थ डिग्री और डिग्री का भविष्य नौकरी से जोड़ दिया, ज्ञान और आनंद के लिए पढ़ने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई।
अब तो स्थिति यह है कि डिग्री पाने के लिए भी पाठ्य पुस्तक कोई नहीं पढ़ता, यह बात मैं अपने निजी अनुभव से कह रही हूं।आज से 10 वर्ष पहले स्वास्थ्य के कारणों से मुझे जून के महीने में रोज ही मेट्रो से लंबा सफर करना पड़ता था।उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाएं चल रही थीं, जो समय मेरा यात्रा करने का होता था उस समय परीक्षार्थी नवयुवक और नवयुवतियों से मेट्रो के डिब्बे भरे रहते थे सबके हाथ में पुस्तक तो होती थी परंतु किसी के भी हाथ में मैंने पाठ्य पुस्तक नहीं देखी ‘मेड ईजी’ या ‘कुंजी ‘जो हमारे पढ़ाई के समय में लज्जा की बात मानी जाती थी केवल वेही पुस्तकें लोगों के हाथों में थीं।
जानकारी बढ़ाने के लिए ज्ञान की तो आवश्यकता किसी को रही नहीं, जहां तक आनंद लेने की बात है तो उन साधनों की भी कोई कमी रह नहीं गई है। जानकारी के लिए गूगल गुरु सदैव उपस्थित है, ऐसे में पुस्तकों का भविष्य अंधकारमय ही लगता है।
एक बात से अत्यंत संतोष हुआ कि जहां आतताइयों ने विश्व के इतिहास में कई पुस्तकालय जलाए वहां किसी एक ने तो यह पुण्य का काम किया कि एक पुस्तकालय कचरा बीन कर बना दिया।
मैंनेअमेरिका में भी यह देखा है कि लोग अपनी पढ़ी हुई किताबें पुस्तकालय में ही, एक नियत स्थान पर, लाकर रख देते हैं जिन्हें आप बेहद सस्ते दामों में खरीद सकते हैं या मुफ्त में उठा कर ले जा सकते हैं या फिर पुस्तक के दाम के नाम पर पुस्तकालय को कुछ पैसे दान दे सकते हैं।
सरोजिनी जी इस विस्तृत, सार्गर्भित एवं सार्थक टिप्पणी के माध्यम से अपने न केवल संपादकीय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं बल्कि अपने अनुभव भी साझा किए हैं। हार्दिक आभार।
सकारात्मकता की आवश्यकता निर्विवाद है। आपके सकारात्मक संपादकीय के लिए धन्यवाद। बख्तियार खिलजी भी तुर्क मूल का था। उसने भारत,पुस्तकों और ज्ञान को जो घाव दिये वह नासूर की तरह मानवता के अस्तित्व के साथ रिसते रहेंगे। एक पुस्तकालय वह भी पहले से मुद्रित पुस्तकों का बना देने से इसका प्रायश्चित असंभव है।
अपने मन की नकारात्मकता को मैं रोक नहीं सकी। आपका प्रयास और लेखन स्तुत्व है, आभार।
प्रिय मित्र आपका यह प्रेरक संपादकीय भारत के हर शहर में पढ़ा जाना चाहिए . पुराने जमाने के शहरों में खूब पुस्तकालय होते थे , वे केवल पुस्तकालय नहीं होते थे वरन् सामाजिक विमर्श का केंद्र भी हुआ करते थे . पुरानी बंबई में एशियाटिक लाइब्रेरी से ले कर गली मोहल्लों तक के पुस्तकालयों , क्लबों में पुस्तकें पढ़ी जाती थीं. आज के मुंबई में बहुमँझली इमारतें ही इमारतें हैं जिनमें ज़िम, टेनिस कोर्ट , फ़ूड कोर्ट और ब्यूटी सलून सभी कुछ हैं अगर नदारद हैं तो मानसिक वर्जिश के पुस्तकालय. काश आपका संपादकीय पढ़ कर लोगों को कुछ समझ आये.
