ग़ज़ल – नीलम वर्मा
इन काले अंधेरों को दुनिया से मिटा दें हम
अब उसकी जफ़ाओं का, कुछ ऐसा सिला दें हम
रुसवाई के अब चर्चे, इस दर्जा हैं महफ़िल में
मशहूर जो होता है, बदनाम भी होता है
ये कैसा है मयखाना, मिल कर है बिछड़ जाना
बेदाग़ नहीं कोई, मालूम है साक़ी को
साहिल भी सागर भी, तन्हा सभी ‘नीलम’ हैं
नीलम वर्मा (दिल्ली)
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बहुत सुंदर ग़ज़ल
अच्छी ग़ज़ल है आपकी नीलम जी! कुछ शेर जो अच्छे लगे
इन काले अंधेरों को दुनिया से मिटा दें हम
जब तक ना सवेरा हो इक शम्आ जला दें हम
मशहूर जो होता है, बदनाम भी होता है
तल्खियाँ ज़माने की हंस हंस के उड़ा दें हम