आपने एक बेजोड़ विषय पर संपादकीय लिखा आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं…..
इस विषय को पढ़ते हुए मेरे मन में सबसे पहली बात यहीं आई कि भारत पश्चिम की नकल में किताबों को छोड़ता हुआ इंटरनेट की ओर बढ़ रहा है। अपने को आधुनिक बनाने की होड़ में वह ही किताबों से जुड़ रहा है जबकि यूरोप वापस जड़ों से जुड़ रहा है।
अत्यंत प्रेरक और रुचिकर विषय पर प्रकाश डाला है । हालांकि हम लोग किताबों को विद्या मानकर पूजते ज़रूर हैं, लेकिन ज़रूरत पूरी होने पर रद्दी वाले को औने-पौने दामों पर बेचकर हाथ झाड़ लेते हैं। सही है आजकल इंटरनेट ने पढ़ाई की आदत ही ख़त्म कर दी है । लोगों के हाथों में किताबें नहीं नज़र आती, बहरहाल फोन ज़रूर उलझाए रखते हैं । समय रहते इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ जाये तो अच्छा वरना पुस्तकालयों का अस्तित्व ख़तरे में आ जायेगा।
इस बेहतरीन संपादकीय के लिए साधुवाद!
ढेरों नकारात्मकता के बीच आज का आपका संपादकीय मन को सुकून दे गया। पुस्तकों को पढ़ना और उन्हें सहेजना हमारी पीढ़ी बखूबी करती थी। शायद ही कोई घर हो, जहाँ कहानी की पुस्तकें न आतीं हों। यह अवश्य है कि यूरोपियन देशों की तुलना में हमारे देश की युवा पीढ़ी पुस्तकें कम पढ़ती है किन्तु फिर से उनका रुझान पुस्तकों की ओर बढेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
किन्तु कचरे से पुस्तकें उठाकर पुस्तकालय की योजना सचमुच बहुत ही प्रेरणादाई है। इससे न केवल पुरानी पुस्तकें संरक्षित की जा सकेंगी वरन लोगों की मानसिक पिपासा को भी शांत कर पाएंगी।
बहुत ही शानदार संपादकीय। ऐसे सकारात्मक दिशा देते संपादकीय शायद आज की जरूरत हैं । पुस्तकों को हमारी और आपकी जरूरत है और हमें पुस्तकों की। हमारी अगली पीढ़ी तभी संस्कारित होगी जब उनके हाथों में किताबें होंगी। इस संपादकीय के लिए ढेर सारी बधाई।
एकदम नयी जानकारी और आँख खोलने वाली बात। वह जिन्हें किताबों से इतना प्रेम वे हमारी दृष्टि में बड़े बड़े डिग्री धारकों से ज्यादा शिक्षित और कद्र करने वाले है।
अनमोल सम्पादकीय के लिए बधाई!
तेजेन्द्र जी
नमस्कार
बहुत महत्वपूर्ण व चिंतनशील संपादकीय! आत्मीय बधाई व अभिनंदन । ऐसे कोई भी लेख पढ़ने पर मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब किसी भी साहित्यिक पत्रिका के आने की प्रतीक्षा माह के पहले दिन से शुरू हो जाती थी फिर माँ के और मेरे बीच रूठना मनाना होता था कि पहले पत्रिका में अपना काॅलम कौन पढ़े?
मेरे पिता हिंदु बनारस विश्वविद्यालय से चार विषयों में पीएच.डी थे। दिल्ली में मिनीस्ट्री आॉफ़ कामर्स से रिटायर होने के बाद देश विदेशों में वेदों पर व्याख्यान देने जाते। हमारे घर में कुछ बहुमूल्य था तो पुस्तकें थीं।
उनके बाद मैंने गांधीनगर के एक पुस्तकालय में 12 बड़े बाक्स भरकर दिए जहाँ युवाओं को शोध के लिए पुस्तकें मिल जाती हैं। मुझे क्षोभ है कि जीवन के अंत में किन्ही कारणोंवश उनके वेद व उनकी हस्तलिखित प्रतियाँ संभाल नहीं सकी।
कालेज के दिन भी याद आए जब अंग्रेज़ी एम.ए के समय घंटों लायब्रेरी में नोट्स बनाते थे। दरसल, कोर्स से इतर बहुत साहित्य पढ़ा जाता था।
देखते ही देखते समय में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि बच्चे एक बैग में लैपटॉप व मोबाइल से सारी परीक्षाएँ पास कर जाते हैं।
आज भी मेरे पास इतनी पुस्तकें हैं कि सोचकर मन परेशान होता है कि मेरे बाद कैसे संभलेंगी?
इतने व्यवहारिकता से जुड़े होते हैं आपके संपादकीय कि सौ-सौ बातें दिमाग़ में घूमने लगती हैं।
पुस्तकों को संभालना न केवल अपने लिए किंतु समाज के लिए भी एक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है जिसके लिए पहले युवाओं को इस बात की महत्ता समझाना बहुत ज़रूरी है।
इस जानकारी व जागरूकता के लिए साधुवाद आपको
तेजेन्द्र जी, आपका कचरे में फैंकी पुस्तकों से एक पुस्तकालय के निर्माण विषय का सम्पादकीय बहुत ही ज्ञानवर्धक, महत्वपूरण तथा रोचक लगा। इस नई जानकारी के लिये बहुत बहुत साधुवाद। समय के साथ साथ हर पुस्तक प्रेमी का अपने ही घर में एक पुस्तकालय बन जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है कि इन पुस्तकों का क्या किया जाये। अधिकतर लोगों को इन्हें सिवाये कचरे में फैंकने के और कोई चारा नहीं सूझता। बड़े शहरों में कोई भी लाईब्रेरी इन्हें लेने को तैयार नहीं होती। वो तो हर महीने अपनी ही पुस्तकें सेल पर लगाते हैं। यदि शैल्फ़ पर कोई पुस्तक एक समय तक किसी ने इशु नहीं कराई तो उसे भी शैल्फ़ से हटा दिया जाता है।
काश हर छोटे बड़े शहरों में ज्ञान की इस धरोहर को इतनी बेदर्दी से कचरे में न फैंक कर किसी के पढ़ने के लिये सुविधा जुटाई जाये, ऐसी कामना है।
बहुत बढ़िया संपादकीय आदरणीय शर्मा जी । काश भारतवासियों को भी इन किताबों का महत्त्व समझ आये । मैं भी पुस्तकालय इंचार्ज हूँ , तो पुस्तकों का महत्त्व समझती हूँ । ये खबर वास्तव में अद्भुत है ।
आज का संपादकीय कचरे से पुस्तकालय एक ऐसा विषय है जिसे आज के सियासती माहौल से दूर हर पुस्तक प्रेमी ,मानवता प्रेमी ,अध्यात्म और दर्शन के चितेरे,,,,पढ़ना चाहेंगे।आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने भारत देश के पठन पाठन पर भी सच्ची बातें कही हैं जिन पर लिखना आज का मीडिया और गण मान्य और लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार,सरस्वती पुत्र अब भूल गए हैं।भारत एक युवा देश! बड़ा सा सागर सा विशाल जनसमूह पर पुस्तक संस्कृति ,पुस्तक साहित्य और साहित्य प्रेमी अब चूकते जा रहे हैं।दिल्ली पुस्तक मेला जिसमें कभी देश विदेश तक के प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता आते थे और स्टाल संख्या कम से कम पांच सौ से आठ सौ तक पहुंचती थी और नौ दिवसीय यह पुस्तक मेला अब पांच दिन और महज़ साठ स्टाल , सत्ताईस वां संस्करण 2023 तक सिमट गया और दुकानदारी से कुछ अधिक नहीं रह गया है।
बाए पुनः पुरवाई के अनुभवी और साहित्य पुरोधा तेजेंद्र शर्मा जी के आज के संपादकीय की।
सच्चाई को बंया करता एक दस्तावेज ,सभी सतत पाठकों को इस संपादकीय को अपने स्तर से सोशल मीडिया पर पोस्ट करना चाहिए।
भाई सूर्य कांत शर्मा जी इस सार्थक एवं गंभीर टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
आह! मजा आ गया पढ़कर। ऐसा ही कुछ मेरा ख़्वाब है कि एक दिन अपना पूरा घर पुस्तकालय बना दूँ।
हार्दिक शुभकामनाएं, छोटे भाई को।
बहुत बढ़िया जानकारी, माननीय। लखनऊ के एक पुस्तक- विक्रेता के कर्मचारी ने बताया कि शहर के कुछ महाविद्यालय अब पुस्तकों का बिल लेते हैं, पुस्तक नहीं। उन्हें बिल लेकर पैसे बनाने से काम है, बस।
पठनशीलता बिलकुल समाप्तप्राय है। होना यह चाहिए कि स्कूल अपने छात्रों को हर हफ्ते एक पुस्तक पढ़ने और उसकी समीक्षा लिखने को कहें। पर इसके लिए स्कूल में पुस्तकालय होना जरूरी है और शिक्षकों का विद्यानुरागी। पैसानुरागी नहीं।
तुर्की इस्लामिक देश है पर यूरोपीय।
तुर्की का स्वभाषा प्रेम कमाल पाशा के समय से ही प्रसिद्ध है।
आपके इस उत्तम संपादकीय के लिए साधुवाद।
भाई सिंह साहब लखनऊ के बारे में आपकी जानकारी चिंता का विषय है।
काश, ऐसी समझ वाले लोग हर देश में होते। मैंने खुद भी कचरे से किताब उठायी है और अपनी लाइब्रेरी को समृद्ध किया है।
चन्द्रशेखर भाई टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
बहुत ही बढिया जानकारी दी है सर।इस संपादकीय को पढ़कर सकरात्मकता फैल रही है।
धन्यवाद दिव्या
बहुत प्रेरक संपादकीय । शायद इसे पढ़ कर पुस्तकों मो नया घर और जीवनदान मिले । नई पीढ़ी ने तो पुस्तकें पढ़ना ही छोड़ दिया है । अमेरिका में सड़कों पर और बागों के आस पास छोटे छोटे आकार में बॉक्स बना कर स्टैंड पर लगा दिये जाते हैं । bird house जैसे । लोग उनमें किताबें रखते हैं और ले जाते हैं ।मैंने इस संदर्भ में एक आलेख लिखा है जो एनबीटी की पत्रिका पुस्तक संस्कृति में प्रकाशित हुआ है । लेकिन कचरा कर्मचारियों का यह अनूठा प्रयास है । पुस्तकें बचाओ — नया नारा होना चाहिए । धन्यवाद आपका ।
शशि जी सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार। यह बर्ड हाउस वाला आइडिया पूरे यूरोप में प्रचलित है। दरअसल लंदन के बाहर छोटे नगरों के रेलवे स्टेशनों में पुराने फ़ोन बूथों का प्रयोग छोटे पुस्तकालयों के रूप में किया जा रहा है।
बहुत सुंदर। विचारणीय लेख। कुछ तो लोग सोचेंगे अब।
बड़े भाई हार्दिक आभार।
नमस्ते सर, बहुत ही प्रेरक संपादकीय है , साँझा करने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद , आपको पढ़कर हमेशा सकारात्मक ऊर्जा मिलती है
रेखा इस स्नेह के लिये हार्दिक आभार।
Your Editorial of today introduces us to a great idea occurring to a Turkish garbage collector of collecting books from among the garbage disposals and building a grand library out of them with the help of his fellow garbage collectors and other people who got inspired to contribute their books to it.
It also emphasizes upon us how important libraries are n how books should be read and cherished.
People belonging to my generation used libraries for their love of the written word and for their studies also as well as for procuring knowledge n wisdom.
I fully endorse your view that we must value libraries and the books that are collected there.
Warm regards
Deepak Sharma
Thanks so much Deepak ji for your supportive comment. In UK people are utilising old unused telephone booths as small libraries.
अत्यंत चिंतनीय, अनुकरणीय इस संपादकीय लेख के माध्यम से आपने वैश्विक रूप से पुस्तकों की महनीयता और वर्तमान संदर्भ में उसकी वास्तविक स्थिति पर प्रेरक प्रकाश डाला है।
आपको साधुवाद
ऋतु इस सकारात्मक एवं सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
बहुत ही श्रेष्ठ. सार्थक. उद्देश्यपूर्ण मुद्दे समाहित हैं.संपादकीय में.यह हम.सबके लिए एक सुखद संदेश है.हर देश.हर प्रांत. और हर गांव में अपने अपने स्तर पर ऐसी कोशिश होनी चाहिए. किताबें.दुनिया की सबसे अच्छी शिक्षक हैं..उनको नष्ट करना तो अपराध ही माना जायेगा.शिक्षा. सीख कहीं से भी मिले ग्रहण कर लेना चाहिए. लंदन भी.शामिल है..हमारे शहर में उपहार में दी गई पुस्तकें सडक किनारे फुटपाथ पर बिकती दिखाई देती हैं.जो अशोभनीय लगता है.ऐसे पुस्तकालय गरीब और अक्षम बच्चो कै लिए उपयोगी हो सकते हैं.बहुत बहुत धन्यवाद आभार भाई. इस सुन्दर जानकारी के लिए..शुभ कामनाए
आपके दिल की भावनाएं आपकी टिप्पणी के माध्यम से पुरवाई के पाठकों तक पहुंची हैं। हार्दिक आभार।
तेजेंद्र शर्मा सर जी धन्यवाद
इतनी बढ़िया जानकारी देने के लिए, कचरे से बीन कर किताबें निकालनी और
पुस्तकालय बनाना यह बहुत बड़ी बात है। हमारे इतिहास को जिंदा रखने की कोशिश की गई, साहित्यकारों के लिए भी यह गर्व की बात है कि पुस्तकालय बना।
किताबों से ही इंसान इंसान बनता है।
बहुत ही सकारात्मक लिखा है माता रानी आपकी लेखनी में चार चांद लगाए।
डॉक्टर मुक्ति आपको सार्थक एवं सार्गर्भित टिप्पणी के लिए विशेष धन्यवाद।
वाह ,आज मित्रता दिवस पर उम्दा सम्पादकीय पढ़ने मिली । कचरे से किताबें उठीं और हजारों की मित्र हो गयीं । नए विषय से अवगत हुए ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
प्रभा जी स्नेह बनाए रखें। हार्दिक आभार।
आदरणीय संपादक महोदय,
इस विचारणीय विषय पर संपादकीय देने के लिए बधाइयां और धन्यवाद। इस समय भारत में राजनीतिक कारणों से हिंसा प्रभावित वातावरण से बचने के लिए इतने विचारणीय विषय पर संपादकीय देना कोई आप जैसा कुशल चितेरा ही कर सकता है।
भारत में पुस्तक पढ़ना सचमुच अब धीरे-धीरे बीते युग की बात बनती जा रही है।मुझे ऐसा लगता है कि इसके मूल में शायद मैकाले की शिक्षा पद्धति रही हो, जिसने पढ़ाई का अर्थ डिग्री और डिग्री का भविष्य नौकरी से जोड़ दिया, ज्ञान और आनंद के लिए पढ़ने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई।
अब तो स्थिति यह है कि डिग्री पाने के लिए भी पाठ्य पुस्तक कोई नहीं पढ़ता, यह बात मैं अपने निजी अनुभव से कह रही हूं।आज से 10 वर्ष पहले स्वास्थ्य के कारणों से मुझे जून के महीने में रोज ही मेट्रो से लंबा सफर करना पड़ता था।उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षाएं चल रही थीं, जो समय मेरा यात्रा करने का होता था उस समय परीक्षार्थी नवयुवक और नवयुवतियों से मेट्रो के डिब्बे भरे रहते थे सबके हाथ में पुस्तक तो होती थी परंतु किसी के भी हाथ में मैंने पाठ्य पुस्तक नहीं देखी ‘मेड ईजी’ या ‘कुंजी ‘जो हमारे पढ़ाई के समय में लज्जा की बात मानी जाती थी केवल वेही पुस्तकें लोगों के हाथों में थीं।
जानकारी बढ़ाने के लिए ज्ञान की तो आवश्यकता किसी को रही नहीं, जहां तक आनंद लेने की बात है तो उन साधनों की भी कोई कमी रह नहीं गई है। जानकारी के लिए गूगल गुरु सदैव उपस्थित है, ऐसे में पुस्तकों का भविष्य अंधकारमय ही लगता है।
एक बात से अत्यंत संतोष हुआ कि जहां आतताइयों ने विश्व के इतिहास में कई पुस्तकालय जलाए वहां किसी एक ने तो यह पुण्य का काम किया कि एक पुस्तकालय कचरा बीन कर बना दिया।
मैंनेअमेरिका में भी यह देखा है कि लोग अपनी पढ़ी हुई किताबें पुस्तकालय में ही, एक नियत स्थान पर, लाकर रख देते हैं जिन्हें आप बेहद सस्ते दामों में खरीद सकते हैं या मुफ्त में उठा कर ले जा सकते हैं या फिर पुस्तक के दाम के नाम पर पुस्तकालय को कुछ पैसे दान दे सकते हैं।
सरोजिनी जी इस विस्तृत, सार्गर्भित एवं सार्थक टिप्पणी के माध्यम से अपने न केवल संपादकीय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं बल्कि अपने अनुभव भी साझा किए हैं। हार्दिक आभार।
सकारात्मकता की आवश्यकता निर्विवाद है। आपके सकारात्मक संपादकीय के लिए धन्यवाद। बख्तियार खिलजी भी तुर्क मूल का था। उसने भारत,पुस्तकों और ज्ञान को जो घाव दिये वह नासूर की तरह मानवता के अस्तित्व के साथ रिसते रहेंगे। एक पुस्तकालय वह भी पहले से मुद्रित पुस्तकों का बना देने से इसका प्रायश्चित असंभव है।
अपने मन की नकारात्मकता को मैं रोक नहीं सकी। आपका प्रयास और लेखन स्तुत्व है, आभार।
शैली जी, आपकी टिप्पणी आपके मन की भावना प्रकट करती है। हार्दिक आभार।
प्रिय मित्र आपका यह प्रेरक संपादकीय भारत के हर शहर में पढ़ा जाना चाहिए . पुराने जमाने के शहरों में खूब पुस्तकालय होते थे , वे केवल पुस्तकालय नहीं होते थे वरन् सामाजिक विमर्श का केंद्र भी हुआ करते थे . पुरानी बंबई में एशियाटिक लाइब्रेरी से ले कर गली मोहल्लों तक के पुस्तकालयों , क्लबों में पुस्तकें पढ़ी जाती थीं. आज के मुंबई में बहुमँझली इमारतें ही इमारतें हैं जिनमें ज़िम, टेनिस कोर्ट , फ़ूड कोर्ट और ब्यूटी सलून सभी कुछ हैं अगर नदारद हैं तो मानसिक वर्जिश के पुस्तकालय. काश आपका संपादकीय पढ़ कर लोगों को कुछ समझ आये.
प्रदीप भाई आप ने अपनी बात बहुत गहराई से रखी है। हार्दिक आभार।
बहुत ही सुंदर जानकारी।
पर देश की युवा पीढ़ी साहित्य से विमुख हो चुकी हैं।
Internet ने हर जगह ली और युवा वर्ग पढ़ना भूल गया।
आपने सही कहा सपना।
आपने एक बेजोड़ विषय पर संपादकीय लिखा आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं…..
इस विषय को पढ़ते हुए मेरे मन में सबसे पहली बात यहीं आई कि भारत पश्चिम की नकल में किताबों को छोड़ता हुआ इंटरनेट की ओर बढ़ रहा है। अपने को आधुनिक बनाने की होड़ में वह ही किताबों से जुड़ रहा है जबकि यूरोप वापस जड़ों से जुड़ रहा है।
भारती इस सार्थक टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
अत्यंत प्रेरक और रुचिकर विषय पर प्रकाश डाला है । हालांकि हम लोग किताबों को विद्या मानकर पूजते ज़रूर हैं, लेकिन ज़रूरत पूरी होने पर रद्दी वाले को औने-पौने दामों पर बेचकर हाथ झाड़ लेते हैं। सही है आजकल इंटरनेट ने पढ़ाई की आदत ही ख़त्म कर दी है । लोगों के हाथों में किताबें नहीं नज़र आती, बहरहाल फोन ज़रूर उलझाए रखते हैं । समय रहते इस प्रवृत्ति में परिवर्तन आ जाये तो अच्छा वरना पुस्तकालयों का अस्तित्व ख़तरे में आ जायेगा।
इस बेहतरीन संपादकीय के लिए साधुवाद!
बेहतरीन टिप्पणी रचना… हार्दिक आभार।
ढेरों नकारात्मकता के बीच आज का आपका संपादकीय मन को सुकून दे गया। पुस्तकों को पढ़ना और उन्हें सहेजना हमारी पीढ़ी बखूबी करती थी। शायद ही कोई घर हो, जहाँ कहानी की पुस्तकें न आतीं हों। यह अवश्य है कि यूरोपियन देशों की तुलना में हमारे देश की युवा पीढ़ी पुस्तकें कम पढ़ती है किन्तु फिर से उनका रुझान पुस्तकों की ओर बढेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
किन्तु कचरे से पुस्तकें उठाकर पुस्तकालय की योजना सचमुच बहुत ही प्रेरणादाई है। इससे न केवल पुरानी पुस्तकें संरक्षित की जा सकेंगी वरन लोगों की मानसिक पिपासा को भी शांत कर पाएंगी।
सुधा जी आपका समर्थन पुरवाई संपादकीय को निरंतर मिलता है। आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है।
बहुत ही शानदार संपादकीय। ऐसे सकारात्मक दिशा देते संपादकीय शायद आज की जरूरत हैं । पुस्तकों को हमारी और आपकी जरूरत है और हमें पुस्तकों की। हमारी अगली पीढ़ी तभी संस्कारित होगी जब उनके हाथों में किताबें होंगी। इस संपादकीय के लिए ढेर सारी बधाई।
नीलम इस सारगर्भित टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
एकदम नयी जानकारी और आँख खोलने वाली बात। वह जिन्हें किताबों से इतना प्रेम वे हमारी दृष्टि में बड़े बड़े डिग्री धारकों से ज्यादा शिक्षित और कद्र करने वाले है।
अनमोल सम्पादकीय के लिए बधाई!
रेखा जी इस बेहतरीन टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
तेजेन्द्र जी
नमस्कार
बहुत महत्वपूर्ण व चिंतनशील संपादकीय! आत्मीय बधाई व अभिनंदन । ऐसे कोई भी लेख पढ़ने पर मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं जब किसी भी साहित्यिक पत्रिका के आने की प्रतीक्षा माह के पहले दिन से शुरू हो जाती थी फिर माँ के और मेरे बीच रूठना मनाना होता था कि पहले पत्रिका में अपना काॅलम कौन पढ़े?
मेरे पिता हिंदु बनारस विश्वविद्यालय से चार विषयों में पीएच.डी थे। दिल्ली में मिनीस्ट्री आॉफ़ कामर्स से रिटायर होने के बाद देश विदेशों में वेदों पर व्याख्यान देने जाते। हमारे घर में कुछ बहुमूल्य था तो पुस्तकें थीं।
उनके बाद मैंने गांधीनगर के एक पुस्तकालय में 12 बड़े बाक्स भरकर दिए जहाँ युवाओं को शोध के लिए पुस्तकें मिल जाती हैं। मुझे क्षोभ है कि जीवन के अंत में किन्ही कारणोंवश उनके वेद व उनकी हस्तलिखित प्रतियाँ संभाल नहीं सकी।
कालेज के दिन भी याद आए जब अंग्रेज़ी एम.ए के समय घंटों लायब्रेरी में नोट्स बनाते थे। दरसल, कोर्स से इतर बहुत साहित्य पढ़ा जाता था।
देखते ही देखते समय में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि बच्चे एक बैग में लैपटॉप व मोबाइल से सारी परीक्षाएँ पास कर जाते हैं।
आज भी मेरे पास इतनी पुस्तकें हैं कि सोचकर मन परेशान होता है कि मेरे बाद कैसे संभलेंगी?
इतने व्यवहारिकता से जुड़े होते हैं आपके संपादकीय कि सौ-सौ बातें दिमाग़ में घूमने लगती हैं।
पुस्तकों को संभालना न केवल अपने लिए किंतु समाज के लिए भी एक महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है जिसके लिए पहले युवाओं को इस बात की महत्ता समझाना बहुत ज़रूरी है।
इस जानकारी व जागरूकता के लिए साधुवाद आपको
आदरणीय प्रणव जी, इस गंभीर, सार्थक एवं निजी अनुभवों से भरपूर टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
तेजेन्द्र जी, आपका कचरे में फैंकी पुस्तकों से एक पुस्तकालय के निर्माण विषय का सम्पादकीय बहुत ही ज्ञानवर्धक, महत्वपूरण तथा रोचक लगा। इस नई जानकारी के लिये बहुत बहुत साधुवाद। समय के साथ साथ हर पुस्तक प्रेमी का अपने ही घर में एक पुस्तकालय बन जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है कि इन पुस्तकों का क्या किया जाये। अधिकतर लोगों को इन्हें सिवाये कचरे में फैंकने के और कोई चारा नहीं सूझता। बड़े शहरों में कोई भी लाईब्रेरी इन्हें लेने को तैयार नहीं होती। वो तो हर महीने अपनी ही पुस्तकें सेल पर लगाते हैं। यदि शैल्फ़ पर कोई पुस्तक एक समय तक किसी ने इशु नहीं कराई तो उसे भी शैल्फ़ से हटा दिया जाता है।
काश हर छोटे बड़े शहरों में ज्ञान की इस धरोहर को इतनी बेदर्दी से कचरे में न फैंक कर किसी के पढ़ने के लिये सुविधा जुटाई जाये, ऐसी कामना है।
आपकी टिप्पणी का दर्द महसूस किया जा सकता है विक्रांत भाई। हार्दिक आभार।
बहुत बढ़िया संपादकीय आदरणीय शर्मा जी । काश भारतवासियों को भी इन किताबों का महत्त्व समझ आये । मैं भी पुस्तकालय इंचार्ज हूँ , तो पुस्तकों का महत्त्व समझती हूँ । ये खबर वास्तव में अद्भुत है ।
बहुत प्रेरणादायक संपादकीय सर l काश हमारे देश में भी लोगों को इसकी समझ या जाए l